भ्रम से मुक्ति कैसे पाएं! यह एक जटिल प्रश्न है। इससे बाहर निकलने के मार्ग तो हैं। परन्तु जब तक यह पता न हो कि यह जो भ्रम है! कौन सी चीज है, कौन सी स्थिति है? तब तक हम इससे पार पाने का सोच भी नहीं सकते। तो फिर यह भ्रम क्या है?
ऐसा ज्ञान अथवा विचार को भ्रम कहा जा सकता है, जिसके वास्तविकता को जाने बिना उसे सच समझा जाता है। किसी को कुछ और स्वरूप में देखना भ्रम है। किसी भी विषय-वस्तु के संबंध में हमें जो अनुभव होता है – वह सच है भी या नहीं! इसका अनुसंधान किए बिना हम सच को नहीं जान सकते। किसी विषय-वस्तु अथवा के सच को जाने बिना ही हम उसके विषय में अपना एक विचार बना लेते हैं। जिस कारण एक ऐसी स्थिति होती है, जो भ्रम है।
रात के अंधेरे में रस्सी का एक टुकड़ा सॉंप के जैसा प्रतीत होता है। है तो वह रस्सी, पर सॉंप के जैसा दिखता है। और हम उसे सॉंप समझ भी लेते हैं। लेकिन थोड़ी देर तक ठहर कर अगर देखें, तो ऐसा भी मालूम होता है कि कोई हलचल नहीं है उसमें! तो संदेह भी होता है। संदेह होता है, उसके सॉंप होने पर। लेकिन हम उसे छूने का प्रयास ही नहीं करते। अतः हम निश्चित नहीं हो पाते कि वह रस्सी का टुकड़ा है या सॉंप है। हम उसे सॉंप समझ लेते हैं, लेकिन पुरी तरह से नहीं। उसके सॉंप होने में संदेह बना रहता है और वह रस्सी है या कुछ और, जानने का प्रयास भी नहीं करते। यही भ्रम है! यह संशयात्मक बुद्धि है, मिथ्या ज्ञान है, जो हमारे द्वारा ही रचा गया है।
भ्रम की स्थिति को दो तरह से समझा जा सकता है। एक जो दृष्टदोष है, जैसे रस्सी को सॉंप की तरह देखना। और दुसरा मन का दोष है, जिसका कारण है अहंकार। स्थितियां चाहे जैसी भी हों, जब तक हमें सच का ज्ञान न हो, हम भ्रमित ही रहेंगे। यह जो भ्रम है, संशय की स्थिति है, संदेह की स्थिति है। झुठ और सच, गलत और सही के बीच की स्थिति है।
महान वैज्ञानिक सर आइजक न्यूटन ने कहा है कि “हम जो जानते हैं वो बुंद के बराबर है और जो नहीं जानते वो महासागर के बराबर है।”
उनके इस कथन का तात्पर्य है कि हम सबकुछ नहीं जानते। अपने प्रयासों से गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत संसार को उन्होंने ही दिया। परन्तु शायद उन्हें भी यह अनुभव हुवा होगा कि कुछ ऐसा है, जो वह जान नहीं पाये। एक बुंद का स्पर्श कर लेने भर से महासागर को नहीं जाना जा सकता।
हम जो जानते हैं, बहुत थोड़ा ही जानते हैं। लेकिन यह समझते हैं कि हम जानते हैं। यह अहंकार है और जो जानते हैं, वहां भी संदेह की स्थिति में रहते हैं। लेकिन यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि हम बहुत कुछ जानते हैं। गलत क्या है और सही क्या है? हम नहीं जानते। पर खुद को सही साबित करने में लगे रहते हैं। यही भ्रम है!
श्री श्री रविशंकर के अनुसार “ज्ञान का उद्देश्य है कि वह आपको और भ्रम में डाले। जब आप भ्रमित होते हैं, तब आप एक और सीढ़ी चढ़ जाते हैं। इसलिए कोई बात नहीं! जब कोई भ्रम नहीं है, तब ऐसा है कि आप एक सीधे जमीन पर चल रहे हैं, जिसमें कोई कुद फांद नहीं है। लेकिन कभी कभी सीढ़ियां होती हैं, जहां आपको एक सीढ़ी छोड़कर दुसरी सीढ़ी पर ऊपर चढ़ना होता है और तभी भ्रम होता है।”
श्री श्री के कहने का तात्पर्य भी यही है कि ज्ञान का उद्देश्य सच तक पहुंचाना है। संदेह मार्ग है और विश्वास मंजिल! संदेह विश्वास तक जाने का मार्ग है! भ्रम सच तक जाने का मार्ग है। यदि किसी बात को लेकर हम भ्रमित हैं, तो यह अच्छा है। यह अच्छा है उसके लिए जो भ्रम से मुक्ति का साहस रखते हैं।
यह जो भ्रम है, मान्सिक स्थिति है। साधारण मनुष्य अपना सारा जीवन भ्रम में जीता है। कर्म के संबंध में यह कहा जा सकता है कि जीते जी इससे छुटकारा नहीं मिलता। कुछ कर्म ऐसे होते हैं, जो हमसे होते रहते हैं। हमारा सॉंस लेना, उठना-बैठना, देखना-सुनना सब कर्म है। जीने की प्रत्येक क्रिया कर्म है! जीवन में नींद भी है भुख भी है। जीते जी हमें कर्म से छुटकारा नहीं मिलता!
सॉंस में हमारा नियंत्रण नहीं है और भुख में भी नहीं। जब तक सॉंस चले जीवन चलता है। और जब तक जीवन है, तन का भुख मिटाने के लिए कर्म भी करना पड़ता है। इसका मतलब यह नहीं निकाला जाना चाहिए कि हम जो कर रहे हैं, वही कर्म है या कर्म कुछ और भी है। ऐसा समझना भूल है कि हम जो करते हैं, करते चले जाएं। तब फिर हम क्या करें? यह जो दुविधा की स्थिति है, यही भ्रम है।
भ्रम से मुक्ति का उपाय क्या है जानिए!
सारा जो उपद्रव है जीवन में, वह मन के भुख के कारण है। मन जो कहता है, हम वही करते हैं। और इस मन की भुख कभी मिटती नहीं। सॉंसे रुक जाती हैं, शरीर का क्षय हो जाता है। पर मन की भुख कभी मिटती नहीं। मनुष्य सारा जीवन तृप्त होने के लिए कर्म करता रहता है और अतृप्त रहकर मर जाता है।
मनुष्य जो भी करता है, अपनी कर्मेन्द्रियों के द्वारा करता है। ऑंख से वह देखता है तो कान से सुनता है। इसी प्रकार जिह्वा से स्वाद, नासिका से गंध तो त्वचा से स्पर्श का अनुभव करता है। परन्तु इन्द्रियों की अपनी कोई इच्छा नहीं होती। इच्छाधारी तो मन है, यह मन ही है, जो इन्द्रियों से सबकुछ करवाता है। और इन्द्रियों के माध्यम से जो ज्ञान हमें मिलता है, वास्तविकता से परे होता है।
कर्मोन्द्रियाणि संयम्य च आस्ति मनसास्मरन्।
इन्द्रियार्थान्यिझूठात्मा मिथ्याचार: स उच्यते।।
श्रीमद्भागवत गीता में उल्लेखित उक्त श्लोक का अर्थ है कि जो अज्ञानी पुरुष कर्मेन्द्रियों को बलात् यानि हठपूर्वक रोककर इन्द्रिय जनित भोगों का मन से चिंतन करता है, वह मिथ्याचारी कहा जाता है।
इसलिए मन को ठीक से समझ लेना अथवा मन को समझाना जरूरी है। केवल इन्द्रियों को बल पूर्वक रोकने का प्रयास हो, तो अनर्थ हो सकता है। मन को समझे बिना इन्द्रियों को साधने का प्रयास निष्फल हो जाता है। अपनी इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए मन को जब इन्द्रियों का सहयोग नहीं मिलता, तो वह बेचैन हो जाता है। और उन निर्मित विचारों का समर्थन करने लगता है। अपनी इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए भीतर ही भीतर और अनेक विचारों का निर्माण करने लगता है, जो वह करना चाहता है। यह ऐसा भ्रमजाल है, जिसे मन बुनता है और उसी में उलझता चला जाता है। इस स्थिति से बाहर आने के लिए मन पर नियंत्रण जरूरी है। इस भ्रम से मुक्ति पाने के लिए यही एकमात्र उपाय है।
हम भ्रमित हुवे रहते हैं! विषयों – विचारों के प्रति, चीजों के प्रति, कर्म के प्रति। गहनता से विचार करें तो खुद के प्रति हम भ्रमित हुवे रहते हैं। भ्रम से मुक्ति मिले, इसके लिए पहले खुद को समझना जरूरी है। मैं कौन हूं, मेंरा, कर्तव्य क्या है, हमसे जो हो रहा है, सही है या गलत है? अगर इन सवालों का जबाव हम नहीं खोज पायेंगे तो भ्रम से मुक्ति नहीं मिलेगी।
जीवन में जो उपद्रव है, दुख के रूप में, निराशा के रुप में, सबका कारण मन है। जीवन में बदलाव लाना है, तो भीतर की यात्रा करनी होगी। बाहर हम जितना प्रयास करेंगे, उतना ही उलझते जाएंगे। हमने अपने चारों ओर जो संसार का निर्माण किया है, यह हमारे मन का ही कृत्य है। कर्ता हम नहीं हमारा मन ही है। हम समझते हैं कि हमसे जो होता है, वह सब हम करते हैं। इसी अहंकार में हम सभी जीए जा रहे हैं। बदलाव कर्म में नहीं, कर्ता में होना अनिवार्य है। इस मन को साधना ही भ्रम से मुक्ति का उपाय है।
विरले ही इस भ्रम से मुक्ति का प्रयास करते हैं। इनमें से कुछ सफल होते हैं तो कुछ असफल हो जाते हैं। जो इन्द्रियों का दमन करने की चेष्टा करते हैं, मन को बदलने की चेष्टा नहीं करते, वे भटक जाते हैं। इद्रियों का दमन करने से मन में बदलाव नहीं होता। इन्द्रियों को हठपूर्वक दमित करने से मन और प्रबल हो जाता है। सवाल इन्द्रियों की नहीं, मन का है! उसकी कामनाएं जब तक नहीं मिटती, मुक्ति का प्रयास निरर्थक है।