दोस्तों आइए आज चर्चा करते हैं कि सहज जीवन कैसे जीयें ! जीवन को आसान बनाकर जीवन का आनंद कैसे उठाएं ..! पहले यह जानते हैं कि सहज का अर्थ क्या है? सहज यानि सामान्य, simple, इसका एक समानार्थी शब्द सरल भी है। खुद को प्राकृतिक रूप से ढालने का प्रयास करके हम जीवन को सहज बना सकते हैं। मगर यह तभी संभव है जब हम स्वयं को जटिल मनोवृत्तियों से अलग करने का प्रयास करें। सामान्यतः यह देखा जाता है कि सभी जीवन में कुछ विशेष करना चाहते हैं। और जब कोई व्यक्ति कुछ विशेष करने का प्रयत्न करता है तो उसका मन विशेष स्थान बनाने लगता है। सहज होने का मतलब यह नहीं होता कि मन में कोई विशेष होने का भाव घर कर जाय। खुद को हीन समझने अथवा विशेष समझने, दोनों ही तरह का भाव व्यक्ति को भ्रम में डाल देता है।
जानिए ! सहज जीवन कैसे जीएं …
हम जो भी हैं, जैसे भी हैं, स्वयं को उसी रुप में स्वीकार कर लेना ही सहजता का नियम है। वैसे भी यह किसको पता होता है कि वह कौन है, कहां से आया है, क्यों आया है, क्या करना है और उसे जाना कहां है ? सहज होने की प्रक्रिया का मतलब है, वास्तविकता के साथ जीवन जीना सीख लेना। अगर हम अपने आस-पास हो रही घटनाओं को सहज भाव से लेना सीख लें। अगर हम चीजों को तोड़ना, मरोड़ना छोड़ दें। और हरेक चीज को वैसे ही देखें जैसी वह हैं, तो हमारा जीवन सहज हो सकता है।
यदि तुम पुरे हृदय से यैस (Yes) कहो तो तुमने वह सब कह दिया जो कहा जा सकता है। हर चीज को यैस कहो! अच्छा हो कि बुरा, दिन हो कि रात, सर्दी हो कि गर्मी, सफलता हो कि असफलता, सुख हो कि दुख, तुम यैस कहो। बाकि सब भूल जावो, बस एक ही शब्द याद रखो यैस।
ओशो
जरा सोचिए! हम जो देख रहे होते हैं, अपने चारों ओर की चीजों की चीजों को, आस पास हो रही घटनाओं को, इसे कौन देख रहा होता है ? वह कौन है जो सबकुछ देख रहा होता है ? हमारी आंखें! नहीं, इन सारी चीजों को हमारा मन देख रहा होता है। आंखों से हम वही देखते हैं, कानों से हम वही सुनते हैं जो हमारा मन कहता है। और इन्हें देखने, सुनने के पश्चात हम जो सोचते हैं, वह भी मन के कारण होता है। फिर जो दिखाई पड़ता है, हम उसी में संलग्न हो जाते हैं। हमारे आस-पास जो हो रहा है, वही सच है! ऐसा आभास होने लगता है।
वास्तव में जिन चीजों को आभास कर रहे होते हैं, यह हमारे मन की भ्रांति है। ज्ञानियों का कहना है कि इस भ्रांति से बाहर निकलने का प्रयास करने से मन शान्त और स्थिर हो जाता है। मन जब शांत हो जाता है तो भीतर के शुद्ध त्तत्व को खोज लेता है। अगर उस शुद्ध त्तत्व को खोज लिया जाय जो जीवन सरल हो जाता है, सहज हो जाता है।
ओशो कहते हैं: मैं शरीर हूं, मन नहीं हूं ? यह किसे अनुभव होता है ? एक त्तत्व है हमारे भीतर दर्शन का, द्रष्टा का, देखने का! हम देख रहे हैं, हम जांच रहे हैं। वह जो देख रहा है वही साक्षी यानि वही मैं हूं। जो दिखाई पड़ रहा है वही है जगत! जो भी दिखाई पड़ता है वह हमसे भिन्न है। उसको ही अपने से अधिक समझ लेना अभ्यास है। जिसको आप देख रहे हैं, उसके साथ मोहित हो जाना कि लगने लगे यह मैं ही हूं, यही भ्रांति है। इस भ्रान्ति को तोड़ना है और अंततः उस शुद्ध त्तत्व को खोज लेना है, जो सदा ही देखने वाला है। और कभी दिखाई नहीं पड़ता।
परन्तु अपने को यानि अपने भीतर के इस शुद्ध त्तत्व को देख पाना अत्यंत कठिन है। हम सहज जीवन कैसे जीयें ? इस प्रश्न का हल ढुंढना हो तो अपने को देखना सीखना होगा। और इसके लिए ध्यान ( meditation. ) योग ( yoga ) जैसी कठिन प्रक्रियाओं का अभ्यास ( prectice ) जरूरी है। निरंतर और नियमबद्ध होकर प्रयास करते रहने से हम अपने भीतर के त्तत्व को देख सकते हैं।
ओशो कहते हैं कि आप अपने को कैसे देख सकोगे ? क्योंकि देखने के लिए तो चीजों की जरूरत होती है , जो देखें और दिखाई पड़े। हम संबकुछ देख लेते हैं , अपने को ही नहीं देख पाते और देख भी नहीं पायेंगे। जिस को भी हम देख लेंगे जान लेना वह हम नहीं हैं। आपको जिस चीज का भी अनुभव हो जाय वह आप नहीं हैं। आप तो वह हैं जिसको अनुभव होता है। जो भी चीज अनुभव बन जाती है , उसके आप पार हो जाते हैं। इसलिए एक कठिन बात समझ लेनी होगी कि अध्यात्म कोई अनुभव नहीं है। दुनिया की सब चीजें अनुभव है, अध्यात्म नहीं। अध्यात्म तो उसके करीब पहुंच जाता है , जिसको सब अनुभव होता है। और जो कभी स्वयं अनुभव नहीं बनता! यही साक्षी भाव है, द्रष्टा भाव है।
किसी चीज से भागने की जरूरत नहीं है , बल्कि अपने अंतरतम की गहराई में तलाश करना है। उस स्थिर केन्द्र को तलाशना है जो बवंडर का केन्द्र है। और यह हमेशा से वहां था, और आप किसी भी पल उसका पता लगा सकते हैं। यह आपके भीतर ही निहित है। और इसे तलाशने की तकनीक है ध्यान करना। ध्यान का अर्थ है खुद को लय में करना , आप शरीर को देख सकते हैं, आप मन को देख सकते हैं !
ओशो
हमारा जीवन उलझा हुआ क्यों है? सहज जीवन कैसे जीयें ? इस बात पर श्री श्री रविशंकर का दृष्टिकोण कुछ ऐसा है। श्री श्री के अनुसार इन्दिय के साधन से इंद्रियां अधिक जरूरी हैं, टेलीविजन से अधिक तुम्हारी आंखें हैं। संगीत अथवा ध्वनि से जरुरी तुम्हारे कान हैं। स्वादिष्ट भोजन से अधिक जरुरी जिह्वा है। हम जो भी स्पर्श करते हैं, उससे अधिक जरुरी हमारी त्वचा है। जबकि अज्ञानी यह सोचते हैं कि इंद्रिय सुख देने वाली वस्तुएं इंद्रियों से अधिक जरूरी हैं। बुद्धिमान वही है जो इंद्रियों की तुलना में मन की ओर अधिक ध्यान देता है। यदि मन ध्यान नहीं रखा, केवल इंद्रियों के सुख के साधन और इंद्रियों पर ही ध्यान रहा तो तुम अवसाद में चले जानोगे।
तुम्हारी बुद्धि मन से परे है, मन के मते न चलिये – यदि तुम केवल मन के अनुसार चलोगे तो जीवन में उथल-पुथल चलता रहेगा। मन पर नियंत्रण , मन की प्रकृति को मिटा सकती है। बुद्धि मन से अधिक जरुरी है, क्योंकि यह ज्ञान की सहायता से निर्णय लेती है। बुद्धिमान बुद्धि का अनुसरण करते हैं, मन का नहीं। बुद्धिमता यह हैं कि तुम एक अपनी भावनाओं की परवाह मत करो। क्योंकि भावनाऐं हमेशा बदलती रहती हैं। किसी भी बात के लिए विलाप मत करो। इस संसार की किसी भी वस्तु की कीमत तुम्हारे आंसुओं के बराबर नहीं है। अगर तुम्हें आंसु बहाना ही है तो वे कृतज्ञता के, प्रेम के आंसु होने चाहिए। तुम्हारा जीवन निरर्थक बातो को लेकर रोने के लिए नहीं बना है।
सहज जीवन कैसे जीयें ? इस बात का हल पवित्र गीता में भी उद्धृत है। जरूरत पढने, समझने और इन विचारों को जीवन में उतारने की है। भगवान कृष्ण ने स्वयं यह बात कही है: जो हुवा वह अच्छा हुवा, जो हो रहा है वह अच्छा हो रहा है, और जो होगा वह भी अच्छे के लिए ही होगा। मन में इस विचार को धारण कर चलने से जीवन सरल हो जाता है, सहज हो जाता है।
साधारण मनुष्य अपने जीवन को इतना जटिल बना लेता है कि जीवन की सहजता नष्ट हो जाती है। क्योंकि वह भ्रम में जीता है, मदहोशी में जीता है। दुसरे शब्दों में कहें तो उसे यह पता ही नहीं होता कि वह कौन है और उसे करना क्या है ? सहज जीवन कैसे जीयें ; इसके लिए अपने आपको जानना जरूरी है। मन को मनोवृत्तियों से मुक्त करना जरूरी है। जीवन को उदासी से बाहर कर खुशहाल करना चाहते हैं तो सहजता के साथ जीना सीखना होगा। यही सहज जीवन का मूल मन्त्र है।
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