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परोपकार दिल से — Charity from Heart

परोपकार का अर्थ क्या है !

पर और उपकार, इन दो शब्दों का मेंल है परोपकार। पर यानि दुसरो के लिए और उपकार का अर्थ होता है भलाई करना। इस प्रकार परोपकार का शाब्दिक अर्थ हुवा दुसरों का भला करना।

दार्शनिक दृष्टि से परोपकार का अर्थ व्यापक हो जाता है ! यह जो परहित है, अगर विना किसी प्रतिफल की भावना के साथ किया जाय, तो यह उत्कृष्ट हो जाता है। निदा फाजली दुसरों की मदद करने को सबसे ऊपर रखते हैं। उन्होंने अपने भावना को कुछ इस तरह व्यक्त किया है ;

घर से मस्जिद है बहुत दुर ..! किसी रोते हुवे बच्चे को हंसाया जाय।

चाणक्य के शब्दों में : जिन सज्जनों के हृदय में परहित की भावना जागृत रहती है, ऊनकी आपत्तियां दुर हो जाती हैं, और पग पग उन्हेंं यश की प्राप्ति होती है।

मदर टेरेसा के शब्दों में: “दया और प्रेम भरे शब्द भले ही छोटे लगते हों, परन्तु वास्तव में उनकी गुंज अनंत होती है।” इस बात को चरितार्थ करते हुवे उन्होंने स्वयं के विषय में कहा है : ” मैं कोई महान काम नहीं करती बल्कि छोटे-छोटे कामों को बड़े प्यार से करती हूं।” 

मध्ययुगीन काल के लोकप्रिय कविगण रहीम, संत कबीरदास एवम् महापंडित तुलसीदास सबने परोपकार की महत्ता पर लिखा है। रहीम के अनुसार वे लोग धन्य होते हैं, जिनका अंग परोपकार में लगा रहता है। परोपकार करने वालों का उपकार अपने आप हो जाता है। ठीक उसी प्रकार जैसे दुसरों के लिए मेहंदी पीसने वाले का हाथ स्वत: मेहंदी के रंग से रंग जाता है।

वे रहीम नर धन्य हैं पर उपकारी अंग। बांटनवारे को लगे ज्यौं मेहंदी के रंग।।

संत कबीरदास परोपकार पुरे मन से करने की सीख देते हैं। उन्होंने कहा है कि जो दुसरों को सुख देते हैं, दुसरों का सम्मान करते हैं, सबसे हमेंशा प्रेमपुर्ण व्यवहार करते हैं, उनके समान कोई और नहीं होता। 

तिन समान कोई और नहीं जो देते सुख दान। सबसे करते प्रेम सदा औरन देते मान।।

वहीं पं तुलसीदास के अनुसार दुसरों की भलाई के सदृश कोई धर्म नहीं है और परपीड़ा के समान कोई अधर्म नहीं है।

परहित सरिस धरम नहिं भाई। परपीड़ा सम नहिं अधमाई।।

आइए इस बात को एक कहानी से समझते हैं। एक बार एक श्रृषि आम के पेड़ के नीचे विश्राम कर रहे थे। तभी कुछ बच्चे आम तोड़ने के लिए उस पेड़ के ऊपर पत्थर फेंकने लगे। इस बीच एक पत्थर श्रृषि के मस्तक पर लगा और खुन निकलने लगा। बच्चे डर से भागने लगे। परन्तु श्रृषि ने उन्हें पास बुलाया और कहा डरते क्यों हो। तुमने इस पेड़ पत्थर मारा और इसने तुम्हें आम दिये, परन्तु मैं तो यह सोचकर परेशान हुवे जा रहा हूं कि तुम्हें कुछ भी नहीं दे पा रहा हूं। बच्चे श्रृषि के विनम्रता और परमार्थ के भाव को देखकर आत्मग्लानि से भर गये और उनके आगे नतमस्तक हो गये।

सामान्य मनुष्य अपने स्वार्थ को साधने में ही लगा रहता है, परहित उसे फालतु लगता है। जब उससे धन और यौवन उसका साथ छोड़ देता है तो उसके जीवन में खालीपन आ जाता है। वह बैठे बैठे पिछले जीवन का गीत गाता रहता है। पर उसे सुनने वाला कोई नहीं होता, क्योंकि सभी तो इसी कारोबार में व्यस्त होते हैं।

मदर टेरेसा के शब्दों में ; ” हम केवल अपने बारे में चिंतित होते रहेंगे तो हमारे पास दुसरों के लिए समय ही नहीं होगा। बहुत लोग जीवन जीने के लिए बहुत मेंहनत करते हैं और जोखिम उठाते हैं। मुझे तब गुस्सा आता है जब मैं बरबादी देखती हूं। कुछ लोग ऐसी चीजों को फेंकते हैं, जिनका इस्तेमाल किया जा सकता है।”

समाज में अधिकांश का निज के हित को ही प्राथमिकता देने की मानसिकता ने कबीर के मन को व्यथित कर दिया। उन्होंने कहा है ; इस संसार में प्रीत और रीत सबके पीछे कोई न कोई स्वार्थ है! परमार्थ नहीं, दुसरों का हित करने वाले तो विरले होते हैं।

प्रीत रीत सब अर्थ की परमारथ की नाहिं। कहे कबीर परमारथी विरला कोई कलि में माहि।।

कबीर कहते हैं कि स्वार्थी सुख के साथी होते हैं, दुख के समय में संग छोड़ जाते हैं। पर जो परोपकारी होते हैं, सुख और दुख दोनों परिस्थितियों में साथ निभाते हैं।

सुख के संगी स्वारथी दुख में रहते दुर। कहे कबीर परमारथी  दुख सुख सदा हुजुर।।

कबीर इस संसार को सीख देते हुए कहते हैं कि अंत समय में धन, यौवन, गांव, घर कुछ नहीं रहेगा। रहेगा को केवल यश रहेगा, इसिलिए किसी के काम आना ही सीख लो।

धन रहै न यौवन रहै, रहै न गांव न ठांव। कबीर जग में जस रहै करिदे कीहिं का काम।। 

प्रदीप का यह कर्णप्रिय गीत हमें यही सीख देती है।

‘क्या तुने खोया क्या तुने पाया क्या तेरा लाभ है क्या हानि! इसका हिसाब करेगा वही तु काहे फिकर करे रे प्राणी! तु बस अपना काम किये जा तेरा भंडार भरेंगे राम! दुसरों का दुखड़ा दुर करने वाले तेरा दुख दुर करेंगे राम! किये जा तु जग में भलाई का काम तेरा दुख दुर करेंगे राम..!’

विवेकानंद की संवेदना !

स्वामी विवेकानंद ने परोपकार पर युवाओं को संबोधित करते हुए कहा था; “वीर ह‌दय युवकों परोपकार ही जीवन है। सबके लिए तुम्हारे हृदय में दर्द हो, संवेदना से तुम्हारा ह‌दय भरा हो। यदि कुछ भी संशय हो तो सबकुछ ईश्वर के समक्ष कह दो। तुरन्त तुम्हें शक्ति मिलेगी, सहजता और अदम्य साहस का आभास होगा। गत दस वर्षों से मैं अपना मूलमंत्र घोषित करता आया हूं _ प्रयत्न करते चलो, धीरज रखो, न धन से काम होता है, न यश और विद्या काम में आता है, प्रेम से ही सबकुछ आता है।” स्वामी विवेकानंद – Swami Vivekanand Ka Mahan Jeevan स्वयं के विषय में उन्होंने कहा है ” मैं सदैव प्रभु पर, सत्य पर निर्भर रहा हूं! मरते समय मेंरे विवेक और बुद्धि पर यह धब्बा न रहे की मैंने नाम या यश पाने के लिए कार्य किया। दुराचार का गंध या बदनियती का नाम भी न रहने पाये। किसी प्रकार की टाल मटोल या बदमाशी हममें न रहने पाये। मैं सदैव कठिन परिश्रम की राह पर सत्य की ओर बढ़ रहा हूं।”

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