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प्रतिस्पर्धा का अर्थ क्या है? — What Does Competition Mean?

प्रतिस्पर्धा और प्रतिद्वन्दता में अन्तर है !

प्रतिस्पर्धा यानि प्रतियोगिता एक प्रक्रिया है। ऐसी प्रक्रिया जब दो अथवा दो से अधिक व्यक्ति या समूह किसी उद्देश्य की प्राप्ति हेतु प्रयत्नशील होते हैं। किसी भी कार्य में आगे निकलने की चेष्टा हमें प्रतिस्पर्धा की ओर ले जाती है। सफलता के दौड़ में प्रतिस्पर्धा का होना आनिवार्य है।

प्रतिस्पर्धा का महत्व प्रत्येक काल में रहा है और आज भी हर जगह इसका माहौल है। विषेशज्ञों की मानें तो सफल होने के लिए प्रतिस्पर्धा का होना आवश्यक भी है। यह हर किसी को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है। विना प्रतियोगिता के समाज का उत्थान नहीं हो सकता।

प्रतिस्पर्धा जीवन में प्रगति की सीढ़ी होती है, लेकिन इसे हमेशा सकारात्मक होना चाहिए। किसी भी उद्देश्य को पूरा करने के लिए अनैतिक चेष्टा करना हानिकारक होता है। जीवन के हर पहलू में प्रतिस्पर्धा शामिल होता है। परन्तु अकसर देखा जाता रहा है कि आज के दौर में बहुत सारे चीजों को दरकिनार कर दिया जाता है। और मकसद सिर्फ सफलता प्राप्त करना भर रह जाता है। 

लक्ष्य को पाने के लिए प्रतिस्पर्धा जरुरी है, परन्तु ध्यान रहे यह हमेशा स्वस्थ होनी चाहिए।  प्रतिस्पर्धा ना हो तो बेहत्तर करने की उत्कण्ठा पैदा नहीं होती। स्वयं को आगे बढा़ने के लिए दुसरों को नुकसान पहुँचाने की कोशिश सरासर गलत है। सफलता को हासिल करने के फेर में कोई ऐसी गलती न करें, जिसके कारण जीवन भर पछताना पड़े। 

प्रतिस्पर्धा के इस दौर ने विद्यार्थियों के जीवन को भी प्रभावित किया है। शिक्षा से जीवन बनता है, सँवरता है। लेकिन यह तभी संभव है जब शिक्षा का उद्देश्य सही हो। नकारात्मक प्रतिस्पर्धा छात्रों के उन्नति के मार्ग में बाधक बन जाते हैं। माहौल चाहे जैसा भी हो विद्यार्थी को हमेशा सकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़ना चाहिए। जो सार्थक संघर्ष से गुजरते हैं, वास्तव में सफलता उन्हीं को मिलती है।

स्वस्थ प्रतिस्पर्धा सार्थक होता है !

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आज के माहौल में भी शिक्षार्थियों के बीच अगर स्वस्थ पर्तिस्पर्धा देखने को मिले तो मन प्रसन्न हो उठता है। उत्तर भारत का एक प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थान गलगोटिया विश्वविद्यालय के दो शिक्षार्थियों ने इसका एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया है। गौर करने की बात है कि दशमलव अंकों के अन्तर के साथ हाल ही में घोषित स्नातक स्तर के परीक्षा परिणाम में ये दोनो शिक्षार्थी अपने संकाय में पुरे विश्वविद्यालय में अब्बल आये हैं। पुरे तीन साल के पाठ्यक्रम के दौरान दोनों में प्रतिस्पर्धा होती रही। और दोनो एक दुसरे को हर तरह से सहयोग भी करते रहे। इन्होने कभी भी एक दुसरे को प्रतिद्वन्दी के तौर पे नहीं देखा। ये हैं मंजीत कुमार एवम् दिव्या शुक्ला। दोनों के बीच आपसी समझ-बुझ का रिश्ता आज के परिवेश में अणुकरणीय है। दोनो ही जनसंचार के क्षेत्र में एक दुसरे को सहयोग करते हुवे आगे बढ़ रहे हैं।

ज्ञानार्जन हो मुख्य उद्देश्य !

वास्तविक रुप में शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान प्राप्त करना होता है। जो विद्यार्थी केवल जीविका के लिए अध्ययन कर रहे होते हैं, वे जीवन को समझ पाने में कामयाब नहीं होते। अपने वास्तविक स्वरुप में शिक्षा वह है जो शिक्षार्थी को किताबी ज्ञान के अतिरिक्त कुछ नया करने को प्रेरित कर सके। वास्तव में ज्ञान की आकांक्षा रखनेवाला ही शिक्षार्थी होता है। किताबों से जानकारियां हासिल होती ह़ैं, जबकि ज्ञान अन्दर से प्रस्फुटित होता है।

सारी शिक्षा व्यर्थ है, सारे उपदेश व्यर्थ हैं, अगर वे तुम्हें भीतर डुबने की कला नहीं सिखाते। _ ओशो

सफलता को कभी सर पर चढने मत दिजिए !

सफल होने मात्र सम्बन्धित पात्र की योग्यता प्रमाणित अवश्य हो जाती है। परन्तु सफल इसके उपरांत एक नई छवि का निर्माण भी हो जाता है। और इस छवि के सम्मान को बरकरार रख पाना एक चुनौती है। अभिमान रहित होकर योग्यता के स्तर को निरंतर धार देने में तत्पर रहना चाहिए। वास्तव में जीवन में वही सफल हो पाते हैं जो सकारात्मक होते हैं। सफल इंंसान का जीवन-यात्रा आगे चलकर और भी चुनौतीपूर्ण हो जाता है। और प्रत्येक मोड़ पर उसे अपने आपको साबित करना पड़ता है। सबकुछ सुपात्र के पात्रता पर निर्भर करता है।

महान वैज्ञानिक आइंस्टीन जब जीवन के अंतिम पड़ाव में थे, एक सज्जन उनसे मिलने आये। बातों बातों में आगन्तुक ने उनसे पुछ लिया; आपने जीवन में इतनी उपलब्धियां हासिल की ? क्या और भी कुछ करना रह गया है ? महान वैज्ञानिक ने बहुत सरलता के साथ जबाब देते हुवे कहा; मैने जो भी किया वह कुछ भी नहीं हैं। समन्दर के किनारे तक पहुचाँँ था और उसके जल को हाथों से स्पर्श भर किया था। अभी जल के अन्दर उतरना था, तैरना सीखना था, डुबकी लगानी थी। तह तक जाना था और मोतियां निकालनी थी। शरीर ने साथ देना छोड़ दिया और मेंरा कार्य अधुरा रह गया। शायद विधाता को यही मंजुर था। उन्होंने कभी सफलता को खुद पर हावी होने नहीं दिया।

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अंत में एक नजर इधर भी !

खुद को किसी मुकाबले में संलग्न करने से पहले अच्छी तरह से विचार कर लें। याद रखें कौआ कभी बाज से टक्कर नहीं ले सकता। अपनी क्षमताओं को पहचानने और उसे विकसित करने का प्रयास करें। द्वेष के कारण उठाया गया कदम आपको अहंकार से भर देगा। स्वयं को सकारात्मक बनाए रखें, प्रतिस्पर्धा करनी हो तो खुद से करें।

किसी को किसी से प्रतियोगिता करने की जरूरत नहीं है। आप स्वयं में जैसे हैं, एकदम सही है। खुद को स्वीकारिये!

_ओशो

जैसे हैं वैसे ही रहें, क्योंकि ओरिजनल की कीमत डुप्लीकेट से ज्यादा होती है।

_स्वामी तपेश्वरानंद

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