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स्वयं की खोज का उद्देश्य —

Swayam ki khoj

सामान्य शब्दों में स्वयं की खोज का आशय स्वयं को खोजने से है। खोज का सामान्य अर्थ है, किसी छिपी हुवी, खोयी हुवी अथवा अदृश्य वस्तु को ढ़ूंढने की अवस्था। इसका तात्पर्य किसी विषय में उलझकर, विचार मंथन कर निदान ढ़ूंढने के भाव से है। जब कोई कुछ ढ़ूढ़ रहा होता है, तो इस क्रिया को खोजना समझा जाता है। वैज्ञानिक संदर्भ में इसे अनुसंधान, शोध, आविष्कार कहा जाता है।

स्वयं की खोज का अर्थ !

दार्शनिक संदर्भ में खोज का आशय ज्ञान को, सुख-शांति को ढूंढने से है। उनके अनुसार यह जो ज्ञान है, सबके भीतर मौजूद है। इसे खोजना स्वयं की खोज है और इसके लिए स्वयं की यात्रा करनी होती है।

सामान्य व्यक्ति अपने जीवन में कुछ ना कुछ खोज रहा होता है। हर कोई कार्य करता है यदि उसे कुछ मिलने की संभावना हो। जब तक उसका शरीर क्रियाशील रहता है, वह जीवन भर भाग-दौड़ में लगा रहता है।  परन्तु वह अपने प्रत्येक कृत्य में क्या खोज रहा होता है? इस प्रश्न का यही उतर है, केवल सुख! वह हर विषय में, हर वस्तु में, हर कृत्य में सुख की खोज कर रहा होता है। और विडम्बना यह है कि वह जो खोज रहा होता है, उसे मिलता नहीं। और अगर कुछ समय के लिए मिल भी जाए तो वह संतुष्ट नहीं होता।

जीवन यात्रा का अर्थ : meaning of life journey.

वास्तव में मनुष्य के सुख का आधार है संतुष्टि! यह जो गुण है इसके लिए धैर्य की आवश्यकता होती है। अगर मन में धीरज नहीं है तो संतोष का अभाव बना रहता है। जहां संतोष नहीं है वहां सुख नहीं हो सकता। 

संतोष क्या है ..! What is satisfaction !

समुचित ज्ञान के अभाव में धैर्य धारण करना कठिन हो जाता है। और यह जो ज्ञान है, तो सबके पास मौजूद है, परन्तु उसे खोजने के लिए व्यक्ति  बाहर भाग रहा होता है। ठीक उसी प्रकार जैसे मृग की नाभी में कस्तुरी छूपा होता है और वह उसके सुगंध को पाकर उसे बाहर खोजता रहता है। ज्ञान सबके भीतर मौजूद है, मनुष्य जन्म के साथ ज्ञान लेकर आता है। भीतर जो ऊर्जा है, जिसके कारण जीवन है, परम ऊर्जा! परम ज्ञान का अंश है। फिर कोई भी व्यक्ति अज्ञानी कैसे हो सकता है? जन्म जन्मांतर के संस्कारों के धुल के कारण भीतर छूपा ज्ञान धुमिल हो जाता है। विरले लोग ही इसकी खोज लग पाते हैं। अधिकांश लोग इसे बाहर ही खोजते रहते हैं, और जीवन भर दुख उठाते हैं।

धैर्य रखना जरूरी क्यों है – Why it is important to be petient

यह जो ज्ञान है, जो सबके भीतर है! तो क्या इसकी खोज करना क्या संभव है? ज्ञानियों का कहना है कि यह संभव है, परन्तु खोजना सरल नहीं है। ध्यान क्रिया के द्वारा मन को नियंत्रित कर ज्ञान का अनुभव किया जा सकता है। परन्तु यह विना निरंतर अभ्यास के असंभव है। लेकिन विडंबना यह है कि साधारण व्यक्ति को ज्ञान की बातें समझ में आती ही नहीं। और जब तक मन में इसे खोजने की रूचि ना हो, कोई इस मार्ग पर कैसे चल सकता है। 

ध्यान क्या है जानिए ! Know what is meditation.

ध्यान एक अक्रिया है !

दार्शनिक ओशो के अनुसार ध्यान एक अक्रिया है!  ओशो कहते हैं : ध्यान के लिए जब हम पूछते हैं कि क्या मिलेगा? वह हमारा लोभ पूछ रहा है! मोक्ष मिलेगा की नहीं? आत्मा मिलेगी की नहीं? नहीं कुछ भी नहीं मिलेगा! और जहां कुछ भी नहीं मिलता वहीं सबकुछ मिल जाता है। जिसे हमने कभी खोया ही नहीं! जिसे हम कभी खो नहीं सकते! जो हमारे भीतर मौजूद है! यदि उसको पाना हो तो कुछ और पाने की चेष्टा सार्थक नहीं हो सकती है। सब पाने की चेष्टा छोड़कर जब हम मौन रह जायेंगे, तो उसके दर्शन होंगे जो हमारे भीतर मौजूद है। 

उसे पाने के लिए सारी क्रियाएं छोड़कर अक्रिया में हो जाना जरूरी है। यदि मुझे आपके पास जाना हो तो दौड़ना पड़ेगा, चलना पड़ेगा। और यदि मुझे मेंरे ही पास आना हो तो फिर कैसे दौड़ूंगा और कैसे चलूंगा। दौड़ते हैं दुसरों तक पहूंचने के लिए, अपने तक पहुंचने के लिए सब दौड़ छोड़ देनी होती है। क्रिया होती है कुछ पाने के लिए, लेकिन जिसमें स्वयं को पाना हो, उसके लिए कोई क्रिया नहीं होती। सारी क्रिया छोड़ देनी होती है। जो क्रियाऐं छोड़कर, दौड़ छोड़कर रुक जाता, ठहर जाता है, वह स्वयं को खोज लेता है। 

स्वयं को उपलब्ध कर लेना सब उपलब्ध कर लेना है। और जो इसे खो देता है, वह सब पाले तब भी उसके पाने का कोई मूल्य नहीं। एक दिन वह पायेगा कि वह खाली हाथ था! खाली हाथ है। अज्ञान की स्थिति में सिवाय ध्यान के और कोई मार्ग नहीं है। और ध्यान अज्ञान का कृत्य नहीं है।

Osho

सम्राट सिकन्दर के विषय में कौन नहीं जानता! अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को पुरा करने के लिए उन्होंने अपनी पुरी ताकत झोंक दी। लगभग समूचे विश्व में उसने अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया। ऐसे व्यक्ति को भौतिक सुख-संपदाओं की क्या कमी हो सकती है? परन्तु वह भी अपने जीवन से संतुष्ट नहीं हो सका। जीवन के अंतिम घड़ी में विश्व विजेता की अंतिम इच्छा थी कि मृत्यु के पश्चात् जब जनाजा निकला जाय तो उसके दोनों हाथ बाहर निकाल दिये जांय। ऐसा इसलिए कि लोग उन हाथों को देख यह समझ सकें कि सिकन्दर महान खाली हाथ जा रहा है। लोगों को यह पता लग सके कि मनुष्य इस धरती पर खाली हाथ आता है और खाली हाथ ही जायेगा।

साधारण मनुष्य जीवन भर भौतिक सुखों को पाने में ही लगा रहता है। परन्तु जीवन में वही कार्य, वही समय महत्त्वपूर्ण होता है, जब वैसा कार्य किया जाय जिसमें कुछ भी प्राप्त होता न दिखे। जो कार्य कुछ पाने के लिए किया जाता है, उससे जो प्राप्त होता है वह प्रर्याप्त नहीं होता। और अप्राप्य को पाने के लिए कुछ पाने की आकांक्षा का त्याग करना पड़ता है। जहां आकांक्षा होती है वहां प्रेम नहीं होता। 

जब मैं था तो हरि नहीं अब हरि मैं नाहिं।

प्रेम गली अति सांकरी जामें  दो ना समाय।।

उक्त दोहे में कबीर के कहने का भावार्थ है: जब मैं था, अर्थात् जब तक मुझमें अहंकार था, आकांक्षा थी, तब तक ह्दय में प्रेम नहीं था। तब तक मैं स्वयं से, ईश्वर से अनभिज्ञ था। अब मैं स्वयं को खोज लिया हूं, अब मुझे ईश्वर का अनुभव हो गया है, तो मैं मिट गया है। यह प्रेम की गली इतनी संकरी है कि दोनों साथ साथ नहीं चल सकते। 

खोना और खोजना के मध्य की अवस्था है खोज। जो ज्ञान सभी के भीतर छूपा है, उसे कुछ पाने के ललक में खो देना है अथवा सबकुछ पाने के लिए उस छूपे रुस्तम को खोजना है। यह खोज का विषय है! स्वयं की खोज करने के लिए, प्रेम को पाने के लिए कुछ पाने की आकांक्षा को खोना पड़ता है। ओंकार को पाने के लिए अहंकार को मिटाना पड़ता है। तभी जाकर ज्ञान का दर्शन हो पाता है। प्रेम मैं को मिटाने की कला है, ध्यान स्वयं को जानने की कला है। कुछ खोकर सबकुछ खोज लेना ही इस जीवन का उद्देश्य है। 

2 thoughts on “स्वयं की खोज का उद्देश्य —”

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