सामान्यतः जब शुन्य शब्द की चर्चा होती है तो मस्तिष्क में एक प्रतीक चिन्ह अंग्रेजी लिपी में ‘0’ एवम् हिन्दी में ‘०’ के रुप में उभरकर सामने आता है। इस चिन्ह का उपयोग गणितीय शास्त्र में किया जाता है। शुन्य (zero) एक अंक है जो आधुनिक गणितीय पद्धतियों में सर्वमान्य प्रतीक है।
आधुनिक शुन्य की विचारधारा को संपूर्ण विश्व में स्थापित करने का श्रेय भारतीय मनीषियों को जाता है। आधुनिक शुन्य का जनक भारतीय मनीषी आर्यभट्ट को माना जाता है। पांचवीं शताब्दी में आर्यभट्ट ने अंको की नयी पद्धति से दुनिया को अवगत कराया था। आर्यभट्ट का मानना था कि एक ऐसी संख्या होना जरूरी है जो दस संख्याओं के प्रतीक के रुप में दस को व्यक्त कर सकें। उन्होंने अपने ग्रन्थ ‘आर्यभटीय’ में एक से अरब तक की संख्याओं को बताकर लिखा है। उन्होंने शुन्य का प्रयोग दशमलव प्रणाली में किया है।
इससे पूर्व गणितीय गणना में एक से लेकर नौ तक यानि केवल नौ अंको का उपयोग किया जाता था। हांलांकि लोगों को एक ऐसी संख्या का आभाष था जिसका कोई महत्व नहीं है। प्राचीन संस्कृतियों में उस स्थान को निर्दिष्ट करने के लिए किसी न किसी प्रकार का चिन्ह का प्रयोग किया जाता होगा, जहां कोई संख्या नहीं आती।
प्राचीन भारतीय शास्त्रों में दस दिशाओं का वर्णन मिलता है। रामायण काल में रावण को दशानन भी कहा गया है, अर्थात् वह दस सिरों वाला था। महाभारत काल में धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों का उल्लेख मिलता है। इससे इस बात की पुष्टि होती है कि दस और सौ की गणना का कोई तो आधार अवश्य रहा होगा। या तो नौ (९) के बाद के अंक दस की गणना के लिए नौ (९) में एक (१) को जोड़ दिया जाता होगा, अथवा इसके लिए किसी चिन्ह का प्रयोग किया जाता होगा। परन्तु अलग-अलग संस्कृतियों में इस रिक्तता को निर्धारित करने के लिए किसी एक विधि को मान्यता नहीं मिली थी।
युनानियों ने भी आधुनिक शुन्य के सदृश एक गोलाकार आकृति का प्रयोग किया था। परन्तु आर्यभट्ट के गणितीय सिद्धांत से पूर्व शुन्य के प्रयोग को लेकर असमंजस की स्थिति थी। चौंथी शताब्दी के प्रसिद्ध युनानी दार्शनिक अरस्तु ने शुन्य के विचारधारा को अमान्य घोषित करने पर जोर दिया था। क्योंकि जब अन्य संख्याओं से शुन्य को विभाजित करने का प्रयास किया जाता है , तो कुछ भी नहीं मिलता।
सातवीं शताब्दी में गणितज्ञ ब्रम्हगुप्त ने अपने ग्रन्थ ‘ब्रम्हस्फुट सिद्धांत’ में शुन्य की व्याख्या ‘अ – अ = ०’ (शुन्य) के रुप में की है। ब्रह्मगुप्त ने प्रतीकों एवम् सिद्धांतों के आधार पर इसे प्रस्तुत किया। धराचार्य ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि यदि किसी संख्या में शुन्य को जोड़ दें तो उस संख्या में कोई परिवर्तन नहीं होता। और यदि किसी संख्या को शुन्य से गुणा करते हैं तो गुणनफल शुन्य ही आता है। बारहवीं शताब्दी में भास्कराचार्य ने शुन्य द्वारा भाग देने से पर्याप्त परिणाम को अनंत की संज्ञा दी। इसके अलावा उन्होंने यह भी बताया कि अनंत (infinity) संख्या में से कुछ घटाने अथवा जोड़ने पर कुछ प्राप्त नहीं होता है।
शुन्य की महिमा अपरम्पार है।
केवल शुन्य ही एकमात्र संख्या है जो वास्तविक भी है और काल्पनिक भी है! धनात्मक भी है एवम् ऋणात्मक भी है! शुन्य एक ऐसी संख्या है जो स्वयं में कुछ भी नहीं है, रिक्त है फिर भी पूर्ण है।
कहा जाता है कि सर्वप्रथम एक भारतीय विद्वान पिंगला ने द्विआधारी पद्धति की परिकल्पना की थी। उन्होंने ही सर्वप्रथम ‘कुछ नहीं’ को व्यक्त करने के लिए एक संस्कृत शब्द ‘शुन्य’ का प्रयोग किया था। जैसा कि उल्लेख किया जा चूका है, बाद के दिनों में इसे एक गोलाकार आकृति में निर्दिष्ट किया जाने लगा। शुन्य भारत का एक महत्वपूर्ण खोज है, जिसने गणित को एक नई दिशा प्रदान किया और इसे अधिक सरल एवम् उपयोगी बना दिया।
आज के तकनीकी युग में कम्प्यूटर जैसी उत्कृष्ट यन्त्र के गणना अथवा कार्य करने का आधार ही द्विआधारी पद्धति है। द्विआधारी पद्धति में केवल दो संख्याओं शुन्य ‘0’ एवम् एक ‘1’ का उपयोग किया जाता है। इन दोनों संख्याओं को बीट (bit) कहा जाता है। आठ बीट के अलग अलग समुच्चयों की एक श्रृंखला बनायी गई है, जो बाइट्स (bytes) कहलाते हैं। अंग्रेजी वर्णमाला के सभी अक्षर, अन्य सभी अंक एवम् प्रयोग में आने वाले सभी प्रतीक चिन्ह एक बाइट (byte) के बराबर होते हैं।
कम्युटर एक यंत्र है। इसकी भांति मनुष्य का जीवन भी द्विआधारी है। फर्क सिर्फ इतना है कि मनुष्य में संवेदना होती है, जो इस यंत्र में नहीं है। इसलिए गणित के संदर्भ में और जीवन के संदर्भ में शुन्य के अर्थ बदल जाते हैं।
दार्शनिक दृष्टि से विचार करें तो शुन्य (zero) रिक्तता का भाव है। सामान्यतः रिक्तता , खालीपन , सुनापन के भाव को व्यक्त करने के लिए इस शब्द का प्रयोग किया जाता है। जैसे भाव शुन्य, विचार शुन्य हो जाना आदि। भारतीय दर्शनिकों के अनुसार शुन्य का संबंध अनंत से है। यह रिक्त है, कुछ भी नहीं है, परन्तु शुन्य ही सबकुछ है।
भावनाओं , विचारों का संबंध मन से है। मन में भावनाओं का लहर उठता रहता है। विचारों का प्रवाह चलता रहता है। मन जब विचारों से भरा होता है तो उसे शुन्यता का अनुभव नहीं हो पाता। जब मन रिक्त हो जाता है, भावना शुन्य हो जाता है तो शांत हो जाता है, स्थिर हो जाता है। और मन जब रिक्त हो जाता है तो अनंत का अनुभव होना संभव हो जाता है।
आधुनिक समय के विचारक ‘ओशो’ के एक प्रवचन में कहे गए बातों का उल्लेख करना चाहूंगा। यह इसलिए कि उनके कहे वाक्यों पर विचार करने पर शुन्य के भाव को, इसके अर्थ एवम् महत्व को समझने में सहायता मिलेगी।
ओशो के कथनानुसार: मनुष्य के व्यक्तित्व को दो आयामों में बांटा जा सकता है। एक आयाम हैं बीइंग ( being) का, अर्थात् होने का! और दुसरा आयाम है डुइंग (doing) का, अर्थात् करने का। एक तो मैं हूं और एक मेंरा वो जगत है, जहां से कुछ करता हूं। लेकिन ध्यान रहे करने से पहले होना जरूरी है। और यह भी ध्यान रहे सब करना, होने से निकलता है। करना से होना नहीं निकलता। करने से पहले मेंरा होना जरूरी है। लेकिन मेंरे होने से पहले करना जरूरी नहीं है।
मन की एक बड़ी शक्ति है भाव। लेकिन शक्ति बाहर जाने के लिए उपयोगी है, भीतर जाने के लिए बाधा। भाव के बड़े उपयोग हैं लेकिन दुरूपयोग भी हैं।
Osho
मन की चंचलता, भाव की प्रबलता (परिधि) और मन की स्थिरता, भाव की रिक्तता (शुन्यता) को ओशो एक उदाहरण से समझाते हैं। ओशो कहते हैं: ऐसा समझिये सागर पर बहुत लहरें हैं, सतह पर बहुत हलचल है। लहरें उठती हैं, गिरती हैं। यह लहरों का फैला हुवा जाल है। सागर सतह पर बड़ा कार्यरत है, लेकिन नीचे उतरें तो सन्नाटा है। और नीचे उतरें तो बिल्कुल सन्नाटा है। और नीचे जायं तो कोई लहर नहीं, कोई हलचल नहीं, बिल्कुल चुप्पी है। सागर के लहरों के नीचे सागर का होना है। होना गहरे में है! कर्म का जाल ऊपर परिधि पर है। प्रत्येक व्यक्ति के परिधि पर कर्म का जाल है। और प्रत्येक व्यक्ति के केन्द्र पर होने का सागर है।
ओशो कहते हैं: कर्म जो है वह परिधि है, अस्तित्व जो है वह केन्द्र है। अस्तित्व आत्मा है, कर्म हमारा जगत के साथ संबंध है।
Osho
ओशो जो कह गये हैं, इसे शुन्य के परिप्रेक्ष्य में विचार करके देखें तो यह आकृति ‘0’ चारों ओर एक परिधि से घिरा हुआ है। यह परिधि को अंको की श्रंखला समझिये, यही गणितीय जगत है। सारा जोड़-घटाव, गुणा-भाग, समस्त कर्म के सुत्र इसी परिधि में सिमटी हुई है। भीतर रिक्त है, भीतर जो आत्मा है वह दिखता नहीं है। लेकिन उसके होने में ही बीइंग (being) है। जो रिक्त है वही जीवन का अस्तित्व है। उसके होने से ही डुइंग (doing) की परिधि है। यह जो परिधि है मन की आवृति है। जब तक कोई डुइंग में है, जो सांसारिक जगत के कर्मों में लिप्त है, इस बीइंग(bring) का आभास उसे नहीं होता। जब मन की आवृति छंट जाती है। जब वह विकार विहीन, भाव शुन्य हो जाता है तो भीतर के शुन्य का आभास होता है, जो कि अनंत है। शुन्य कुछ नहीं है, परन्तु शुन्य से ही अस्तित्व है, इसी से सबकुछ है। अंको का गणित हो या जीवन का गणित, शुन्य की महिमा अपरम्पार है।
Power of zero : Zero is nothing but zero is something and zero is everything..!
Swami Vivekananda