वेदना का यथार्थ चित्रण !
सामान्यत: वेदना का अर्थ है दर्द, पीड़ा, व्यथा। यह एक ऐसा मनोभाव है, जो उग्र शारिरीक अथवा मानसिक पीड़ा के कारण उत्पन्न होता है। अगर इस कष्टदायक अवस्था से स्वयं गुजरना पड़े तो यह वेदना है। पर किसी दुसरे को पीड़ा में देखकर यह संवेदना में बदल जाता है। संवेदना सहानुभूति प्रगट करने का भाव या क्रिया है।
गहनता से विचार करें तो यह शब्द अद्भुत हो जाता है। वेदना मुलत: संस्कृत भाषा का शब्द है, जिसका संबंध विद से है। विद का आशय है ज्ञान, बोध। विद और वान दो शब्दों का मेंल है विद्वान। इसलिए तो ज्ञानीजन विद्वान कहलाते हैं।
‘वेदना के पंख’ दो होते हैं। इसका एक पंख अर्थात् एक अर्थ पीड़ा है, तो दुसरा वोध यानि ज्ञान है।पंक्षी जब अपने पंखो को फैलाता है, तो उसके दोनो पंखो की दिशा एक दुसरे के विपरीत होता है। ‘वेदना के पंख’ पीड़ा और ज्ञान भी एक दूसरे के विपरीत हैं। परन्तु इनके बीच अद्भुत रिश्ता है, जिसे कोई विरला ही समझ पाता है।
जब कोई पीड़ा में होता है तो इस कष्टदायक स्थिति से बाहर आना चाहता है। शारिरीक पीड़ा तो उपचार से ठीक हो जाता है। पर मान्सिक पीड़ा से उबरना कठिन होता है। और इसे सहन करने की शक्ति ज्ञान से ही प्राप्त होता है। ज्ञान का अभाव में वेदना केवल पीड़ा है, और यह असहनीय हो जाता है। जब जीवन में परिस्थितियां विषम हों मनुष्य का मन नकारात्मक सोचने लगता है। तब ज्ञान की आवश्यकता होती है, जीवन में ज्ञान बहुत आवश्यक है।
वेदना सबके जीवन में है, अर्थात् पीड़ा और ज्ञान दोनों ही सबके जीवन में है। पर यह जो ज्ञान है, मन के भीतरी तल में छुपा हुवा है। और इस ज्ञान को छुने की इच्छा भी सबके जीवन में है। परन्तु साधारण मन अगर-मगर के चक्कर में पड़ा रहता है। वास्तव में द्वंद से ही समाधान की प्राप्ति होती है। जरा सोचिए अगर सिद्धार्थ के मन में वेदना ना होती और इसको लेकर उनके मन में द्वंद ना होता तो क्या उनका बुद्ध स्वरुप प्रगट होता..!
पंक्षी को मुक्त आकाश में उड़ने के लिए अपने पंखों को फड़फड़ना पड़ता है। ठीक उसी प्रकार परमसुख की स्थिति को पाने के लिए वेदना के पंखों को फड़फड़ाना पड़ता है। वेदना के एक पंख पीड़ा को दुसरे पंख ज्ञान से मिलाना पड़ता है। जिन्होंने भी ऐसा किया है, वे पीड़ा से मुक्त हो गये। वास्तव में पीड़ा तो मन का ही भाव है।जिनका मन ज्ञान से, आनन्द से भरा हो उन्हें शारीरिक पीड़ा का एहसास नहीं होता। जरा सोचिए प्रभु ईशु के हथेलियों में किल ठोका गया, फिर भी उन्हें पीड़ा क्यों नहीं हुवी..!
दर्द से मुक्त होने का सरल मार्ग है ज्ञान के शरण में जाना, ज्ञानियों के शरण में जाना। ज्ञान से भरे ग्रन्थों का अध्ययन करना, जिनके अध्याय धैर्य, निष्ठा, आशा, विश्वास, श्रद्धा आदि के अथाह सागर हैं। गीता में कहा गया है ‘समत्व योग उच्चयते’ अर्थात् समता, समरसता ही योग है, योग का अर्थ है मिलना। योग हमें उस मनःस्थिति से निजात दिलाता है, जो हमें निराशा की ओर ले जाती है।
योग क्या है! जानिए : Know what is yoga !
दर्द है तो दवा भी है..!
वेदना के पंखों का खेल अद्भुत है, वेदना अगर दर्द है तो वेदना में ही दवा भी है। उपचार शारीरिक पीड़ा का भी है और मानसिक तनाव का भी। उपचार के लिए कार्य करना होता है। दवा कहां है, कैसे मिलेगा, खोजना ही पड़ता है। इसके पंखों को फड़फड़ाना ही पड़ता है। और अगर उपचार के प्रकिया को पुरी निष्ठा के साथ निभाया जाय तो पीड़ा से उबरना सरल हो जाता है। धीरे-धीरे सब संभव हो जाता है, परन्तु थोड़ा या ज्यादा समय तक प्रतिक्षा करनी पड़ती है। संशय तब तक है जब तक हम वास्तविक तथ्यों को समझने की कोशिश नहीं करते। जब तक इसका अनुभव नहीं करते।”
स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि “मात्र शाब्दिक ज्ञान विना अनुभव के अंधा है।”
धैर्य रखना जरूरी क्यों है – Dhairya Rakhna Jaruri Kyun Hai
श्रद्धा, धैर्य, विश्वास, उम्मीद ये सिर्फ शब्द नहीं ताकत होती हैं। और जिसने इसे सम्हाल कर रखा उनके जीवन में भी पीड़ा, दुख, दर्द का समावेश होता है, पर उन्हें इसका एहसास नहीं होता। प्रत्येक मनुष्य ईश्वर का संतान है। हमारे भीतर जो ऊर्जा है वह प्राकृतिक है। यही मनुष्य का वास्तविक दशा है, यही सम्पदा है। निम्नांकित कबीर के दोहे पर विचार किजिए। हमें ऐसा मालूम होता है कि इस दोहे में इसी ऊर्जा, इसी दशा को संभालने सीख दी गई है। अगर दशा को नहीं खोया दिशा तो मिलना ही है, यही परमात्मा का नियम है।
कबीर कहते हैं ; जो जाता है जाने दो, जो होता है होने दो। तुम अपनी दशा को यानि अपने धैर्य को, अपने विश्वास को मत जाने दो। केवट का नाव उमड़ते दरिया में बने रहता है तो अनेकों लोग उसपर सवार होने को आ जाते हैं। यदि तुम अपने स्वरुप में बने रहे तो केवट के नाव के तरह अनेकों खुशियां स्वयं तुम तक पहुंच जायगा।
जाना है सो जान दे तेरी दशा न जाय। खेवैया के नाव ज्यूं घने मिलेंगे आय।।