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संतोष क्या है- जानिए

संतोष क्या है ? आइए इस महत्वपूर्ण प्रश्न का हल जानने का प्रयास करते हैं। संतोष एक महती शब्द है, इसका अर्थ है तृप्ति। यह एक अवधारणा है, अगर कोई मनुष्य अपने मन-मस्तिष्क में इसे धारण कर पाता है, तो वह सुखी हो जाता है। संतोष से संतुष्टि मिलती है और संतुष्टि संतुष्ट होने का भाव है, तृप्त होने का भाव है। संतुष्टि से तात्पर्य है कि अपने कार्य से, अपने जीवन से आप कितना संतुष्ट हैं। संतुष्टि मस्तिष्क की उस अवस्था को व्यक्त करता है, जब भीतर से प्रसन्नता का आभाष होता है। सबसे सुखी, सबसे खुश व्यक्ति वही है जो अपने आप से संतुष्ट है।

संतोष ही सुख है: संतोष और सुख दो भिन्न शब्द हैं, और इनके शाब्दिक अर्थ भी भिन्न हैं। परन्तु यह जो उक्ति है, इसका आशय है कि संतोष में ही सुख है। शास्त्रों में तो इससे भी अधिक कहा गया है। शास्त्र कहते हैं कि ‘ संतोषं परमं सौख्यं ‘ अर्थात् संतोष परम सुख है। केवल सुख नहीं परम सुख है, सुख से कहीं अधिक। अगर ऐसा है! तो इस बात को समझना होगा।

संतोष ही सुख है! इसपर विचार करने से पूर्व संतोष और सुख क्या है? इन दोनों शब्दों पर अलग अलग विचार करना जरूरी है।

संतोष का अर्थ:

संतोष का संधि विच्छेद है सम्+तोष! तृप्ति एवम् तुष्टि तोष का समानार्थी शब्द है। इस प्रकार तोष का अर्थ हुवा तृप्त होने का, तुष्ट होने का भाव। जब किसी शब्द विशेष में उपसर्ग सम् जुड़ जाता है तो उस शब्द का महत्व बढ़ जाता है। जैसे सम् एवम् भाव का मेंल है संभाव! यानि हर स्थिति में अपिवर्तित रहनेवाला भाव। संतोष भी मन का भाव है, हर स्थिति में अपिवर्तित रहनेवाला भाव।

निरंतर तुष्ट होने का जो भाव है, वह है संतोष। अब जरा विचार किजिए! क्या कोई हर समय, हर परिस्थिति में तुष्ट रह सकता है? तो इसका उत्तर है, नहीं! यह जो मन है कभी तुष्ट तो कभी रुष्ट होता रहता है। संतोष वह भाव है, जिसे मन में धारण करना पड़ता है। और इसके लिए मन पर नियंत्रण जरूरी है।

मन अगर संतुष्ट हो, मन में अगर संतोष हो तभी वह सुखी हो सकता है। वास्तव में सुख अगर क्षणिक है, तो वह सुख नहीं है। किसी की भी सभी जरुरतें कभी पूरी नहीं हो पाती। मिला तो ठीक और न मिला तो ठीक, ऐसी भावना अगर मन में धारण करने वाला ही सुखी हो सकता है।

सुख का अर्थ:

सुख भी एक मनोभाव है। मन अपनी इच्छाओं के अनुरूप हमारे शरीर को चलाता है। हमारी जो इंद्रियां हैं, मन के मते! अर्थात् मन के कहे अनुसार कार्य करती हैं। मनुष्य तन मनचाहा विषय-वस्तुओं को देखने, सुनने और पाने में लगा रहता है। मनचाहा मिल जाने पर जो भाव मन में उभरता है, उसे सुख समझा जाता है। परन्तु यह जो सुख है, इसका अनुभव अधिक देर तक नहीं हो पाता। मनुष्य की भौतिक जरुरते कभी पूरी नहीं होती। और जो पूरी होती हैं, उनसे प्राप्त सुख क्षणिक होता है। मनुष्य का जो मन है, इसकी कामनाएं अनंत हैं। इस भौतिक संसार की सारी वस्तुएं प्राप्त हो जाएं, तब भी यह मन संतुष्ट नहीं हो पाता।

सुख हो जीवन में हरदम
यह चाहत मन में होती है।
पर चांद की चांदनी से
कितनी रातें रोशन होती हैं
सुख है गर चांदनी तो
दुख अंधेरी रात है।
गर दुख की परवाह न हो
तो जीवन में उल्लास है।
इसी बात को समझाने को
कह गये हैं कवि रहीम।
जो समझो इस मरम को
तो मिटे भाव सब हीन।
चाह गई चिंता मिटी
मनवा बेपरवाह।
जिसे कछु नहिं चाहिए
वो साहन के साह ।।

कवि रहीम ने कहा है कि मन की चाहत जब मिट जाती है। मन में कोई चिंता न हो, न खोने की न पाने की, तो यह मन बेपरवाह हो जाता है। जिसे कुछ भी पाने की चाह नहीं होती, उसे कुछ खोने का डर भी नहीं होता। वैसे लोग तो राजाओं के राजा होते हैं। 

वैसे लोग अपने मन पर राज करते हैं। और मन पर शासन वही कर सकता है, जिसने मन को नियंत्रित कर लिया हो। जिसने अपनी इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर लिया हो। वैसे लोग ही मन में संतोष धारण करने योग्य हो जाते हैं। और वैसे लोग ही वास्तव में सुखी होते हैं।

संतोष ही परम सुख है !

संतोषं परमं सौख्यं संतोषं परममृतम्।
संतोष: परमं पथ्यं संतोष: परमं हितम्।।

संतोष ही सुख है! संतोष परम सुख, संतोष रस का पान अमृत के समान है। परम पथ्य है, अर्थात् अपनाने योग्य अनमोल त्तत्व है एवम् अत्यंक हितकारी है। वास्तव में जिसे हम सुख समझते हैं, वह सुख नहीं है। दुख का विपरीत भाव है, इस सुख की चाहत ही हमारे समस्त दुखों का कारण है। साधारण मन असंतुष्ट ही होता है। तुष्ट कम रुष्ट अधिक होता है।

संतोष परम सुख है, परम अमृत, परम पथ्य और परम हितकारी है। अगर आपके मन में संतोष है, आप संतुष्ट हैं, तो आप आशावादी होते हैं। आशावादी दृष्टिकोण से आप निराशा और चिन्ता से मुक्त हो जाते हैं। आपके सभी दुख मिट जाते हैं, आप शांति से सोते हैं, खुशी खुशी जागते हैं। आप के ह्रदय में प्रेम और करुणा भरी रहती है और आप को असीम शांति का अहसास होता है।

संतोषं परमो लाभ सत्संग परमा गति।
विचार परमं ज्ञानं शमो हि परमं सुखम्।।

यह जीवन में अपनाने योग्य एवम् अत्यंत हितकारी, सुखकारी है। सत्संग से उन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है। जीवन में सद्विचार को अपनाने एवम् चिंतन-मनन से ज्ञान की प्राप्ति होती है। मन में सम्भाव को धारण किए बिना संतोष को धारण नहीं किया जा सकता। जिन्होंने भी इसे जीवन में समता को धारण किया, संतोषी होकर परम सुख को प्राप्त करने में सफल हो गये। परम सुख आत्मा का विषय है। और जिन्होंने इसकी अनुभूति की परमानन्द को प्राप्त होकर मुक्त हो गये। 

असंतोष जहर है!

इसके ठीक विपरीत असंतोष असंतुष्टि का कारण है। असंतोष एक जहर है, जो मनुष्य को दुर्बल बना देता है। अगर असंतोष के भावना को रचनात्मक शक्ति में ना बदला जाए, तो वह खतरनाक भी हो सकती है। जीवन में आगे बढ़ना है, तो मन से असंतोष का भाव को निकालना होगा। अगर असंटुष्ट रहेंगें तो मन में निराशा का भाव रहेगा और आपको जीवन में आगे बढ़ने से रोकेगा।

असंतोष जहर है, असंतुष्ट मन कभी सूखी नहीं हो सकता। जो वास्तव में सुख है, परम सुख है, वह मन का विषय नहीं है। नियंत्रित मन में ही संतोष का भाव उत्पन्न होता है। और संतुष्ट मन जो सुख का अनुभव करता है, वही वास्तव में सुख है। 

हममें से प्रत्येक को खुद पर विचार करना चाहिए, आत्ममंथन करना चाहिए। यह संतुष्टि बाजार में नहीं बिकता है, संतुष्टि और असंतुष्टि दोनो ही आपके अन्दर है। चुनाव आपको करना है, आप जो भी हैं उसका कारण आप स्वयं हैं। आप ही के विचारों से आप स्वयं को प्रेरित करते है या फिर अपने आप को बरबाद कर डालते हैं। जीवन को अगर सुखी बनाना है तो असंतोष रुपी जहर को बाहर निकाल फेंकिए। और संतोष रुपी अमृत को अंदर प्रवेश करने दिजिए।

स्वामी विवेकानंद ने कहा है-  दुर्बलता को न तो आश्रय दो और न तो दुर्बलता को बढ़ावा दो। जो भी चीज तुम्हें कमजोर बनाती है, उन चीजों को जहर समझकर त्याग दो…. तभी तुम उन्नति कर पाओगे।

संतोषी सदा सुखी!

संतोषी सदा सुखी! यह बात अक्सर लोगों के मुंह से सुनने को मिलती हैं। मगर जो बोलते हैं इसे जानते भी हैं क्या? बोलने और जानने में फर्क है। किसी से सुन लिया या किताबों में पढ़ लिया और पकड़ लिया है। तोते की तरह दोहराते जा रहे हैं, “शिकारी आयगा! जाल विछायगा! दाना डालेगा! लोभ में मत फंसना।” परन्तु जब शिकारी आता है तो क्या होता है? हमसे से अधिकांश के साथ यही स्थिति बनी हुई है।

मनिषियों ने इसे तोता रटंत की उपमा दी है। हम इसे दोहराये जा रहे हैं, खासकर तब जब दुसरे को सुनाना हो, खुद को इसका कोई अनुभव नहीं है। अगर हमारे जीवन में संतोष होता, संतोष हमारा धन होता तो हमारे जीवन में रौनक होती। हमारे जीवन में सुख होता, हमारे जीवन में शान्ति होती, प्रसन्नता होती। हमारे आंखों में अंधेरा नहीं होता। ‌

संतोष कहता है जो है वही सार्थक है!

ओशो के शब्दों में; असंतोष की व्यवस्था यह है कि जो मिल गया वही व्यर्थ हो जाता है। सार्थकता तभी तक मालुम पड़ती है जब तक मिले नहीं। जिस स्त्री को तुम चाहते हो जब तक मिली ना तब तक बड़ी सुन्दर! मिल जाये तो सब सौन्दर्य फिका हो जाता है। जिस मकान को तुम चाहते थे, कितनी रात सोये नहीं थे, कैसे कैसे सपने संजोए थे। फिर मिल गया और बात व्यर्थ हो गयी। जो भी हाथ में आता है, आते के साथ व्यर्थ हो जाता है। इस असंतोष को हम दोस्त कहते हैं, यही तो हमारा दुश्मन है, यही तो हमें दौड़ाता है। सिर्फ दौड़ाता है और जब भी कुछ मिल जाता है, मिलते ही व्यर्थ हो जाता है। आप के पास जो भी है, आप जैसे भी हैं, संतुष्ट रहें।

संतषामृतमतृप्तानां यत् सुखम् शान्तचेतसाम्। कुतस्तद्धनलुब्धानाम् मितश्चश्च धावताम्।।

मुश्किलों में भी मुस्कुराना सीखें !

जानकारों का यही कहना है कि जो भी पास हो उसी में संतुष्ट रहने का नाम जीवन है। तो क्या ? जीवन का आशय एक जगह पर रुक जाने से है ? नहीं ! जीवन तो एक निरंतर चलने वाला सफर है। मनुष्य को प्रगतिशील रहना ही चाहिए, लेकिन साथ ही मुश्किलों में भी मुस्कुराना चाहिए। जो मिला है उसमें संतोष करना है। पर, जीवन को सार्थक बनाने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। यह जरूरी नहीं कि आपकी हर इच्छा पूरी हो। मनुष्य को कर्म करते रहना है। परन्तु, फल पर उसका कोई नियंत्रण नहीं होता। 

समय से पहले और भाग्य से ज्यादा किसी को कुछ नहीं मिलता। कर्म किजिए और फल की चिन्ता किए बिना सफलता का प्रतिक्षा किजिए। अगर असफलता मिले तो पुन: सफलता के लिए प्रयास किजिए। आपको जो मिला है या जो मिल रहा है उसपर संतुष्ट रहना चाहिए। ‌आप जो पाना चाहते हैं उसे प्राप्त करने का प्रयास अवश्य करते रहिए। अगर आप असंतुष्ट रहेंगे तो किसी भी काम में आपका मन नहीं लगेगा। और इससे आपका काम भी प्रभावित होगा।

संतोष सबसे बड़ा धन है !

साई इतना दिजिये जामें कुटुम्ब समाय।
मो भी भूखा ना रहूं साधु न भूखा जाय।।

संत कबीर जन सामान्य को मन में संतोष बनाये रखने की सीख देते हैं। उन्होंने कहा है कि हे प्रभु! मुझे बस इतना दे दो, जिससे मैं अपने साथ साथ अपने परिवार जनों का भरन-पोषण कर सकूं। और घर में आनेवाले अतिथियों का, जब तक वो मेंरे सानिध्य में रहें, उनका भी पोषण कर सकूं। कबीर के कहने का आशय यह है कि जीवन जीने के लिए जो जरूरी है, उतनी की इच्छा रखना और उतने के लिए ही कार्य करना चाहिए। 

गोधन गजधन बाजीधन रतनधन खान।
जब आवै संतोष धन सब धन धुरी समान।।

संतोष ही सुख है! संतोष सबसे बड़ा धन है। कबीर कहते हैं कि हाथी, घोड़े, गाय जैसे पशुधन, हीरे-मोती आदि कोई भी धन संपदा का मोल संतोष के समक्ष कुछ भी नहीं है। मन में जब संतोष का प्रादुर्भाव होता है, तो सब धन धूल के समान प्रतीत होने लगते हैं। 

वास्तव में धन वो है, जो मनुष्य को सुख दे सके। भौतिक धन-संपदा अर्जित करने में लगे रहना निरर्थक है। अंततः यह सुख नहीं दुख का कारण बन जाता है। मन की चाहत ही ऐसी है कि उसे हमेशा कुछ चाहिए होता है। यह कभी संतुष्ट नहीं होता। इसे समझाना पड़ता है। और मन में संतोष को धारण करना पड़ता है। यह जो तथ्य है, विचारणीय है।

ज्ञानियों का कहना है कि विचार से ही, चिंतन से ही ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है। संतोषादनुत्तम् सुखराम:’ अर्थात् संतोष से जो सुख मिलता है वह सबसे उत्तम है। प्राचिन काल में ही मनिषियों ने जीवन में संतोष के महत्त्व को समझ लिया था‌। शास्त्रों में संतोष के महत्ता का वर्णन मिलता है।  मनुस्मृति में उल्लेखित यह श्लोक संतोष को धारण करने की सीख देता है।

संतोषं परमस्थाय सुखार्थी संयतो भवेत्।
संतोष मूलं हि सुखं दुखमूलं विपर्यय:।।

अर्थात् सुख की इच्छा करने वाला व्यक्ति परम संतोष का धारण करके संयमित जीवन व्यतीत करे। क्योंकी संतोष ही सुख का मूल है और उसके विपरीत असंतोष दुख का कारण है।

भगवान बुद्ध ने कहा है; “स्वास्थ्य सबसे बड़ा उपहार है! संतोष सबसे बड़ा धन है और वफादारी सबसे बड़ा सम्बंध

संतोष सबसे बड़ा धन है! संतोष खुशी देता है और शान्ति का अहसास कराता है ! संतोष के विना मनुष्य निराशावादी हो जाता है और खुद को कोसता रहता है। अपनी इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए कार्यरत रहें। और अपनी गुणवत्ता के स्तर को सुधारने के लिए प्रयासरत रहें। बेकार की बातों के विषय में सोच कर अपनी मानसिक शक्ति व्यर्थ ना करें। क्योंकि असंतुष्टि से किसी का भला नहीं हुआ है। मन में संतुष्टि के भाव के साथ आप अपने कर्म में लगे रहें।

9 thoughts on “संतोष क्या है- जानिए”

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  8. रणजीत सिंह

    संतोष की व्याख्या बहुत ही सटीक शब्दों में दी है शास्त्रों और महापुरुषों के वचन लेकर सुन्दर व्याख्या की है अति प्रेरक। ……..

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