ध्येय क्या है? शब्दकोश के अनुसार यह ध्यान का विषय है। चूंकि ध्येय का संबंध ध्यान से है, तो यह भी समझना होगा कि ध्यान क्या है? ध्यान मन का विषय है, यह मन को एकाग्र करने का प्रयास करने की क्रिया है। मन में अनेक तरह के विचारों का आना जाना लगा रहता है। किसी एक विचार को पकड़ने की कोशिश करना और उस पर मन को टिकाए रखने की क्रिया को ध्यान समझा जाता है।
महत्वपूर्ण यह है कि हम करना क्या चाहते हैं, हम पाना क्या चाहते हैं! क्योंकि हमें जो चाहिए, हम उसी के विषय में सोचेंगे और उसे पाने के लिए ही मन को एकाग्र करने का प्रयास करेंगे। हम जो प्राप्त करना चाहेंगे, उसी के लिए कार्य करेंगे। जिस चीज को हम पाना चाहते हैं, उसी ओर हमारा ध्यान केंद्रित हो जाता है, और वही हमारा ध्येय हो जाता है। इस प्रकार ध्यान का जो उद्देश्य है, वही ध्येय है।
ध्येय का अर्थ क्या है?
गहन अर्थों में ध्येय वह है जो ध्यान के योग्य है। अब प्रश्न यह उठता है कि ध्यान के योग्य कौन सा विषय है? इसे जानना स्वयं में ध्येय है, अर्थात् ध्यान के योग्य है।
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लंदन में दिए गए एक व्याख्यान मे विवेकानंद ने कहा था कि ‘उत्तिष्ठत, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत। – उठो, जागो, जब तक ध्येय तक न पहुॅंचो तब तक न रुको।’
उक्त कथन में विवेकानंद ने ध्येय तक पहुंचने की बात कही है। यह भौतिक है अथवा अभौतिक, किस चीज से संबंधित है? विवेकानंद के अनुसार ध्येय का अर्थ क्या है?
उत्तिष्ठत, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्ग पथस्तत्कवयो वदन्ति।।
_ (कठोपनिषद – अध्याय १, वल्ली ३, श्लोक १४)
वस्तुत: यह कथन कठोपनिषद में उद्धृत है। कठोपनिषद का दुसरा नाम नचिकेतोपाख्यान है। नचिकेता सत्य का संधानकर्ता है, जो सत्य की खोज में मृत्यु के देवता यमराज के पास चला जाता है। इस उपाख्यान में नचिकेता और यमराज के बीच वार्तालाप का वर्णन है। श्लोक का भावार्थ यह जानना है कि ध्येय क्या है? इस उक्ति में उस ज्ञान को प्राप्त करने का आवाहन किया गया है, जो सत्य है। और इसके लिए तत्पर होकर, जागरुक होकर, जब तक इस सत्य से साक्षात्कार न हो, तब तक प्रयासरत रहने की बात कही गई है। क्योंकि इस ज्ञान के विना इस संसार में कुछ भी सार्थक नहीं है। ज्ञान की प्राप्ति ही जीवन का ध्येय है। परन्तु यह कार्य अत्यंत कठिन है, तलवार के तीक्ष्ण धार पर चलने के बराबर है। इसे ज्ञानियों के शरण में जाकर ही प्राप्त किया जा सकता है।
अपने व्याख्यान में विवेकानंद ने इसी उक्ति के प्रथम भाग का उल्लेख किया है। स्वामीजी ने जिस ध्येय की बात की है, वह इसी सत्य की खोज के लिए है। इसे ठीक प्रकार से समझने के लिए उन्हीं के कथनों का उल्लेख किया जा रहा है। ये जो वचन हैं, उनके व्याख्यान के अंश हैं, जो ज्ञानयोग नामक ग्रंथ के अध्याय में अंकित हैं।
- पंचेन्द्रिय – ग्राहय् जगत में मनुष्य इतना अधिक आसक्त है कि वह उसे सहज में छोड़ना नहीं चाहता। किन्तु वह बाह्य जगत को चाहे जितना ही सत्य या साररूप क्यों न समझे, प्रत्येक व्यक्ति और जाति के जीवन में एक समय ऐसा अवश्य आता है कि जब उसे इच्छा न रहते हुवे भी प्रश्न करना पड़ता है – क्या यह जगत सत्य है?
- मनुष्य को सुखी होने की इच्छा होती है। अपने को सुखी करने के लिए वह सभी ओर दौड़ता फिरता है – इंन्द्रियों के पीछे भागता रहता है – पागल की भांति बाह्य जगत में कार्य करता जाता है। जो युवक जीवन संग्राम में सफल हुवे हैं, उनसे पूछो तो कहेंगे कि ‘यह जगत सत्य है’ – उन्हें सभी बातें सत्य प्रतीत होती हैं। ये ही व्यक्ति जब बुढ़े हो जाएंगे, जब सौभाग्य लक्ष्मी उन्हें बार बार धोखा देगी, तब उनसे यदि पूछो, तो शायद कहेंगे, ‘अरे भाई , सब भाग्य का खेल है।’ इतने दिनों बाद वे जान सके कि वासना की पूर्ति नहीं होती।
- प्रत्येक वस्तु क्षणस्थायी है, विलास, वैभव, शक्ति, दारिद्रय, यहां तक कि जीवन भी क्षणस्थायी है।
- सत्य की खोज करो – इस नित्य परिवर्तनशील नश्वर जगत में क्या सत्य है, इसकी खोज करो। कुछ भौतिक परमाणुओं के समष्टिरूप इस देह के भीतर क्या कोई ऐसी चीज है, जो सत्य हो?
- सब लोग सुख की खोज करते हैं, पर अधिकतर लोग नश्वर, मिथ्या वस्तुओं में उसको ढ़ुंढ़ते फिरते हैं। इन्द्रियों में कभी किसी को सुख नहीं मिलता है।
वास्तव में मन को जो चाहिए, वह उसे इंन्द्रियों से प्राप्त नहीं हो सकता। लेकिन वह इसे इंन्द्रियों के द्वारा ही प्राप्त करना चाहता है। वास्तव में मन के इसी भाव को नियंत्रित करने की प्रक्रिया ध्यान है। और जिस सुख की तलाश है, जिसे पा लेने पर तलाश खत्म हो जाता है, उस सुख को पाना ही ध्येय है। यह जो ध्येय है, यही ध्यान के योग्य है, बाकि सब निरर्थक है। विवेकानंद ने इसी ध्येय की बात कही है। स्वामी विवेकानंद ने जो बातें कही हैं, वेदांत पर आधारित हैं। ज्ञानियों की बातें सहजता से समझ में नहीं आती, क्योंकि हम समझने की कोशिश ही नहीं करते। सही मायने में विवेकानंद भी लोगों की समझ से परे हैं। उनके कथनों को समझने के लिए गहन अध्ययन एवम् चिंतन की आवश्यकता है।
हम स्वयं जैसे होते हैं, जगत को भी वैसा ही देखते हैं। हमारे भीतर जो है, वही हम बाहर भी देखते हैं। सब प्रकार के ज्ञान के संबंध में ऐसा ही है। जो कुसंस्कार और भ्रम तुम्हारे मन को ढंके हुए हैं, उन्हें भगा दो। साहसी बनो। सत्य को जानो और उसे जीवन में परिणत करो। चरम लक्ष्य भले ही बहुत दुर हो, पर ‘उत्तिष्ठत, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत।’ – उठो, जागो, जब तक ध्येय तक न पहुंचो तब तक मत रुको।
स्वामी विवेकानंद — Swami Vivekanand