देह धरे का दंड है, सब काहु को होय।
ज्ञानी भुगते ज्ञान से, अज्ञानी भुगते रोय।।
कबीर के उक्त दोहे का शाब्दिक अर्थ है कि देह धारण करने का दंड हर किसी को भोगना पड़ता है। परन्तु ज्ञानी इसे ज्ञान से भोगते हैं और अज्ञानी रोते-चिल्लाते हुवे भोगते हैं।
देह धरे का आशय जन्म लेने से है। जब किसी का जन्म होता है तो उसे कर्म भी करना पड़ता है। कर्म पथ पर अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। शारीरिक एवम् मानसिक रुग्णता से गुजरना पड़ता है। जो बुद्धिमान होते हैं, कठिनाइयों को चुनौती के रूप में लेते हैं। और जो नासमझ होते हैं, वे कठिनाइयों से विचलित हो जाते हैं।
इस देह को पोषित करने के लिए कर्म करना पड़ता है। अपने जीवन काल में प्रत्येक को कठिन परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है। सभी को जीवन में दुखों का सामना करना पड़ता है। यही देह धारण करने का दंड है। लेकिन इस दंड का प्रभाव सबों के जीवन में एक समान नहीं होता। जो ज्ञानी होते हैं, इस दंड को सहज ढंग से लेते हैं। और जिनमें ज्ञान का अभाव होता है, उनके लिए इस दंड को भोगना असहज हो जाता है।
कबीर के कहने का तात्पर्य है कि जीवन है तो दुख भी है। जन्म लेने के साथ ही जीवन की शुरुआत होती है। जब किसी का जन्म होता है, तो साथ में उसका देह भी अस्तित्व में आता है। जो कि समय के साथ पोषित होकर विकसित होता है, और फिर एक दिन यह नष्ट हो जाता है। देह का नष्ट हो जाना ही मृत्यु समझा जाता है, इसलिए इसे देहावसान भी कहा जाता है।
देहावसान यानि देह का अवसान, शरीर का क्षय हो जाना। देह का अस्तित्व में आना, इसका विकसित होना और फिर नष्ट हो जाना, सामान्यतः यही जीवन है। जन्म और मृत्यु के बीच का जो अंतराल है, यही जीवन है। इस जीवन यात्रा के दरम्यान शारीरिक, मानसिक कष्ट भी झेलना पड़ता है। इस देह को धारण करने का जो दंड है, उसे सहजता से कैसे सहन किया जा सकता है? कबीर की उक्त पंक्तियों में इन्हीं सवालों के समाधान छूपा है।
ज्ञानी वह है, जिसके भीतर ज्ञान हो। ज्ञान का आशय है किसी चीज के संबंध में जानकारी का होना। किसी तथ्य के विषय में समझ का होना। यह जो ज्ञान है, इन्द्रिय जनित भी होता है और इनसे परे भी होता है। सामान्यतः बाहरी वातावरण से प्राप्त अनुभव को ही ज्ञान का आधार माना जाता है। जीवन के संबंध में जानना इन्द्रियों के परे का विषय है। जो स्वयं के भीतर इस समझ को जगा पाते हैं, उनका जीवन सहज हो जाता है। उनके जीवन में भी दुख आते हैं, परन्तु वे दुखी नहीं होते। कबीर का इशारा ज्ञान के वास्तविक स्वरूप की ओर है।
पढै गुनै सीखै सुनै, मिटी न संसै सूल।
कहै कबीर कासों कहूं, ये ही दुख का मूल।।
कबीर के कहने का भावार्थ हैं कि इस बात को कैसे कहा जाए, किस तरह समझाया जाए कि संशय ही दुख का मूल है। क्योंकि पढ़ने, गुनने, सीखने एवम् सुनने से भी मन का संशय मिटता नहीं है। फिर तो कहनै का कोई मतलब ही नहीं है।
संशय यानि संदेह, जो वास्तव में है, उसके विषय में ज्ञान का अभाव। मनुष्य उसे ही सच मानता है, जो वह इन्द्रियों के द्वारा अनुभव करता है। उसकी इन्द्रियां जिस चीज का अनुभव नहीं कर पाती, उसके प्रति उसके मन में संशय बना रहता है। यह संशयात्मक बुद्धि हमेशा अगर मगर में लगा रहता है।
यह जो संशय है, मन का विषय है। मन जो भी अनुभव करता है, इन्द्रियों के द्वारा करता है। अतः वास्तविक ज्ञान के प्रति संशय से भरा रहता है। संशय मिटता नहीं है। यह संशय ही दुख का मूल है। संशय ज्ञान से मिटता है, जैसे अंधकार प्रकाश से मिटता है। और यह जो ज्ञान है सबके भीतर निहित होता है। इसे जगाने के लिए भीतर की यात्रा करनी पड़ती है।
यह जो देह है, इसे किसने धारण कर रखा है? वह कौन है, जिसके इस देह से अलग हो जाने पर यह देह नष्ट हो जाता है। इसी ऊर्जा को जानना वास्तव में ज्ञान है। और इसी को जानने के लिए यह मनुष्य का देह अस्तित्व में आता है। लेकिन एक और ऊर्जा है, जो जीवन ऊर्जा और देह के उपस्थित रहता है। यह कोई और नहीं, हमारा मन है।
देह चोटग्रस्त हो सकता है, रोगग्रस्त हो सकता है। और भी कई तरह की पीड़ाओं से इसे गुजरना पड़ता है। सभी देह धारण करने वाले इन स्थितियों से गुजरते हैं। लेकिन जो इस देह के प्रति आसक्त होता है, उसे अत्यधिक दुख का अनुभव होता है। इस स्थूल, नश्वर देह के प्रति आसक्त हुवा मनुष्य जीवन भर दुख झेलता है, रोता चिल्लाता रहता है।
कबीर ने जो बातें कही है, उनका विश्लेषण करना सहज नहीं है। उनके कहे एक एक शब्द जीवन के लिए महत्वपूर्ण हैं। परन्तु उनकी बातों को समझने के लिए स्वयं प्रयास करने की जरूरत है। अगर कोई उनके एक दोहे को जीवन में आत्मसात कर सका, तो समझो उसने ज्ञान प्राप्त कर लिया।