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ईश्वर क्या है जानिए…

ईश्वर क्या है!! एक कल्पना, अवधारणा अथवा सच में ईश्वर का अस्तित्व है। यह जो शब्द है, इस शब्द का अर्थ हमेशा से खोज का विषय रहा है। संसार में ईश्वर को माननेवाले और नहीं माननेवाले दोनों ही तरह के लोग मौजूद रहे हैं। यह एक ऐसा विषय है, जिसके संबंध में हमेशा से ही संदेह की स्थिति रही है। इस शब्द में संदेह की जितनी प्रबलता है, विश्वास की भी उतनी ही संभावना है।

सामान्यतः ईश्वर को नहीं माननेवालों को नास्तिक और इन्हें माननेवालों को आस्तिक कहा जाता है। इस संबंध में आस्तिक एवम् नास्तिक दोनों ही तरह के लोगों के अपने अपने तर्क हैं। 

नास्तिकों का मानना है कि ईश्वर के अस्तित्व का कोई प्रमाण नहीं है। जगत एवम् जीव की उत्पति, पालन एवम् विनाश की अवधारणा को नास्तिक स्वीकार नहीं करते। उनके मतानुसार धर्मग्रंथों में वर्णित तथ्य कल्पना पर आधारित हैं और भ्रम की स्थिति उत्पन्न करते हैं। उनके मतानुसार ब्रम्हांड के सारे नियमों को विज्ञान के द्वारा समझा जा सकता है।

परन्तु जहां तक बात विज्ञान की है, अब तक इस विषय पर आश्वस्त नहीं हो सका है। विज्ञान अभी तक यह प्रमाणित नहीं कर सका है कि ईश्वर है अथवा नहीं। अब तक वह ब्रम्हांड के रहस्य को जानने में लगा हुआ है।

जबकि आस्तिक यह मानते हैं कि इस ब्रम्हांड को संचालित करनेवाला कोई तो है! परन्तु इसे जान पाना इतना आसान नहीं है। ईश्वर रहस्यों से भरा है, अनंत और अविनाशी है। उसे तर्क या विज्ञान के द्वारा नहीं जाना जा सकता। कोई तो अवश्य है, जो समस्त संसार को संचालित कर रहा है।

ईश्वर क्या है ! कल्पना या सत्य ..!

ज्यों तिल माहि तेल है ज्यों चकमक में आग।
तेरा साईं तुझमें है जाग सके तो जाग।।

संत कबीर के इस दोहे का भावार्थ है कि जिस प्रकार तिल के दाने में तेल छिपा होता है। चकमक जो एक प्रकार का पत्थर है, उसके भीतर आग निहित है। ना तेल दिखता है तिल में और ना ही आग दिखाई पड़ता है, जो चकमक में है। ठीक उसी प्रकार ईश्वर तुम्हारे भीतर मौजूद है। दिखाई नहीं देता, पर मौजूद है। 

तिल को पीसने से तेल निकलता है, और पत्थर को घिसने से आग। अगर जाग सको तो जागो उस मदहोशी से, उस भ्रम से जिसमें तुम पड़े हो। पर यह जो जागने की क्रिया है, बहुत कठिन है। भीतर मन की गहराइयों में उतरकर झांकना अत्यंत कठिन है। इसलिए जो मौजूद है भीतर, वह दिखाई नहीं पड़ता।

संदेह के कारण मन में दुविधा की स्थिति होती है! सामान्य अवस्था में हम ईश्वर का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं कर पाते। हम वही देखते हैं जो इंन्दियां हमें दिखाती हैं। जो मौजूद हैं, पर छिपा हुआ है भीतर, उसे हम देख नहीं पाते। अतः संदेह उपस्थित होता है, अल्पज्ञान की धुंध में हमें चीजें उनके सही स्वरुप में दिखाई नहीं पड़ती। फलस्वरूप हमारा मन उन चीजों के प्रति कोई स्पष्ट विचार नहीं बना पाता है। परन्तु हमें यह समझना होगा कि यह जो संदेह है,  इसका आशय अविश्वास करना नहीं है, यह विश्वास की ओर आगे बढंने की जिज्ञासा है। विश्वास संदेह से ऊपर की अवस्था है ! विश्वास निसंदेह होने की अवस्था है।

आखिर वह कौन है जो इस जगत को संचालित कर रहा है। वह कौन है जो हमें चला रहा है, हमारी जो सांसे चल रही है, कौन है जो इसे चला रहा है। कोई तो है! परन्तु इसे जान पाना इतना आसान नहीं है। क्योंकि यह अपने आप में एक रहस्य है। और यह जो रहस्य है, अगर जान गये तो यह भी जान पायेंगे कि ईश्वर क्या है!!

ईश्वर एक कल्पना नहीं है, सत्य है! ईश्वर अनुभव का विषय है। ईश्वर की अनुभूति तो तब होगी, जब हम इसकी सत्ता पर विश्वास कर पाएंगे। संदेह उस तथ्य तक पहुंचने का एक मार्ग है, जिसपर चलकर किसी पर विश्वास किया जा सकता है। संदेह के विषय में आचार्य चाणक्य ने कहा है कि ‘संदेह सोने की शुद्धता पर किया जाता है, कोयले की कालिख पर नहीं।’ कोयले की कालिमा तो सबको दिखाई पड़ती है, पर सोने की नहीं। सोने को शुद्ध स्वरूप में देखना हो तो इसके लिए प्रयत्न करने पड़ते हैं।

जहां बाज बासा करै पंछी रहे न और।
जा घट प्रेम प्रगट भया नाहि करम की थौर।।

कबीर कहते हैं कि जिस वृक्ष पर बाज का बसेरा होता है, वहां कोई और पंक्षी नहीं ठहर सकता। जिस शरीर में प्रेम प्रगट हो जाता है, उस शरीर में संशय,क्रोध, मोह, अहंकार जैसे अवगुण ठहर नहीं पाते। यह जो अवस्था है, आत्मज्ञान की अवस्था है। इस अवस्था को जो प्राप्त कर पाता है, ईश्वर की अनुभूति उसे ही होती है।

जब मैं था तो हरि नहीं अब हरि है मैं नाही।
प्रेम गली अति सांकरी जामें दो ना समाही।।

कबीर के कहने का आशय हैं कि मन में जब तक अहंकार है,  तब तक ईश्वर की अनुभूति नहीं हो सकती। ईश्वर को अगर जानना हो, तो इसके लिए अहंकार का विसर्जन करना होगा। यह जो प्रेम की गली है, बहुत ही पतली है। इसमें केवल एक ही समा सकता है, यहां अहंकार के लिए कोई जगह नहीं है। और ईश्वर को प्रेम के पथ पर अग्रसर होकर ही जाना जा सकता है।

एक बात है, जो स्पष्ट है कि ईश्वर को तर्क से नहीं जाना जा सकता। संसार में उपलब्ध सभी शास्त्रों का अध्ययन कर लो, फिर भी ईश्वर को जान पाना सरल नहीं है। हां इससे थोड़ी बहुत तार्किक बुद्धि का विकास अवश्य हो सकता है। परन्तु इस विषय पर संशय ही बना रहेगा, क्योंकि इसके कारण भी मौजूद हैं। संसार में जितने भी संगठित धर्म हैं, जो अब तक अस्तित्व में हैं, वे सभी एक दुसरे के मतों का खंडन करने में लगे हैं। परन्तु एक तथ्य है, जहां सभी संगठित धर्मों की मान्यताएं एक समान प्रतीत होती हैं। सभी संगठित धर्मों में ऐसी मान्यता है कि उनके प्रवर्तकों ने मन की ऐसी अवस्था को प्राप्त किया था, जहां उन्हें ईश्वरीय शक्ति की अनुभूति हुवी थी। 

स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में – “सभी धर्मों ने एक अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्धांत प्रतिपादित किया कि मनुष्य का मन कुछ खास क्षणों में इन्द्रियों के सीमाओं के ही नहीं, बुद्धि की शक्ति के भी परे पहुंच जाता है। उस अवस्था में वह उन तथ्यों का साक्षात्कार करता है, जिनका ज्ञान न कभी इन्द्रियों से हो सकता था और न ही चिंतन से ही। ये तथ्य ही संसार के सभी धर्मों के आधार हैं। निश्चय ही हमें इन तथ्यों में संदेह करने का अधिकार है। पर संसार के सभी वर्तमान धर्मों का दावा है कि मन को ऐसी कुछ अद्भुत शक्तियां प्राप्त हैं, जिनसे वह इंद्रिय तथा बौद्धिक अवस्था का अतिक्रमण कर जाता है। और उसकी इस शक्ति को वे तथ्य के रूप में मानते हैं।”

स्वामी विवेकानन्द का कथन है कि “ईश्वर के संबंध में हमारी धारणा हमारी अपनी प्रतिछाया है।” उन्होंने यह भी कहा है कि  “आत्मानुभूति ही वस्तुत: धर्म है।” आत्मानुभूति! अर्थात् आत्मा की अनुभूति, आत्मा के शुद्ध स्वरूप को जानना। अगर प्रयास हो और ऐसा घटित हो गया जीवन में, तो समझो जान गये ईश्वर को। अगर ऐसा हो गया तो मन अज्ञानता के बंधनों से मुक्त हो जाता है। फिर कोई भ्रम नहीं रह जाता, कोई संदेह नहीं रह जाता। परन्तु मन को नियंत्रित किए विना ऐसा घटित होना असंभव है। इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए मन की प्रकृति को साधना पड़ता है। 

प्रथम: तो ईश्वर की अवधारणा को सच मान कर चलना ही होगा। अगर संदेह है मन में तो विश्वास की ओर बढना ही होगा। विश्वास से ऊपर की जो अवस्था है, वह है श्रद्धा। ईश्वर को जानने के लिए मन में श्रद्धा का होना महत्वपूर्ण है। श्रद्धा में अविश्वास का कोई स्थान नहीं होता। श्रद्धा में अंधविश्वास भी नहीं है, यह प्रबल विश्वास की अवस्था है। कर्म, ज्ञान, उपासना, भक्ति सभी क्षेत्रों में श्रद्धा की प्रधानता होती है। 

मन में अगर संदेह है और श्रद्धा का हम दिखावा करें तो यह स्थिति दुविधा की है। हाथ जोड़े खड़े हैं मंदिर में, और मन में संदेह भरा है कि सामने जो मुर्ति है, उसमें ईश्वर की शक्ति है भी या नहीं। तो फिर कैसी है यह पूजा, यह किस प्रकार की भक्ति है, कैसी श्रद्धा है। संशयात्मक बुद्धि के साथ प्रार्थना अथवा उपासना का कोई अर्थ नहीं है। उपासना में, भक्ति में श्रद्धा हो, तभी ईश्वर की अनुभूति की जा सकती है।

वैसे कार्य-वयवहार में सामान्यतः एक बात है, जो प्रायः सबके साथ लागू होता है। जब कोई संकट में हो, उसे उस स्थिति से निकलने का कोई मार्ग नजर नहीं आता है तो कोई याद आता है। कभी ऐसा भी होता है कि हम ऐसी स्थिति से अनायास बाहर निकल जाते हैं। अचानक कभी कोई आकर हमें सहायता कर जाता है, जिसे हम जानते तक नहीं। जीवन में कभी कुछ अच्छा हो जाता है, जिसके लिए कोई प्रयत्न ही नहीं हुआ हो। कभी किसी को स्वप्न में अलौकिक शक्ति अथवा दृश्य की अनुभूति हो जाती है। बहुत ऐसी घटनाएं हैं, जो हमारे जीवन में घटती हैं, जिनके विषय में हम कुछ भी नहीं जानते। जीवन में सबकुछ अनिश्चित है, केवल एक घटना है जो निश्चित है, वह है मृत्यु। परन्तु यह भी कब घटेगा कोई नहीं जानता। यह जो जीवन है, अपने आप में एक रहस्य है। यह समस्त सृष्टि एक रहस्य है।

अगर जानना है ईश्वर को तो योग के मार्ग पर चलना होगा। मनुष्य के मन की जो प्रकृति है, अत्यंत चंचल है। इन्द्रियों के माध्यम से वह सांसारिक विषयों में लगा रहता है। अज्ञानता के कारण मन सांसारिक विषयों के प्रति आसक्त हो जाता है। यही कारण है कि आत्मा बंधन की अवस्था में चली जाती है। और यह जो बंधन है, इससे मुक्ति पाना योग से ही संभव है। योग आत्मा को बंधन से मुक्त कर उसे परमात्मा की ओर उन्मुख करता है। जो मनुष्य ईश्वर के विषय में जानना चाहता है। इस परम ज्ञान का मार्गी होना चाहता है, उसे शरीर, इन्द्रियों एवम् मन पर नियंत्रण करना ही पड़ेगा। 

स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि “ईश्वर को तर्क के आधार पर नहीं जाना जा सकता। जिसने सभी तरह के धर्मशास्त्र और समाजशास्त्र का अध्ययन किया है अथवा जिसमें थोड़ी बहुत तार्किक बुद्धि का विकास हो गया है, वह ईश्वर के मामले में या तो संशय की स्थिति में रहेगा या पूर्णतः यह कहेगा कि ईश्वर का होना एक भ्रम है।”

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