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ईर्ष्या या बैर !!

ईर्ष्या या बैर मन के भाव हैं। ईर्ष्या में जलन का भाव है, और बैर में शत्रुता का भाव है। दोनों ही नकारात्मक भाव हैं, परन्तु भिन्न भिन्न स्वरुप में परिलक्षित होते हैं। वस्तुत: ईर्ष्या का ही परिवर्तित रुप बैर है। जब किसी किसी की उन्नति देख मन आहत हो, तो यह भाव ईर्ष्या है। और जिसके प्रति ईर्ष्या हो, आहत मन में उसका अहित करने का भाव प्रस्फुटित हो जाए तो यह बैर है। 

यह जो ईर्ष्या है, इसके अनेक स्वरुप हैं। कुछ क्षणिक तो कुछ दीर्घकालिक प्रभाव डालते हैं। क्षणिक प्रभाव डालनेवाला ईर्ष्या का भाव से उत्पन्न शत्रुता भी क्षणिक होता है। परन्तु जब किसी के प्रति ईर्ष्या दीर्घकालिक हो तो यह शत्रुता का प्रबल रुप धारण कर लेता है। असहिष्णुता, क्रोध, हिंसा जैसे घातक प्रभाव डालने वाले मनोभाव भी इन दोनों के बीच निहित होते हैं। 

अब प्रश्न ये कि किसी से ईर्ष्या क्यों होती है? ईर्ष्या या बैर का मूल कारण क्या है? ईर्ष्या का कारण है मन में कामनाओं का निहित होना। व्यक्ति कि कोई चाहत पूरी नहीं होती, और किसी दुसरे को प्राप्त करते देखता है तो वह ईर्ष्या से ग्रस्त हो जाता है। जब व्यक्ति को वांछित परिणाम नहीं मिलता तो वह दुखी हो जाता है। वह दुसरों के सुखी होने से जलने लगता है। 

गरीबों में अगर ईर्ष्या या बैर है तो स्वार्थ के लिए या पेट के लिए! ऐसी ईर्ष्या या बैर को मैं क्षणिक मानता हूं।

मुंशी प्रेमचंद

जीवन जीने के लिए जो मूलभूत आवश्यकताएं हैं, उनकी पूर्ति करना जरूरी हो जाता है। और इसके लिए कार्य करना है, संघर्षरत रहना पड़ता है। अपनी जरुरी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु दुसरों से संघर्ष की स्थिति भी उत्पन्न हो सकता है। परन्तु इस तरह के संघर्षों से उत्पन्न ईर्ष्या या बैर स्थायी नहीं होते। ये जो क्षणिक भाव हैं, मन में आते जाते रहते हैं।

ईर्ष्या के प्रबल होने का कारण है मन में महत्व की आकांक्षा का होना। हर कोई दुसरों से अधिक महत्वपूर्ण होना चाहता है। मन की जो कामनाएं हैं, अनंत होती हैं। किसी की सभी कामनाओं की पूर्ति कभी नहीं हो सकती। यह जानते हुए भी मनुष्य पाने की दौड़ में शामिल रहता है। हर कोई दुसरों से अधिक पाना चाहता है। चाहे धन हो या मान, दुसरों से अधिक पाकर वह महत्वपूर्ण होना चाहता है। और अगर मिल भी जाए तो उसे बरकरार रखने के लिए संघर्षरत रहता है। 

यह जो महत्व की आकांक्षा है, इससे उत्पन्न परस्पर संघर्ष ईर्ष्या या बैर के प्रबल रुप को धारण कर लेती है। ईर्ष्या या बैर जैसे भाव अगर प्रबल हो तो दुसरों का ही नहीं खुद का भी अहित कर देते हैं। ईर्ष्या एक मनोविकार है, जो कालांतर में शत्रुता में परिवर्तित हो जाता है, और व्यक्ति के जीवन को नष्ट कर देता है।

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