Adhyatmpedia

सांची कहे कबीरा ..!

सांची कहे कबीरा! अर्थात् कबीरदास ने जो कहा है, सच कहा है। ज्ञानीजन सच की ओर इशारा करते हैं! उनकी जो बातें हैं, वास्तव में उनके अनुभव हैं। परन्तु वे किसी के ऊपर अपने विचारों को थोपते नहीं। ऐसा इसलिए कि लोग स्वयं इन बातों पर विचार करें। और हो सके तो इन बातों से सीख ले सकें! 

हम जो करते हैं, अपने विचारों के अनुसार करते हैं। और अगर हमसे कुछ गलत हो जाए, तो पछतावा भी करते हैं। और कुछ अच्छा हो जाए, तो सुकून भी मिलता है। यह जो पश्चाताप का भाव उभरता है मन में, यह सुकून का अभाव है। हम जो भी करते हैं, सुकून के लिए, खुशी के लिए ही करते हैं। हमारा मन हमेशा खुशी को खोजता रहता है। और अगर न मिले तो किए पर पछताने लगता है।

करता था सो क्यों किया अब कर क्यों पछताय।

वोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से खाय।।

सांची कहे कबीरा! कबीरदास ने सच ही कहा है; जो आप कर रहे थे अथवा आपने जो किया वह क्यों किया? और अब पछताने से क्या होगा! बबूल के पेड़ में आम नहीं फलता,  बबूल का पेड़ वोये हो तो आम कहां से खावोगे। 

एक समय की बात है, किसी को कुछ किसी को कुछ देने के लिए लोग ईश्वर को कोस रहे थे। एक दार्शनिक यह सुन रहे थे। उन्होंने उन लोगों को साथ मिलकर  खेतों की ओर चलने को कहा। सबने यह देखा कि एक खेत में गुलाब बोया था और एक दुसरे खेत में तम्बाकू के पौधे लगे थे। एक से सुगन्ध आ रही थी, वही दुसरे से दुर्गंध! दार्शनिक ने कहा; जमीन बुरी है! किसी को कुछ देती है और किसी को कुछ!  इसपर लोगों ने कहा; नहीं इसमें जमीन का कोई दोष नहीं है, बोनेवाले के कर्मों का फल है। दार्शनिक ने मुस्कराते हुए कहा; ईश्वर भी इस सृष्टि का एक विशिष्ट प्रकार का खेत है!!

विना विचारे जो करे सो पाछे पछताय।

काम विगाड़ै आपनो जग में होत हंसाय।।

कवि गिरधर का इशारा है कि कुछ भी करने से पहले विचार करना चाहिए। दोहे का सामान्य अर्थ है कि वगैर विचारे किए का जब अपेक्षित परिणाम नहीं मिलता है तो सबकुछ बेकार लगने लगता है। ऐसे में हमें पछताना पड़ता है, और ऐसा कर हम हंसी के पात्र बन जाते हैं।

अब जरा पोटली को खोलिए! तो इशारा कार्य की प्रकृति पर है। विचार करना चाहिए! हम जो कर रहे हैं अथवा जो करने की सोच रहे हैं, उस कार्य की प्रकृति क्या है? उस कार्य को करने का परिणाम क्या हो सकता है? हांलांकि परिणाम पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं होता। परन्तु किसी भी कार्य का परिणाम उस कार्य की प्रकृति के अनुसार ही मिलता है। 

यह विचार करना चाहिए कि हम जो कर रहे हैं क्यों कर रहे हैं? कुछ तो चाहिए! कुछ तो मंशा रही होगी, उस कार्य को करने के पीछे। धन-सम्पति के लिए, पद-प्रतिष्ठा के लिए अथवा खुश रहने के लिए। आखिर हम जो करते हैं, क्यों करते हैं?

धन मिल गया, पद, प्रतिष्ठा सब मिल गया, लेकिन खुशी नहीं मिली। धन मिल गया, पद -प्रतीष्ठा मिल गया तो यह बना रहे। बहुत मुश्किल से मिला है, तो उसी के पीछे पड़ गए। कहीं खो न जाए, और इस चक्कर में खुशी कहीं खो गयी। जो चाहिए, वह तो मिला ही नहीं। इसलिए जब शरीर थक जाता है, तो पछतावा है कि जो किया वह क्यों किया?

पछतावा तो सिकन्दर को भी हुवा था। दुनिया को जीतने वाला सिकंदर अपने अहंकार को न जीत सका। लेकिन जब उसे इस बात का अनुभव हुवा। तो वक्त उसके हाथ से निकल चूका था। पछतावा अशोक को भी हुवा था। परन्तु समय रहते उसे इस बात का अनुभव हो गया। और हिंसा का परित्याग कर दिया। वह अपने अहंकार पर विजय पाने में सफल हो गया। दुनिया सिकंदर को महान कहती है, परन्तु सम्राट तो अशोक को ही कहा जाता है। सांसारिकता में खुशी खोजने वाले को अंत समय में पछताना ही पड़ता है।

प्रेम ना बाड़ी उपजै प्रेम न हाट बिकाय।

राजा रंक जेही रुचै शीश दिए ले जाय।।

सांची कहे कबीरा! जहां अहंकार है, वहां पछतावा भी है। जहां प्रेम है, वहीं खुशी है। मन का मूल स्वभाव है, वह है प्रेम करना, खुश रहना। उसी की खोज है, लेकिन यह प्रेम हाट-बाजार में नहीं मिलता, खेतों में नहीं उपजता। इसके लिए अहंकार को मिटाना पड़ता है। यहां शीश अहंकार का प्रतीक है। मन के ऊपरी सतह पर अहंकार का जो परत जमा है, उसे हटाना पड़ता है। और इसके लिए निरंतर अभ्यास करना पड़ता है, प्रेम करना सीखना पड़ता है।

प्रेम में पछतावा नहीं है। प्रेम करनेवालों को पछताना पड़ा हो, ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता। प्रेम देना जानता है, लेना नहीं। और जिसे किसी से कुछ नहीं चाहिए, उसे किसी बात लेकर पछतावा भी नहीं होता। प्रेम होता नहीं, करना पड़ता है, सीखना पड़ता है। जिसे हम प्रेम समझते हैं, वह वासना है। और वासना का जन्म कामना से होता है।  

स्वामी विवेकानंद जी कहते हैं; हमें उत्तम बनने के लिए अभ्यास करना चाहिए। अभ्यास चीजों को आसान बना देता है, अभ्यास हमें वो बनाएगा जो हम बनना चाहते हैं। अभ्यास बिल्कुल जरूरी है।

अगर हम चाहते हैं कि जीवन में हमें कभी पछताना न पड़े। तो प्रेम पूर्वक जीना सीखना होगा। और इसके लिए निरंतर अभ्यास करना होगा। ऐसा नहीं कि हम कोशिश नहीं करते। लेकिन यह जो कोशिश होता है, निरंतर नहीं होता। सांसारिक जीवन के व्यस्ताओं के कारण हम ऐसा नहीं कर पाते। अतः: यदा कदा किया हमारा प्रयास विफल हो जाता है।

कबीर यह मन लालची समझै नाहि गंवार।

भजन करन को आलसी खाने को तैयार ।।

सांची कहे कबीरा! यह जो मन है हमारा! हमेशा सांसारिक सुखों को भोगने में ही लगा रहता है। और ज्ञान की बातों को समझने का प्रयास नहीं करता। जैसे एक मुर्ख की भांति! समझने का प्रयास ही नहीं करता। यह मन भजन-भक्ति में आलसी बना रहता है, परन्तु भोजन के लिए हमेशा तैयार रहता है। अज्ञानता के कारण अहंकार से मुक्त नहीं हो पाता। यही कारण है कि, जीवन के अंत समय जब निकट आता है, तो पछताना पड़ता है। क्योंकि जिस चीज की खोज थी, वह तो मिला नहीं। 

सांची कहे कबीरा! कबीर की कही बातें साधारण को सच की ओर इशारा करते हैं। परन्तु साधारण को उनकी बातें पहेली लगती हैं। ऐसा इसलिए कि साधारण मन अपने ही विचारों में खोया रहता है। संत कबीर ऐसे ज्ञानी हुवे, जो बोलचाल की भाषा में ज्ञान की पोटली दे गये। जरुरत इस पोटली के गांठों को खोलने की है। तभी यह ज्ञात हो सकता है कि सच क्या है?

1 thought on “सांची कहे कबीरा ..!”

  1. Pingback: ईश्वर क्या है जानिए... - AdhyatmaPedia

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *