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मन दर्पण कहलाए — Man Darpan Kahlaye

मन दर्पण कहलाए ! अर्थात् मन दर्पण कहलाता है। पर मन और दर्पण दोनों में बुनियादी भिन्नता है, फिर यह समानार्थी कैसे हो सकते हैं! दर्पण एक वस्तु है, जिसे हम देख सकते हैं, स्पर्श कर सकते हैं। परन्तु मन तो अदृश्य है, इसे हम स्पर्श भी नहीं कर सकते। मन का तो केवल अनुभव होता है। फिर ‘मन दर्पण कहलाए’ यह कैसे हो सकता है! मगर किसी ने ऐसा कहा है तो क्यों कहा है? यह विचार करने योग्य है।

मन दर्पण कहलाए !

आइए जानते हैं कि ऐसी कौन सी समानता दर्पण के सतह में और हमारे मन के सतह में। मन पर विचार जरूरी है — Man Par Vichar Jaruri Hai

सामान्यतः हम अपने चेहरे को देखने के लिए दर्पण का उपयोग करते हैं। कांच के समतल प्लेट के एक सतह पर जस्ते का लेप चढ़ाकर इसे तैयार किया जाता है। दर्पण एक वस्तु है, वस्तु से निर्मित है। दर्पण का वैज्ञानिक परिभाषा है कि यह एक प्रकाशिय युक्ति है, जो प्रकाश के परावर्तन के सिद्धांत पर कार्य करता है।

जबकि मन कोई वस्तु नहीं है। मन एक लहर की सदृश है। सागर की लहरों की तरह, आती हैं फिर चली जाती हैं। ये जो लहरें हैं छोटी-छोटी लहरों का समुच्चय होती हैं। इनके उठने और मिटने का अंतराल इतना कम होता है, कि ये हमें टुकड़ो में नहीं दिखाई पड़ती। केवल इनके निरंतर बहाव का आभास होता है। जबकि लहरों का उठना और मिटना एक सतत प्रक्रिया है। 

ठीक उसी प्रकार मन भी एक प्रक्रिया है। विचारों के आने और जाने का सतत् प्रक्रिया। इन विचारों का आपस का अंतराल अत्यंत सुक्ष्म होता है। ये इतनी तेज गति से आती-जाती हैं कि हम कुछ समझ नहीं पाते। और लहरों की ही भांति आपस में जुड़ जाते हैं। इसी से मन का आभास होता है। 

तोरा मन दर्पण कहलाए
भले बुरे सारे कर्मों को
देखे और दिखाए
तोरा मन दर्पण कहलाए !

मन में विचारों का लहर उठता है। विचार अच्छे और बुरे हो सकते हैं। विचारों के गुण-दोष के अनुसार ही मन के अच्छे-बुरे होने का आभास होता है। सबकुछ विचारों के कारण होता है। मन तो केवल एक प्रतीति है। जो हम सोचते हैं, वही दिखता है। इस प्रकार यह उक्ति ‘मन दर्पण कहलाए’ उचित प्रतीत होता है।

मन ही ईश्वर मन से बड़ा न कोई
मन उजियारा जब जब फैले
जग उजियारा होए
इस उजले दर्पण पर प्राणी
धुल न जमने पाए
तोरा मन दर्पण कहलाए

विचार अच्छे तो सब अच्छा, फिर सब-कुछ अच्छा लगता है। उत्तम विचारों के आलोक में चारों ओर का अंधेरा मिट जाता है। भीतर सकारात्मक ऊर्जा का संचार हो जाता है। इसलिए यह कहा गया है कि मन ही सबकुछ है, मन से बड़ा कोई नहीं है। मन कुछ भी नहीं है, पर मन ही सबकुछ है।

कुविचारों के प्रभाव से यह जो प्रतीति है, मलीन हो जाता है। और भीतर नकारात्मक ऊर्जा का फैलाव हो जाता है। फलस्वरूप सब कुछ खराब लगने लगता है। दर्पण में अगर धुल का परत जम गया हो तो चेहरा साफ नजर नहीं आता। 

सुख की कलियां दुख के कांटे
मन सबका आधार ।
मन से कोई बात न छिपेगा
मन के नैन हजार ।।

सुख की प्रतीति हो या दुख की, सबका आधार यह मन ही है। सारा खेल विचारों का है, हमसे जो कर्म होते हैं, हमारे विचारों के अनुसार ही होते हैं। अगर विचार ही न हों तो मन भी नहीं है। जब तक विचारों का प्रवाह है तब तक मन की प्रतीति होती है। और तब तक इससे विमुक्ति असंभव है। मुक्त तभी हुवा जा सकता है जब मन न रहें। मन की कोई प्रतीति न हो, कोई हलचल न हो, कोई लहर न हो।

और ज्ञानियों की मानें तो भीतर कोई लहर नहीं होता, कोई हलचल नहीं होता। सारा उपद्रव ऊपरी सतह पर होता है। विचारों का, इच्छाओं का, सारा खेल ऊपर का है। भीतर तो शुन्य है, शान्त है। सागर के तल में शांति व्याप्त है, कोई लहर नहीं, कोई प्रवाह नहीं, बिल्कुल स्थिरता है वहां। 

मन की स्वच्छता के लिए क्या करें ?

मन चंचल क्यों है? इसलिए कि विचारों का हलचल है। मन मलीन क्यों है? इसलिए की विचारों की गन्दगी जमी पड़ी है, परत दर परत। जबतक विचारों की गन्दगी न मिटे, यह मन स्वच्छ कैसे हो सकता है? दर्पण के सतह पर जमे धुल को साफ करना पड़ता है, तभी चेहरा साफ नजर आता है। वस्त्र अगर मैंले हों तो धोना पड़ता है। साबुन और पानी से, ठीक प्रकार से सफाई करनी पड़ती है। मन को शांत करने के लिए मन पर ही प्रयोग करना होता है। 

साबुन बिचारा क्या करें गांठे वाखे मोय।
जल सो अरक्षा परस नहिं क्यों कर उजल होय।।

संत कबीर

साबुन का उपयोग वस्त्र को साफ करने के लिए होता है। गंदे वस्त्र को जल में भीगोकर, उसे साबुन से रगड़ना पड़ता है। अगर साबुन को गांठ में बांधकर रख दिया जाय, जल से उसका संपर्क न हो तो क्या वस्त्र साफ होगा? उसी प्रकार ज्ञान की गंठरी बनाने से कोई लाभ नहीं होता, जब तक कि इसपर अमल न हो। पर उसपर चिंतन-मनन हो तो  मन स्वच्छ नहीं हो सकता। 

जग से चाहे भाग ले कोई
मन से भाग न पाए
तोरा मन दर्पण कहलाए !

जिसे हम ज्ञान समझते हैं। अध्ययन से, सत्संग से इसे तो इकट्ठा तो कर लेते हैं। पर अमल के अभाव में यह विचारों की भीड़ के अलावे कुछ भी नहीं है। चिंतन के अभाव में समझ में आता ही नहीं। विचार केवल विचार बनकर रह जाते हैं। या यूं कहें कि एक द्वंद खड़ा हो जाता है, आपस में विचारों का। जिन विचारों को लेकर हम चल रहे होते हैं, वहां तो शांति मिलती नहीं। और जिन विचारों को इकट्ठा करते हैं, उस ओर भागकर जाना चाहते हैं। लेकिन विचारों से मुक्त नहीं हो पाते।

ज्ञान तो भीतर है। जहां स्थिरता है, ज्ञान वहां है। और स्थिरता के लिए विचारों के भीड से खुद को पृथक करना पड़ता है। मन को स्थिर करने के लिए मन पर ही प्रयोग करना पड़ता है। ध्यान क्रिया के द्वारा मन को शांत किया जा सकता है। ध्यान विचारों से मुक्त होकर मन की निर्मलता को प्राप्त करने का एक सिद्ध प्रक्रिया है। 

मलिन विचारों से दुषित मन दुसरों को भी मलिन समझता है। यह दृष्टिकोण उसे और मलिन बना देता है।  मन दर्पण कहलाए ! मन रुपी इस दर्पण की निर्मलता के लिए जीवन में ध्यान का होना अनिवार्य है। 

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