भट्ट ब्राह्मण कैसे? यह जो प्रश्न है, जातिवाचक है, भट्ट शब्द पर है। यह पूछता है कि भट्ट क्या है? ब्राह्मण है या कुछ और? और यह भी पूछता है कि अगर भट्ट ब्राह्मण नहीं है, तो क्या है? इसका जबाव शायद उनके पास भी नहीं है, जो भट्ट को ब्राह्मण नहीं मानते।
आखिर यह भट्ट क्या है? भट्ट का वर्ण क्या है, पहचान क्या है? ब्राह्मण है, क्षत्रिय है, वैश्य है अथवा शुद्र! क्योंकि जिस संस्कृति में वर्ण व्यवस्था की बात कही गई है, वहां पांचवां तो कोई वर्ण होता नहीं है। केवल चार वर्णों का उल्लेख मिलता है। हां प्रत्येक वर्ण को अनेक जातियों, उपजातियों में विभक्त जरुर किया गया है। परन्तु सभी किसी न किसी वर्ण के अन्तर्गत आते हैं।
लेकिन उक्त प्रश्न में केवल एक वर्ण का उल्लेख है, वह है ब्राम्हण। तो इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए पहले यह जानना होगा कि ब्राह्मण क्या है? किसी व्यक्ति अथवा जाति के लिए ब्राह्मण होने की योग्यता क्या है?
ऋग्वेद के पुरुष सुक्त में एक ऐसे पुरुष की परिकल्पना की गई है, जो समस्त जगत में व्याप्त है। इसी काल्पनिक शक्ति को ब्रम्ह कहा गया है। ब्रम्ह को जगत के सृष्टि का आधार कहा गया है। यह भी उल्लेखित है कि मानव की उत्पत्ति इसी व्यापक शक्ति से हुई है और ब्रम्ह को जाननेवाला मानव ब्राम्हण हैं।
ब्रम्ह को अर्थात् ईश्वर को जाननेवाला ब्राम्हण है! यह शास्त्रोक है। लेकिन ब्रम्ह को किसने जाना? आध्यात्मिक दृष्टिकोण से विचार करें तो यह अध्ययन का विषय नहीं है। यह अनुभूति का विषय है, और इसकी अनुभूति पुस्तकों को पढ़ने से नहीं होती। ब्रम्ह को जानने के लिए तपस्या करनी पड़ती है। इस महाशक्ति को योग से जाना जा सकता है, ध्यान से जाना जा सकता है।
इस जगत में अनेकों ऐसे विभुतियों का अवतरण हुआ है, जिन्होंने अपने प्रयासों के द्वारा ब्रम्ह को जाना है। और यह जो विषय है, समाज में प्रचलित जाति, धर्म जैसे बंधनों से परे है। वस्तुत: यह जो शब्द है, एक विशेषण है। जिन्होंने भी ब्रम्ह को जाना और अपने अनुभवों से प्राप्त ब्रम्हज्ञान को जगत में प्रकाशित किया, उन सभी को इस पावन शब्द से अलंकृत किया जा सकता है।
लेकिन जब बात जातिवाचक शब्द ब्राम्हण की आती है, तो यह प्रश्न खड़ा हो जाता है कि कोई जाति, समूह अथवा समुदाय ब्राह्मण कैसे? क्योंकि आध्यात्मिक दृष्टिकोण से ईश्वर की अनुभूति व्यक्तिगत मामला है। और ब्रम्हज्ञानियों का अवतरण किसी एक काल में सामूहिक रूप से हुवा हो, इतिहास में ऐसी कोई घटना का उल्लेख नहीं है। इस दृष्टि से देखा जाए तो कोई जाति, समूह अथवा समुदाय ब्राह्मण कैसे हो सकता है?
पौराणिक भारतीय इतिहास में जिस वर्णव्यवस्था का उल्लेख है। उस सामाजिक व्यवस्था के भीतर ब्राम्हण एक वर्ण और साथ ही एक जाति है। और इस जाति के अंतर्गत अनेक उपजातियां हैं। वैदिक और उत्तर वैदिक काल में इस जाति को शास्त्रों में उल्लेखित धार्मिक कर्मकांड कराने का अधिकार प्राप्त था। ये पौराणिक शास्त्रों का अध्ययन एवम् अध्यापन का कार्य करते थे। साथ ही घरों एवम् मंदिरों में पूजा करने एवम् दान-दक्षिणा लेने का अधिकार इस जाति के पास था। और आज के समय में भी इन कार्यों के लिए समाज में इनकी मान्यता प्रचलित है।
अब भट्ट शब्द के शाब्दिक अर्थ पर विचार करते हैं। यह संस्कृत भाषा का एक शब्द है। भट्ट एक ऐसा शब्द है, जिसका प्रयोग पूर्वकाल में उपाधि के रूप में किया जाता था। यह विद्वता से परिपूर्ण उपाधि है। विभिन्न विधाओं में पारंगत विद्वजन भट्ट कहलाते थे। पूर्व के समय में कुमारिल भट्ट, वाणभट्ट, आर्यभट्ट आदि अनेक विदुषक इस धरा पर अवतरित हुए हैं।
ब्राह्मण शब्द की भांति भट्ट शब्द के जातिवाचक स्वरूप की बात करें तो यह एक वर्ग विशेष को दिया गया उपनाम है। कुछ खास पेशे से जुड़े समुदाय को भट्ट कहा जाता था। इस वर्ग के लोगों का कार्य वैदिक साहित्य की जानकारी का प्रचार प्रसार करना, काव्य एवम् साहित्य का लेखन, वंशावली का लेखा जोखा रखना एवम् स्तुतिगान किया करना था।
वास्तव में यह जो उपनाम है, एक कुलनाम से जुड़ा हुआ है। और यह कुलनाम ब्रम्हभट्ट है। ब्रम्हभट्ट एक संस्कृत शब्द है, जो दो शब्दों के मेल से बना है। ब्रम्ह का शाब्दिक आशय विकास की प्रक्रिया से है, वृद्धि से है। वैदिक दृष्टिकोण में समस्त जगत के सृष्टि का आधार ब्रम्ह है। और भट्ट का आशय विद्वता से है। इस प्रकार ब्रम्ह के विषय में जो विद्वता रखता हो, ब्रम्हभट्ट है।
अगर शास्त्रों में यह कहा गया है कि ब्रम्ह को जाननेवाला ब्राह्मण है, तो यह भी कहा गया है कि ब्रम्ह को जानकर जो ब्रम्ह के विषय में जगत को संदेश देता है, वह ब्रम्हभट्ट है। अब ब्रम्हभट्ट को किस वर्ण का समझा जाए, यह तो समझ का विषय है।
अगर शास्त्रों में ब्राह्मण वर्ग की उत्पत्ति और विकास का वर्णन है। तो ब्रम्हभट्ट जाति की उत्पत्ति और विकास का उल्लेख भी शास्त्रों में किया गया है। एक विलक्षण पुरुष ब्राम्हराव के वंशज ब्रम्हभट्ट कहलाए, इस बात का उल्लेख पौराणिक शास्त्रों में किया गया है। इस विषय में विस्तृत जानकारी श्रीभट्टोपाख्यानम् में उद्धृत है। श्रीभट्टोपाख्यानम् स्कंद पुराण के ब्रम्हखण्ड का एक अध्याय है। जिसमें भट्टों के उत्पत्ति के विषय में महाराज युधिष्ठिर एवम् देवर्षि नारद के बीच हुवी वार्तालाप का जिक्र है। यहां श्रीभट्टोपाख्यानम् के कुछ श्लोकों का उल्लेख किया जा रहा है, जो निम्नांकित हैं –
सत्यनिष्ठां समाकण्यं भट्टानामग्रजन्मनाम्।
कोतुक मे महाराजन व्रुहि मे तत्सुनिश्चितम्।।१।।
कविवंश में उत्पन्न श्रेष्ठतम, सत्यनिष्ठ भट्ट ब्राम्हणों के संयम, सत्यनिष्ठा को सुनकर उनकी उत्पत्ति के संबंध में युधिष्ठिर ने देवर्षि से पूछा।
को वर्मा कुत्रचोत्पन्न: किमाचारा कियद्विधा।
देवर्षे व्रुहि तत्वेन विस्तराव्वोप निर्णयम्।।२।।
हे देवर्षि कृपाकर कहिए कि ये सृष्टि के कल्याण के लिए, किस से, कहां से, कहां उत्पन्न हुवे, एवम् वर्ण व्यवस्था के अनुसार किस प्रकार से वेदों के वक्ता ब्राम्हणों में अग्रणी हुवे। इसे विस्तार पूर्वक आप मुझसे कहें।
श्रुतयां नृप शार्दुलं आख्यानि ज्ञानि निर्णयम्।भट्टनां वेद मुर्तनां पुरा ब्रम्ह मुखाच्धुत्तम।। ३ ।।
इस पर देवर्षि ने कहा कि हे राजसिंह! वेद की साक्षात् मुर्ति भट्ट ब्राह्मण के संबंध में आदिकाल के ब्रम्हा के मुख से मैने सुना है।
इदमेव पुरावृतं पृष्ठश्य पृथुनां भृगु:।
तमहं कथायिष्यामि श्रृणुश्व गदतो मम।। ४ ।।
यही बात पूर्व के समय में महाराज पृथु ने श्री भृगु ऋषि से पूछी थी, आज मैं आपसे कहता हूं।
इस वार्तालाप में जिस यज्ञ का वर्णन है, ब्रम्हाजी के द्वारा किया जाता है। यज्ञ कुंड से मानव रूप में एक विलक्षण प्रतिभा उभर कर आता है। जिसे ब्रम्हाजी का वरदान प्राप्त होता है, और वह मानव ब्राम्हराव के नाम से जाना जाता है। यह भी उल्लेखित है कि देवी सरस्वती ने उसे अपना स्पनपान करवाया, जिसके कारण उसे देवीपुत्र भी कहा गया है।
पाययामास प्रीत्या च स्तुतं स्तन्यं पयोऽमृतम्।देवीपुत्र इतिख्यात: तते: जातो जगत्त्रये।। ३०।।
ब्रम्हदेव को वरदान देते देख देवी सरस्वती प्रसन्न होकर स्नेह पूर्वक अपने स्तन के अमृतरुपी दुग्ध को उक्त ब्राम्हराव को पान कराया। फलस्वरूप उसी क्षण से ब्राम्हराव तीनों लोकों में सरस्वती पुत्र के नाम से जाने गए।
वेदरुपी ब्राम्हरावो भट्टोऽथ स्तुति पाठक:।
देवी पुत्रस्य पंचास्य नामानि मुनयः जगु।। ३१ ।।
तत्पश्चात मुनियों द्वारा उसके वेदरुपी, ब्राम्हराव,भट्ट, देवीपुत्र एवम् स्तुति पाठक पांच नाम दिए गए।
ऋषेस्यु वेदशिरसस्तुषितानाम् पल्यभूत।
समुनि ब्राम्हरावाय ददौ विद्यामिषां सुताम।३२।
तस्यां जातास्त्रय: पुत्र: सुतमागधवन्दिन:।
तेषां वृति पृथक चक्रे भगवान कमलासन।३३।
ब्राम्हराव को विद्या नाम की कन्या को दान स्वरूप समर्पित किया गया। विद्या एवम् ब्राम्हराव के संयोग से सुत, मागध एवम् वन्दी नामक तीन पुत्र उत्पन्न हुए। उन तीनों की वृत्ति ब्रम्हाजी ने भिन्न भिन्न निश्चित कर दिया।
सर्वे रावाश्चभट्टाश्च देवीपुत्रश्च विश्रुता:।
प्रीत्यां तेभ्यो ददौ ब्रम्हा स्वयं सारस्वत मनुन।। ४० ।।
तदोपरांत इन तीनों ऋषियों के वंशज राव, भट्ट तथा देवीपुत्र के उपनाम से जगत में जाने गए। ब्रम्हाजी ने प्रसन्न होकर इन्हें संसार में विद्या के प्रसार का कार्य सौंपा।
भट्टानां ब्रम्हवर्णहि तत्र भेदस्त्रिया नृपं।
पूजिता दान मानभ्यां सर्वे ग्राह्या त्रयाशिया।।६५।।
देवर्षि नारद ने महाराज युधिष्ठिर को संबोधित करते कहा है कि हे राजन! ब्राह्मण वर्ण में भट्टों के तीन प्रकार के भेद हैं। ये तीनों सब वर्णों से पूज्य हैं, और उनका आशीर्वाद सबको ग्रहण करना चाहिए।
सूता: पौराणिका: प्रोक्ता: मागधा:: वंश शंसमा:।वन्दिन: काव्य कर्तार: त्रयामाशिष शुभा:।।६६।।
देवर्षि कहते हैं – इन तीनों भेदों में से सूत पुराणों के आचार्य, मागध वंशावली का लेखा जोखा रखनेवाले और वंदी काव्य के सृजनकर्ता हुवे। इन तीनों का आशिर्वाद कल्याण करनेवाला है।
अब सवाल है कि पौराणिक शास्त्रों में भट्ट को ब्राह्मण वर्ण का बताया गया है। फिर इनकी श्रेष्ठता पर सवाल क्यों किया जाता है? इसके दो ही कारण हो सकते हैं। या तो इस स्थिति के जिम्मेदार ये स्वयं हैं, या फिर इनके विरुद्ध कोई षड्यंत्र रचा गया है। कुछ तो बात है, बीते समय में कुछ तो हुवा है, कुछ तो किया गया मालूम पड़ता है। तभी तो आज यह सवाल पैदा हो गया है कि भट्ट ब्राह्मण कैसे?
श्रीभट्टोपाख्यानम् में भट्टों के तीन प्रकार बताए गए हैं। यज्ञ से उत्पन्न ब्राम्हभट्ट के तीनों पुत्रों सूत, मागध एवम् वन्दी के लिए अलग अलग कार्य का निर्धारण किया जाता है। सूत को पौराणिक शास्त्रों का वक्ता, मागध को वंशावली का संरक्षण और वंदी को काव्य रचना का कार्य सौंपा जाता है।
ये जो तीनों कार्य हैं, समाज के हित के लिए किए जाने वाले कार्य हैं। एक उपदेशक बनकर समाज में ज्ञान का प्रसार करना कदापि निंदनीय नहीं हो सकता। समाज के सभी वर्गों के वंशावली का लेखा जोखा करना और आंकड़ों को संरक्षित रखना भी कोई निंदनीय कार्य नहीं था। और ना ही काव्यों के सृजन करने का कार्य निंदनीय है। वस्तुत: देवीपुत्रों को काव्य रचना का जो दायित्व सौंपा गया था, वह दैवीय शक्तियों की आराधना एवम् मानवता के कल्याण के निमित था।
संभवत: कालांतर में भट्ट ब्राह्मणों के कुछ लोग अपने कर्तव्यों के प्रति विमुख हो गए हों। फलस्वरूप यह समुदाय कार्य की प्रकृति के अनुसार उच्च-नीज में बंट गया हो। निम्नतर कार्यशैली में लिप्त लोगों की सामाजिक स्थिति में गिरावट हुवा हो। लेकिन पूर्व में किसी भी जाति अथवा वर्ग के द्वारा समाज के प्रति दायित्वों का अक्षरशः पालन किया हो, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। इसलिए केवल यही इनके सामाजिक प्रतिष्ठा में गिरावट का एक मात्र कारण नहीं हो सकता।
दुसरा जो कारण उपस्थित होता है, वह है भट्ट ब्राह्मण एवम् अन्य ब्राम्हणों के बीच आपसी संघर्ष का । इतिहास के पन्नों को पलटने से एक ही जाति, एक ही वर्ण के लोगों के बीच आपसी संघर्ष हुवा है, ऐसा दृष्टिगोचर होता है। वास्तव में आज के समय में भट्टों की जो स्थिति है, इसका कारण अन्य ब्राह्मण समुदायों के साथ इनका आपसी संघर्ष प्रतीत होता है।
भट्ट ब्राह्मण एवम् अन्य सभी ब्राम्हण को वैदिक साहित्य के अध्ययन अध्यापन का अधिकार प्राप्त था। समाज हित में सभी सेवा क्षेत्र से जुड़े हुए थे। केवल एक कार्य ऐसा था, जिसका अधिकार भट्ट ब्राह्मणों को नहीं दिया गया था। केवल पुरोहिती का कार्य ही भट्ट ब्राह्मण के हाथ में नहीं था। अन्य ब्राम्हणों के द्वारा पूरोहिती का कार्य भी किया जाता था, जिसमें पूजा-पाठ, यज्ञ-हवन से लेकर जन्म- विवाह आदि के अवसर पर किए जाने वाले कर्मकांड भी संलग्न थे।
विद्वत्ता एवम् प्रतिष्ठा में वे अन्य ब्राम्हणों से पीछे नहीं थे। ऐसा कहा जाता है कि कालान्तर में भट्ट ब्राह्मणों द्वारा अन्य ब्राम्हणों से पुरोहिती का अधिकार भी मांगा गया था। इस पर एक सामाजिक बंटवारे के तहत इन्हें केवल केवल शिव एवम् शैव परिवार के मंदिरों में पुजारी बनने का अधिकार हुवा। इस प्रकार अंशत: या पूर्णत: जो भी समझा जाए, पुरोहिती का अधिकार भी इन्हें प्राप्त हो सका।
अगर मंदिरों में पुजारी बनना ही ब्राह्मण होने का पहचान है तो यह अधिकार भी इन्हें मिला था। इसकी झलक विश्व प्रसिद्ध नेपाल के पशुपति नाथ मंदिर में देखने को मिलता है। उज्जैन के महाकाल मंदिर एवम् इंदौर के खजराने गणेश मंदिर में भी भट्ट पुजारियों को पुजारी बनने का अधिकार प्राप्त है। भारत देश के विभिन्न प्रदेशों में छोट बड़े शैव मंदिरों में भट्ट पुजारी नियुक्त होते हैं
पशुपति नाथ मंदिर में शिवलिंग को स्पर्श करने का अधिकार केवल भट्ट ब्राह्मण को दिया गया है। मंदिर में पांच भट्ट पुजारी होते हैं, जिनमें से एक मुख्य पुजारी और चार सहायक पुजारी होते हैं। मंदिर में नियुक्त अन्य पुजारियों का कार्य भट्ट पुजारियों का सहयोग देना है। यह प्रथा सदियों से चली आ रही है, जो आजतक प्रचलन में है।
स्वंय को ब्राह्मण कहने वाले लोग पौराणिक कथाओं का ही उल्लेख करते हैं। और इसी आधार पर पुराणों में वर्णित कर्मकांडो पर अपना अधिकार भी जताते हैं। पूजा-पाठ करते हैं, दान-दक्षिणा लेते हैं। उन्हीं शास्त्रों के आधार पर ब्रम्हभट्ट को भी सभी वर्णों से दान और मान लेने का अधिकार प्राप्त है। और जहां तक पुरोहिती कर्म की बात है, तो इसके लिए वे प्रस्तुत भी नहीं होते।
भट्टानां ब्रम्हवर्णहि तत्र भेदस्त्रिया नृपं।
स्कंद पुराण – ब्रम्हखण्ड – श्रीभट्टोपाख्यानम् – श्लोक ।६५।
पूजिता दान मानभ्यां सर्वे ग्राह्या त्रयाशिया।।६५।।
भट्टानां ब्रम्हवर्णहि! भट्ट ब्राह्मण हैं और ‘पूजिता दान मानभ्यां सर्वे ग्राह्या’ , अर्थात् सब वर्णों से दान और मान लेने योग्य हैं। यह उक्ति शास्त्रोक्त है। वास्तव में भट्ट एक कुलनाम है, जो ब्राम्हणों की ही एक उपजाति है। इनकी उत्पत्ति का उल्लेख पौराणिक शास्त्रों में किया गया है, जो इनके श्रेष्ठ होने को प्रमाणित करते हैं। लेकिन इनकी श्रेष्ठता को धुमिल करने के लिए पौराणिक शास्त्रों में वर्णित तथ्यों की अनदेखी की गई है।
परन्तु इनके ब्राह्मणत्व पर प्रत्यक्ष सवाल खड़े नहीं किए जाते, यह भी गौर करने का विषय है। ब्राह्मण वर्ग के लोग जो पौराणिक शास्त्रों का ज्ञान रखते हैं, उन्हें ‘भट्ट ब्राह्मण हैं’ इस बात की समझ है।
अंत में इस लेख का उद्देश्य किसी जाति, उपजाति अथवा समुदाय को उच्च अथवा निम्न बताना नहीं है। यह आलेख स्कंद पुराण में उल्लेखित श्लोकों के आधार पर लिखा गया है। उक्त शास्त्र में उद्धृत कुछ श्लोकों को यहां अंकित भी किया गया है। पौराणिक शास्त्रों में वर्णित तथ्यों को सच अथवा काल्पनिक मानना व्यक्तिगत समझ का विषय है। वैसे भी आज के समय में सभी जाति और वर्ण के लोग जीवन यापन करने के लिए सभी तरह के कार्यों में लिप्त हैं। और सभी जाति, वर्गों के साथ समभाव एवम् सहयोगात्मक रूख बनाए रखना ही यथेष्ठ भी है। यही समस्त शास्त्रों का सार है, और यही समय की मांग भी है।