सामान्यतः धारणा शब्द को मन की अवस्था के रूप में या फिर मानसिक क्रिया के रुप में समझा जाता है। इसे व्यक्तिगत विश्वास के रूप में लिया जाता है। किसी चीज, अथवा विषय के प्रति हमारा जो विश्वास होता है, उसके प्रति हमारी धारणा समझा जाता है। धारणा वह मनोभाव है जिसे हम मन में धारण कर लेते हैं।
मानसिक क्रिया के रुप में धारणा मन को किसी विषय अथवा विचार में लिप्त कर लेने की क्रिया है। हमारे सामान्य जीवन में विविध प्रकार के विचारों का प्रवाह होता रहता है। जिनके प्रति हमारी रूचि होती है अथवा जगाई जाती है। और हम उस ओर अपने मन को लगाए रखते हैं या लगाने का प्रयास करते हैं। मन में विचारों की भीड़ चलती रहती है। और मन इन्हीं विचारों में उलझा रहता है। यह साधारण मन की अवस्था है।
धारणा का अर्थ क्या है -जानिए
सामान्यतः धारणा मन के ऊपरी तल की अवस्था है। यह परिवार से, समाज से ग्रहित मन का भाव है जो ग्रहण करने अथवा अनुभव से पनपता है। किसी विषय-वस्तु के संबंध में हम जो अनुभव करते हैं, उसके प्रति हमारी धारणा वैसी ही हो जाती है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि धारणा कोई भी विश्वास अथवा मानसिकता यानि मस्तिष्क में किसी भी विचार को धारण करने का भाव अथवा क्रिया है।
गहनता से विचार करें तो यह मानसिक अनुशासन का मार्ग है। यह वो शक्ति है, जिसे जगाकर किसी एक जगह मन को स्थिर किया जा सकता है। धारणा मन की स्थिर करने की ऊर्जा है। यह मन को एक लक्ष्य विशेष में बांध देने की क्रिया है।
एकाग्रता का अर्थ है मन को नियंत्रित करना। किसी विषय-वस्तु पर ध्यान को केन्द्रित करना पड़ता है। धारणा मन को एकाग्र करता है और एकाग्रता से अनेक कार्य सम्पन्न होते हैं। इस अवस्था में हमारी मानसिक ऊर्जा एक विंदु पर होती है। पारलौकिक एवम् लौकिक दोनों ही तरह के कार्यों के लिए धारणा महत्त्वपूर्ण है।
धारणा की उत्पत्ति धृ धातु से हुवी है जिसका अर्थ है आधार। धारणा अर्थात् मन की स्थिरता की नींव। यह एक उत्कृष्ट मानसिक प्रक्रिया है जो मन को स्थिर करने में सहायक है। यह ध्यान का आधारशिला है। जिस पर ध्यान किया जाता है, उसी पर मन को एकाग्र करने की क्रिया धारणा है। मनुष्य के मन में प्रतिपल अनगिनत विचार तरंगों का उदय और क्षरण होता रहता है। इन सभी का हमारे जीवन पर प्रभाव पड़ता है। विचारों के इन तरंगों से स्वयं को पृथक करने और वांछित विचार को धारण करने नाम ही धारणा है। पतंजलि के अष्टांग योग का यह छठा आयाम है।
स्वामी विवेकानंद — Swami Vivekanand के अनुसार : धारणा का अर्थ है! मन को देह के भीतर या बाहर किसी स्थान विशेष में धारण या स्थापन करना। मन को विशेष स्थान में धारण करने का अर्थ है कि मन को शरीर के अन्य सभी स्थानों से भिन्न करके किसी एक विशेष अंश के अनुभव में बलपूर्वक लगाए रखना। जब मन या मनोवृति किसी निर्दिष्ट स्थान में आबद्ध होती है, तब उसे धारणा कहते हैं।
मन के विभिन्न अवस्थाओं पर उन्होंने कहा है कि यह मन अवस्था भेद से बहुत से रुप धारण करता है। जैसे क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध। क्षिप्त में मन चारों ओर बिखर जाता है। इस अवस्था में मन की प्रवृति केवल सुख और दुख इन दो भावों में ही प्रकाशित होने की होती है। मूढ़ अवस्था तमोगुणी है और इसमें मन की प्रवृति केवल औरों का अनिष्ट करने में होती है। विक्षिप्त अवस्था वह है जब मन अपने केन्द्र की ओर जाने का प्रयत्न करता है। एकाग्र अवस्था तभी होती है जब मन निरुद्ध होने के लिए प्रयत्न करता है।
मन को किसी एक स्थान पर आबद्ध कैसे करें ?
जीवन में धारणा का महत्व है और इसका होना भी जरूरी है। और इसे कार्यरुप देने के लिए नियमित अभ्यास जरूरी है।
स्वामी विवेकानंद — के अनुसार: धारणा के अभ्यास के समय किसी कल्पना की सहायता से काम अच्छा सधता है। मान लो, हृदय के एक विन्दु में मन को धारण करना है। इसे कार्य में परिणत करना अत्यंत कठिन है। अतएव सहज उपाय यह है कि हृदय में एक पद्म की भावना करो और कल्पना करो कि वह ज्योति से पुर्ण है – चारों ओर उस ज्योति की आभा विखर रही है। उसी जगह मन को धारण करो।
धारण को व्यवहार में लाने का उपाय बताते हुए उन्होंने कहा है कि एक विचार लो! उसी विचार को अपना जीवन बनाओ! उसी का चिंतन करो, उसी का स्वप्न देखो और उसी में जीवन बिताओ! तुम्हारा मस्तिष्क, स्नायु, शरीर के सर्वांग उसी के विचार से पूर्ण रहे, दुसरे सारे विचार छोड़ दो! यही सिद्ध होने का उपाय है।
सामान्य जन को सचेत करते हुए उन्होंने कहा है कि साधक के लिए नियमित अभ्यास जरूरी है। जो थोड़ी थोड़ी साधना करते हैं, वे कभी कोई विशेष उन्नति नहीं कर सकते। जो लोग तमोगुण से पूर्ण हैं, अज्ञानी और आलसी हैं, जिनका मन कभी किसी वस्तु पर स्थिर नहीं रहता, जो केवल थोड़े से मजे के अन्वेषण में हैं, उनके लिए धर्म और दर्शन केवल मनोरंजन के विषय हैं।
ज्योंहि लहरें शांत हो जाती हैं और पानी स्थिर हो जाता है, त्योहिं हम सरोवर के तल को देख पाते हैं! मन के बारे में भी ठीक ऐसा ही समझो !! जब यह शांत हो जाता है तब हम देख पाते हैं कि अपना असल स्वरुप क्या है !!!
स्वामी विवेकानंद
(स्वामी विवेकानंद के उपरोक्त विचार पावन पुस्तक ‘राजयोग’ में उल्लेखित है)
सामान्य व्यक्ति विचारों के भीड़ में ही उलझा रहता है। आध्यात्मिकता उसे समझ में नहीं आती। यह आम धारणा है कि आध्यात्मिक जीवन में कष्ट झेलना पड़ता है। जबकि आध्यात्मिकता का आशय है भौतिकता से परे जीवन का अनुभव करना। मन के ऊपरी तल पर दौड़ रहे विचारों से स्वयं को निर्लिप्त करना।
परिस्थितियां चाहे जैसी भी हों, अगर कोई भीतर से प्रसन्न हो तो वह आध्यात्मिक है। यह भीतर घटित होता है, यह व्यक्ति के जीवन में बदलाव ला सकता है। यदि किसी भी कार्य में पुरी लगन के साथ लग जाया जाय तो आध्यात्मिकता की शुरुआत हो सकती है।
आत्मिक संपदाओं को प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ करने पड़ते हैं। एक उत्तम विचार को धारण कर आत्मिक ऊर्जा का विकास किया जा सकता है। जिस प्रकार जीवन-यापन के लिए भौतिक साधनों का अर्जन किया जाता है। उसी प्रकार किसी उत्तम विचार को धारण कर आत्मिक संपदा को प्राप्त किया जा सकता है। जीवन में अगर योग हो, योगाभ्यास के द्वारा सुपात्र हुवा जा सकता है। और इसके लिए धारणा एक महत्वपूर्ण आयाम है।
आचार्य श्रीराम शर्मा के अनुसार: “धारणा का तात्पर्य उस प्रकार के विश्वासों को धारण करने से है जिनके द्वारा मनोवांछित स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है। भौतिक संपदाएं कुपात्रों को भी मिल जाती हैं, पर आत्मिक संपदाओं में एक भी ऐसा नहीं है जो अनाधिकारी को मिल सके।”
श्रीराम शर्मा आचार्य
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