मन की हीनता का आशय हीन भावना से है। हीनता निम्न होने का भाव है, तुच्छ होने का भाव है। यह नकारात्मक भाव है, जो मन का विषय है। क्योंकि भावनाएं मन में ही उत्पन्न होती हैं। भावनाएं ही विचारों की जननी हैं। मन में जो भाव होंगे, विचार भी वैसे ही उभरकर आयेंगे। और जैसे विचार होंगे व्यक्तित्व भी वैसा ही होगा। जिस व्यक्ति की भावदशा नकारात्मक हो, उसका जीवन दुखमय हो जाता है।
मन की हीनता का अर्थ क्या है जानिए ..!
हीनता का अर्थ है कि किसी के पास जो कुछ भी है, वह जैसा भी है, जैसी भी स्थिति में वह जी रहा है, उसमें उसकी सहमति नहीं है। और यह ज़ो अपने आप के प्रति असहमति है, यही हीनता है। चूंकि यह हीन भाव मन में निहित होता है, इसलिए यह मन की हीनता है।
हीनता का अर्थ है कि व्यक्ति चाहे जैसा भी हो , उसे हमेशा ऐसा लगता है कि कोई दुसरा उससे आगे है। कोई भौतिक रूप से उससे अधिक संपन्न है, तो कोई मान्सिक रुप उससे अधिक समृद्ध है। कोई शारीरिक रूप से उससे अधिक सबल है, तो कोई अधिक सुन्दर है। इस प्रकार के भावों से मन का ग्रसित रहना हीनता है।
इसके विपरीत खुद को दुसरों से श्रेष्ठ समझना भी मन के हीन भावना से ग्रसित होने का परिचायक है। दुसरों से अधिक श्रेष्ठ होने का भाव और इस मनोभाव को जताने का प्रयास करते रहना भी हीनता है। जबकि श्रेष्ठता सिद्ध करने का विषय नहीं है, इसका निर्माण उत्तम व्यवहार -विचार से होता है। नम्रता श्रेष्ठता की जननी है। एक फलदाई वृक्ष की टहनियां हमेशा झुकी हुई होती हैं।
हीन भावना का कारण और निदान!
खुद को दुसरों से हीन समझने का यह मनोदशा जन्मजात नहीं होता। एक बालक का मन तो स्वच्छ होता है, कोई आकांक्षा उसमें नहीं होती। जैसे जैसे वह बड़ा होता है, संसार के प्रति आकर्षित होने लगता है।
मन में हीन भावना के विकसित का कारण बाहर का विषय है। कोई इसे जन्म से लेकर नहीं आता। परिवार का रहन-सहन एवम् आर्थिक स्थिति, आस-पास का सामाजिक परिवेश का प्रभाव उस पर पड़ता है। जो उसके पास नहीं है, दुसरों के पास देखता है तो उसे पाना चाहता है। अगर वांछित चीजें उसे प्राप्त न हो, तो वह आहत होता है।
किसी भी व्यक्ति के जीवन में जो समस्याएं हैं! उन सारी समस्याओं का कारण उसके मन की हीनता है। और यह मनोदशा जो समस्याओं की जननी है, इसके पनपने का कारण भी उसकी मनोकामना है। यह जो मनोकामना है, मन की आकांक्षा है, बाहर का विषय है। दुसरों को देखने से, दूसरों से तुलना करने से अनेक प्रकार की इच्छाएं मन में जगती हैं।
मन की हीनता से निजात पाने का एक ही उपाय है। और वह उपाय है हीनता का जो कारण है, उससे स्वयं को दुर रखना। हीनता का जो प्रमुख कारण है, वह है किसी के समक्ष अपने आप को तौलना। जब हम किसी से तुलना करते हैं, तो मन में हीनता की भावना पनपती है। और हीनता की भावना हमारे जीवन को दुखों से भर देती है।
अल्फ्रेड एल्डर के अनुसार व्यस्क लोगों में हीनता का कारण यह है कि अपने बालपन में उत्पन्न हीन मनोदशा पर वो नियंत्रण नहीं पा सके हैं। यह जो हीन मनोदशा है, उस समय उत्पन्न हुवा होता है, जब उसमें समझ का अभाव होता है। संसार के विषय में उसे समुचित ज्ञान नहीं होता। हीनता बचपन से व्यस्क होने तक विकसित होती है। और जब कोई इस मनोदशा को नियंत्रित नहीं कर पाता, तो वह इससे ग्रस्त हो जाता है।
महाभारत की कथा में एक महत्वपूर्ण व्यक्ति कर्ण का उल्लेख मिलता है। अनेक प्रतिभाओं एवम् गुणों से सज्ज था उनका जीवन। परन्तु एक हीनता थी उनके जीवन में, जिसका कीमत उन्हें ही नहीं समस्त राष्ट्र को चुकाना पड़ा। वो अपने को सर्वश्रेष्ठ साबित करना चाहते थे। उनकी मन की हीनता उनके जीवन को महत्व की आकांक्षा में परिवर्तित कर दिया। अर्जुन से प्रतिद्वंदता का और कोई कारण न था। उनकी श्रेष्ठता में किसी को कोई संदेह न था, फिर भी वह अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने में लगे रहे। उनका यह मनोभाव उनमें निहित सारे गुणों पर भारी पड़ गया।
महर्षि रमण के अनुसार मन की हीनता ही महत्व की आकांक्षा का जड़ है। इस बात को समझना थोड़ा जटिल है। क्योंकि सामान्य दृष्टि में हीनता की भावना और महत्व की आकांक्षा परस्पर विपरीत मालुम पड़ते हैं। परन्तु गहराई से विचार करें तो ये एक दुसरे के विपरीत नहीं हैं। एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, एक ही भावदशा के दो किनारे हैं। हीनता जब खुद से निजात पाने की कोशिश करती है तो महत्वाकांक्षा में परिवर्तित हो जाती है।
अल्फ्रेड एल्डर के अनुसार पूरी मनुष्यता एक गहन दौड़ में लगी है। इस दौड़ को उन्होंने ‘The will to the power’ शक्ति की आकांक्षा की संज्ञा दी है। मनुष्य की सारी दौड़ का आधार दूसरों से आगे निकलने की इच्छा है।
मन की हीनता का कारण है, हर किसी से आगे बढ़ने की दौड़, जो कि व्यर्थ है। दुसरों से आगे बढ़ने की कामना कभी मिटती नहीं। यह जो दौड़ है, गलत है, व्यर्थ है। महत्व की आकांक्षा सबमें है, सभी दौड़ रहे हैं, एक दुसरे आगे निकलने के लिए। लेकिन मंजिल किसी को नहीं मिलती। क्योंकि लाखों की भीड़ है, और यह संभव ही नहीं कि कोई न कोई हमसे आगे न रहे। हमसे कोई श्रेष्ठ है, इस तरह के विचार से हमारी मनोदशा बिगड़ जाती है। इसलिए जीवन में कभी किसी से तुलना नहीं करनी चाहिए। हम जो भी हैं, जैसे भी हैं, जिस हाल में हैं, ठीक हैं। मन अगर संतोष से भरा हो, तो हीनता का प्रवेश हो ही नहीं सकता।
करै बुराई सुख चहै कैसे पावै कोय।
बोया पेड़ बबुर का आम कहां से होय।।
कबीर कहते हैं कि जैसी हमारी मनोदशा होती है, हमसे जो कार्य होते हैं, वैसा ही परिणाम हमें मिलता है। जैसे बबुल का पेड़ लगाने से आम नहीं फलता। यह जो दौड़ है, भौतिक वस्तुओं में सुख पाने की चाह, दुसरों से आगे निकलने की चाह, इसमें सुख नहीं है। यह सांसारिक जीवन इच्छाओं, आकांक्षाओं से भरा हुआ है। किसी की सभी इच्छाएं पूरी नहीं हो सकती। और पूरी हो भी जाए तब भी पाने की चाह नहीं मिटती। हमेशा ऐसा लगता है कि जो मिला वो कम है। मन में यह पीड़ा बनी रहती है कि कोई है, जिसके पास कुछ अधिक उपलब्ध है। मन की हीनता नकारात्मक भाव है, कमजोरी है, बुराई है। इसका परिणाम कभी सकारात्मक नहीं हो सकता। इस तरह की भावनाओं पर नियंत्रण पाकर ही जीवन को सुखी बनाया जा सकता है।