एकांत और अकेलापन एक दुसरे जुड़े हुवे शब्द हैं। एकांत एक स्थिति है, और अकेलापन एक भाव है। एकांत ‘एक’ और ‘अंत’ दो शब्दों का मेल है। अंत का आशय है नष्ट होना, विलुप्त होना, समाप्त हो जाना। तो फिर इस युग्म शब्द का अर्थ क्या है?
क्या एकांत का आशय एक का अंत होना है? अगर हां तो वह ‘एक’ कौन है, जिसके विलुप्त होने की स्थिति एकांत है। या फिर यह एक के अलावे बाकी सबकुछ का विलुप्त होना है? अगर ऐसा है तो वह एक कौन है, जिसके उद्भव होते ही बाकी सबकुछ विलुप्त हो जाता है। गहनता से विचार करें तो दोनों ही स्थिति समान प्रतीत होता है। कैसे? यह बात समझने की है, यह चिंतन का विषय है।
एकांत एक स्थिति है, जो शांत वातावरण का द्योतक है। ऐसी स्थिति जहां खालीपन हो, वैसी जगह जहां का वातावरण कोलाहल रहित हो, एकांत की संज्ञा दी जाती है। लौकिक मान्यता तो यही है कि यह एक के अलावे बाकि सबकुछ का विलुप्त होना है। एकांत का अर्थ है, एक के अलावे किसी और का अभाव। जब कोई इस स्थिति में होता है, तो उसके आसपास कोई और मौजूद नहीं होता है।
एकांत स्वयं में एक स्थिति है, जो किसी स्थान विशेष के परिवेश को इंगित करता है। और इस परिवेश में अवस्थित होना भी एक स्थिति है। अर्थात् अकेला होना भी एक स्थिति है। अकेला होने का स्वरूप शारीरिक भी है, और मानसिक भी है। जब कोई एकांत में होता है, तो वह एकांक अर्थात् अकेला होता है अथवा महसूस करता है।
लेकिन शारीरिक रूप से एवम् मानसिक रूप से अकेला होने में फर्क है। जब कोई मन से अकेला महसूस करता है, तो वह अकेलापन है। अकेलापन एक मानसिक स्थिति है, मनोभाव है। जब ऐसा लगने लगे कि हमारे आसपास कोई और नहीं है, तो यह अकेलापन है। शारीरिक रूप से भीड़ के बीच में रहकर भी कोई अकेलापन महसूस कर सकता है। और अकेला रहकर भी किसी के साथ होने का अनुभव कर सकता है।
यह जो अकेलापन है, अनेक भाव-विचारों में प्रगट होता है। चूंकि यह एक मनोभाव है, तो इससे विचार भी प्रगट होते हैं। भाव अगर नकारात्मक हो तो विचार भी नकारात्मक होते हैं। और भाव सकारात्मक हो तो विचार भी सकारात्मक उत्पन्न होते हैं। अतः अकेलापन में उत्थान और पतन दोनों की संभावना होती है। अकेलापन किसी को आबाद भी करता है, तो किसी को बर्बाद भी करता है।
सबकुछ व्यक्ति के मनोभाव पर निर्भर करता है। जहां एकांत होता है, वह अकेलापन महसूस कर सकता है, और नहीं भी कर सकता है। केवल शारीरिक रूप से अकेला होने से ही अकेलापन महसूस हो, यह जरूरी नहीं है। क्योंकि अकेलापन तो एक मनोभाव है। किसी भी व्यक्ति की मानसिकता उसके मन की प्रकृति पर निर्भर करता है।
लौकिक मान्यता के अनुसार एकांत ‘एक’ के अलावे सबकुछ का ‘अंत’ है। इससे जो अकेलापन महसूस होता है, सकारात्मक और नकारात्मक दोनों हो सकता है। व्यक्ति अगर समझदार हो तो एकांकीपन का लाभ उठा सकता है। और अस्थिर प्रकृति के व्यक्ति को इससे हानि भी हो सकती है। इसलिए कमजोर मानसिकता वाले लोगों को हमेशा खुद को व्यस्त रखने का प्रयास करना चाहिए।
लेकिन इस स्वरुप में भी एकांत और अकेलापन महत्वपूर्ण है। महत्वपूर्ण इसलिए कि ऐसी स्थिति व्यक्ति को सोचने समझने का अवसर भी देता है। एकांत ही व्यक्ति को यह विचार करने का अवसर देता है कि उसे कैसा होना चाहिए? किसी भी व्यक्ति के चरित्र की उत्कृष्टता अथवा निकृष्टता इस बात पर निर्भर करता है कि जब वह अकेला होता है तो क्या सोचता है? क्या करता है?
गहनता से विचार करें तो एकांत ‘एक’ का ‘अंत’ होना है। यहां ‘एक’ से आशय ‘मैं’ की भावना से है, अहंकार से है। जब व्यक्ति अहंकार से मुक्त हो जाता है तो स्वयं को एकांत में होने का अनुभव करता है। यह खुद को मिटाकर खुदा से मिलन की स्थिति है।
यह अकेलापन का उत्कृष्ट स्वरुप है, जो आत्मकेंद्रित होने से उदित होता है। जब तक यह मनोकेन्द्रित होता है, तब तक उत्थान का कम और पतन की संभावना अधिक बनी रहती हैं। लेकिन जब यह आत्मकेंद्रित होने लगता है, तो इसका परिष्कृत स्वरुप प्रगट होने लगता है। और जब यह पूर्ण रूप से आत्मकेंद्रित हो जाता है, तो वास्तव मे कोई अकेला नहीं होता। यह जो अकेलापन है, इस अवस्था को प्राप्त करने के बाद विलुप्त हो जाता है।
अकेलापन का यह जो परिष्कृत स्वरुप है, एकांत से ही आता है। मन के स्थिति को मोड़कर आत्मा की ओर प्रवृत करने के लिए एकांत का होना जरूरी है। जप-तप, ध्यान आदि उत्कृष्ट प्रक्रियाओं का अभ्यास एकांत में करना उचित होता है। मानसिक अकेलापन से आत्मकेंद्रित होकर परिष्कृत अकेलापन तक की यात्रा एकांत से एकांत तक की यात्रा है।
एकांत का एक स्वरूप जो मन का विषय है, और एक जो मन से परे है। वास्तव में यह जो जीवन यात्रा है, इसके उत्कृष्ट अवस्था को प्राप्त करने की यात्रा है। और अध्यात्म उत्कृष्ट स्थिति की ओर अग्रसर होने का मार्ग है। जो इस अवस्था को प्राप्त कर लेता है, वह अकेला नहीं होता। उसके जीवन में कभी अकेलापन नहीं होता। उसके जीवन का जो ‘एक’ है, वह अहंकार है। इस अहंकार के मिटते ही, वह जो सबकुछ है, उस विलुप्त को प्राप्त कर लेता है। अकेलापन के इस उत्कृष्टता को अध्यात्म के मार्ग पर चलकर ही पाया जा सकता है।
एक का अंत कहो अथवा एक के अलावे सबकुछ का अंत कहो, एकांत का अर्थ समान है। एक ‘एक” है, जो मन का भाव है, और एक ‘एक’ है, जो आत्मा का भाव है। आत्मा परमात्मा का अंश है। एक अहंकार से जोड़ता है और एक ईश्वर से भी जोड़ता है। अहंकार का विलुप्त होने अथवा परमात्मा के अलावे सबकुछ के विलुप्त होने का भाव एक समान है। एकांत के इस उत्कृष्ट अवस्था को सांसारिक विषयों में आसक्त मन नहीं समझ पाता है। एकांत और अकेलापन का जो वास्तविक स्वरूप है, वह आध्यात्मिक है।