मुसाफिर का अर्थ है, जो सफर में हो। मुसाफिर एक कर्ता है और सफर एक क्रिया। सामान्यतः मुसाफिर वह है जो सफर करता है। एक स्थान से दुसरे स्थान की ओर ! वह तब तक भटकता रहता है, जब तक उसे मंजिल नहीं मिल जाती। राहगीर, राही, मार्गी, पथिक, बटोही आदि इसके अनेक समानार्थी शब्द हैं।
सबकी अपनी इच्छाएं होती है, अपनी जरुरतें होती हैं। साधारण पथिक अपना हर कदम अपनी जरुरतों को पूरा करने के लिए उठाता है। अपनी इच्छाओं की पूर्ति करना ही उसका लक्ष्य होता है। वह अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए भाग-दौड़ करता है। कोई रास्ते को तय पाने में सफल होता है, तो किसी का सफर अधुरा रह जाता है।
मुसाफिर हूं यारों … शायरों के चंद कलाम !
जिंदगी के सफर में लगातार चलते जाना मुसाफिर का काम है। जबतक मंजिल ना मिले चलते ही जाना है। मंजिल सबकी अलग अलग हो सकती है। हर मुसाफिर का मंजिल उसके सोच के हिसाब से तय होता है। लेकिन मुकाम तक पहुंचना ही सबकी इच्छा होती है। गुलज़ार की यह कविता गौर करने लायक है। प्रस्तुत गीत में इन्होंने साधारण शब्दों में जीवन के दर्शन को व्यक्त किया है।
एक राह रुक गई तो एक जुड़ गईं
मैं मुड़ा तो साथ साथ राह मुड़ गई हवा के परों पर मेंरा आशियाना
मुसाफिर हूं यारों…
ना घर है ना ठिकाना
चलते जाना है …
दिन ने हाथ थाम कर इधर बिठा लिया
रात ने इशारे से उधर बुला लिया
सुबह से शाम से मेरा दोस्ताना
मुसाफ़िर हूँ यारों ना घर है ना ठिकाना
मुझे चलते जाना है…बस चलते जाना।
शब्दों का खेल निराला होता है। और शब्दों से वही खेलते हैं जो खेलना जानते हैं। समय समय पर कवियों, शायरों, गीतकारों ने बहुत ही दार्शनिक अंदाज में अपनी बात कही है।
हार को मन का डर नहीं मंजिल का सबब बना
जिन्दगी अक्सर उलझती है जब राहें मंजिल के करीब हों।
अभी ना पूछो मंजिल कहां है
अभी तो हमने चलने का इरादा किया है।
ना हारे हैं, ना हारेंगे कभी, ये खुद से वादा किया है।
चलता रहूंगा मैं पथ पर चलने में माहिर बन जाऊंगा।
या तो मंजिल मिल जायगी या मुसाफिर बन जाऊंगा।।
मुश्किलें जरुर है मगर ठहरा नहीं हूं मैं !
मंजिल से जरा कह दो मुसाफिर हूं मैं !
रास्ते कहां ख़त्म होते हैं ज़िंदग़ी के सफ़र में,
मंज़िल तो वहां है जहां ख्वाहिशें थम जाएं।।
खुद पुकारेगी मंजिल तो ठहर जाऊंगा
वरना मुसाफिर खुद्दार हूं यूं ही गुजर जाऊंगा।
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हिन्दी सिनेमा के गीतों में जीवन-दर्शन !
हिन्दी सिनेमा जगत में ऐसे अनेक गीतकार हुवे हैं, जिन्होंने अदभुत रचनाएं की हैं। इन गीतों में जीवन-पथ के दर्शन का सुन्दर वर्णन मिलता है। कुछ ऐसे ही रोचक रचनाओं की पंक्तियों को प्रस्तुत कर रहा हूं!
आदमी मुसाफिर है !
आइए शुरुवात करते हैं आनन्द वक्शी का लिखा एक गीत से। फिल्म अपनापन में फिल्माया गया इस गीत को लता और रफी ने गाया है, संगीत लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने दी है।
आदमी मुसाफिर है, आता है, जाता है
आते जाते रस्ते में, यादें छोड जाता है
क्या साथ लाये, क्या तोड़ आये
रस्ते में हम क्या-क्या छोड़ आये
मंजिल पे जा के याद आता है
आदमी मुसाफिर है…
जब डोलती है, जीवन की नैय्या
कोई तो बन जाता है खिवैय्या
कोई किनारे पे ही डूब जाता है
आदमी मुसाफिर है…
मैं राही भटकने वाला हूँ !
जीवन-पथ में आगे बढ़ने वाला सच्चा पथिक दिवाना होता है। उसे राह में आने वाले ठोकरों की परवाह नहीं होती। और नाही मंजिल के मिलने या ना मिलने की चिंता। हसरत जयपुरी का यह गीत जिसे मुकेश ने स्वर दिया है। फिल्म बादल का यह गीत एक सच्चे मुसाफिर का चरित्र चित्रण करती है;
ये मस्त घटा मेरी चादर है
ये धरती मेरा बिस्तर है
मैं रात में दिन का उजाला हूँ
कोई क्या जाने मतवाला हूँ
ये बिजली राह दिखाती है
मंज़िल पे मुझे पहुँचाती है
मैं तूफ़ानों का पाला हूँ
कोई क्या जाने मतवाला हूँ
मैं मचलूँ तो इक आग भी हूँ
मैं झूमूँ तो इक राग भी हूँ
दुनिया से दूर निराला हूँ
कोई क्या जाने मतवाला हूँ!
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मुसाफिर चलते जाना रे..!
फिल्म तपस्या का यह गीत जिसे गीतकार हसमत ने लिखा है। इस गीत को संगीत दिया है रविन्द्र जैन ने, और स्वर दिया है किशोर कुमार ने। यह गीत वक्त के साथ संभल कर चलने की सीख देती है।
जो राह चुनी तूने, उसी राह पे राही चलते जाना रे
हो कितनी भी लम्बी रात, दिया बन जलते जाना रे
कभी पेड़ का साया पेड़ के काम न आया
सेवा में सभी की उसने जनम बिताया
कोई कितने भी फल तोड़े, उसे तो है फलते जाना रे
उसी राह पे राही चलते जाना रे..!
जीवन के सफ़र में ऐसे भी मोड़ हैं आते
जहाँ चल देते हैं अपने भी तोड़ के नाते
कहीं धीरज छूट न जाये, तू देख सम्भलते जाना रे
उसी राह पे राही चलते जाना रे..!
तेरे प्यार की माला कहीं जो टूट भी जाये
जनमों का साथी कभी जो छूट भी जाये
दे देकर झूठी आस तू खुद को छलते जाना रे!
उसी राह पे राही चलते जाना रे..!
तेरी अपनी कहानी ये दर्पण बोल रहा है
भीगी आँख का पानी, हक़ीकत खोल रहा है
जिस रंग में ढाले वक़्त, मुसाफ़िर ढलते जाना रे
उसी राह पे राही चलते जाना रे..!
मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया !
ज्ञानियों ने कहा है मन को ऐसी स्थिति में पहुंचा देना चाहिए, जहां खुशी मिले या गम, उसका असर मन पर ना हो। प्रस्तुत है साहिर लुधियानवी द्वारा रचित गीत की पंक्तियां। जीवन में वक्त के साथ-साथ चलने की सीख देती है यह गीत।
मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया
हर फ़िक्र को धुवें में उडाता चला गया
बरबादियों का शौक माना फिजुल था
बरबादियों का जसन मनाता चला गया
मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया !
जो मिल गया उसी को मुक़दर समझ लिया
जो खो गया मैं उसको भुलाता चला गया
मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया !
गम और ख़ुशी में फरक ना महसुस हो जहाँ
मैं दिल को उस मुक़ाम में लाता चला गया
मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया
हर फ़िक्र को धुवें में उडाता चला गया..
मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया !
रास्ते चाहे जैसे भी हों, उस पर चलने वाले ही मुसाफिर कहलाते हैं। अब प्रश्न उठता है कि सही मायने में मुसाफिर का लक्ष्य क्या होता है। जरा सोचिए ! क्या किसी का जन्म उसके इच्छा से हुवा है? या फिर उसके जन्म पर उसका अधिकार है! जीवन क्या है! जन्म से लेकर मृत्यु तक का सफर ही तो है! जन्म हमें प्राप्त होता है, और जीवन को हमें संवारना होता है। अर्थात् जीवन एक सफर है, और जन्म लेने वाला इस सफर का मुसाफिर !
यह संसार एक पड़ाव है, मंजिल नहीं। इस बात को जो समझ गया, उसने अपना जीवन को संवार लिया। जो घर से निकलते ही नहीं! जो राहों से गुजरते ही नहीं! उन्हें क्या पता कि राहगीरी क्या होती है! एक पुरानी कहावत है,कि खोजोगे तो हर मंजिल की राह मिल जाती है। मुसाफिर वो है जो भटककर ही सही मंजिल तक पहुंच जाता है।
जो प्यार कर गए वे लोग और थे..!
वही सच्चा मुसाफिर है, जो दुसरों के लिए जीता है। वह स्वयं को जानने का प्रयास करता है, वह कौन है, उसका कर्तव्य क्या है। जो जानने में सफल हो जाता है, वह असाधारण हो जाता है। संसार में ऐसे अनेक मुसाफिरों का आना हुवा है, जो अपने जीवन-यात्रा में सफल हुवे हैं। जिन्होंने जीवन का आनंद उठाया और दुसरो को जीना सिखा गये। ऐसे विभुतियों के सम्मान में प्रस्तूत है गीतकार संतोष आनंद की कविता की पंक्तियां;
गुलशन के फूल फूल पर शबनम की बून्द से
हंसकर बिखर गए वे लोग और थे
हाथों में हाथ बांध के संतोष रह गया
कुछ कर गुजर गए वे लोग और थे
दिल में उतर गए वे लोग और थे..!
सफलता के लिए जीवन में प्रार्थना होनी चाहिए..!
अंत में प्रस्तुत है, फिल्म अंकुश ले लिया गया यह गीत, जिसे अभिलाष ने लिखा है। और पुष्पा बागधरे ने इसे स्वर दिया है। साथियों पढ़िए, गीतों के सार को समझिए और जीवन के सफर में एक सफल मुसाफिर की तरह आगे बढ़ते रहिए।
इतनी शक्ति हमें दे न दाता
मनका विश्वास कमज़ोर हो ना
हम चलें नेक रास्ते पे हमसे
भूलकर भी कोई भूल हो ना…
दूर अज्ञान के हो अन्धेरे
तू हमें ज्ञान की रौशनी दे
हर बुराई से बचके रहें हम
जितनी भी दे, भली ज़िन्दगी दे
बैर हो ना किसीका किसीसे
भावना मन में बदले की हो ना…
हम न सोचें हमें क्या मिला है
हम ये सोचें किया क्या है अर्पण
फूल खुशियों के बाटें सभी को
सबका जीवन ही बन जाये मधुबन
अपनी करुणा को जब तू बहा दे
करदे पावन हर इक मन का कोना…
इतनी शक्ति हमें दे न दाता
मनका विश्वास कमज़ोर हो ना
हम चलें नेक रास्ते पे हमसे
भूलकर भी कोई भूल हो ना…
मानव के जन्म लेने के साथ ही, उसके जीवन का सफर शुरु हो जाता है। हर मुसाफिर को अपने भीतर उत्तम संस्कारों, उत्तम विचारों को विकसित करने का अभ्यास करना चाहिए। इसके लिए जीवन में वंदगी का होना जरूरी है। नियमित और निरंतर प्रार्थना करते रहने से हमारे भीतर सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता रहता है। अगर हम अपने जीवन में उत्तम विचारों को अपना सकें, तो हमारा जीवन उत्तम हो जायगा। और हमारा जीवन साधारण से असाधारण की ओर अग्रसर हो जायगा।
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