हमारा स्वभाव कैसा होना चाहिए !
जैसा हम सोच रहे होते है, वैसा ही हमारा स्वभाव होता है। साधारण मनुष्य प्रायः दुसरों के क्रिया-कलाप को देखता रहता है। बहिर्मुखी प्रवृत्ति के कारण वह दूसरों के गुण और अवगुण सब देखता है, परंतु दूसरों के गुणों पर ध्यान ना देकर अवगुणों पर ज्यादा ध्यान देता है। वह स्वयं को श्रेष्ठ और दुसरों को हीन दिखाना चाहता है। इसका प्रमुख कारण है मनुष्य का अहंकार भाव से ग्रसित होना।
स्वभाव का तात्पर्य क्या है?
किसी व्यक्ति अथवा वस्तु का मूल गुण या प्रकृति उसका स्वभाव कहलाता है। यह व्यक्ति या वस्तु में हमेंशा एक जैसा रहनेवाला मुख्य गुण है। स्वभाव किसी व्यक्ति का वह मान्सिक अवस्था है जो उसमें जन्मजात होता है। स्वभाव से तात्पर्य है निजी भाव, जैसा कि कोई व्यक्ति भीतर से होता हैं।
सरल स्वभाव का तात्पर्य क्या है ?
सरल स्वभाव या अच्छा स्वभाव किसी व्यक्ति में सद्गगुणों का वाहक है। पाश्चात्य दार्शनिक बीचर (Beecher) के कथनानुसार अच्छा स्वभाव शहद की मक्खी की तरह है, जो प्रत्येक झाड़ियों में खिल रहे फूलों से शहद ही निकालती है। अर्थात् अच्छा स्वभाव वालों की सोच, उनका व्यवहार हमेंशा अच्छा होता है। वह दुसरों में अच्छाई और बुराई दोनों देखता है, पर अच्छाई को ग्रहण कर लेता है और बुराई पर ध्यान नहीं देता। जिस प्रकार हंस मिले हुवे दुध और पानी में से दुध पी जाता है और पानी को छोड़ देता है, ठीक उसी प्रकार से उत्तम स्वभाव के धनी व्यक्ति श्रेष्ट गुणों को ग्रहण कर लेता है और दुर्गुणों से स्वयं को अलग कर लेता है। सरल स्वभाव में व्यक्ति जैसा अन्दर से होता है वैसा ही बाहर से होता है।
बुरा स्वभाव से क्या तात्पर्य है ?
महान ऋषि वेदव्यास जी ने कहा है, कि बुरे लोगों को निंदा में ही आनंद आता है, सारे रसों को चखकर भी कौआ गन्दगी से ही तृप्त होता है।
संत कबीरदास जी ने भी कहा है कि दुष्ट व्यक्ति जब दुसरों का दोष देखकर हंसता है तो उसे अपने दोष नजर नहीं आते, जिसका न तो आदि है और ना हीं अंत।
दुर्जन दोष पराए लखि चलत हसंत हसंत।
अपने दोष ना देखहिं जाको आदि ना अंत।।
दुसरों पर दृष्टि गड़ाये रखने वाले लोग दुष्ट प्रकृति के होते हैं। दूसरों की बुराई देखने की इस प्रवृत्ति के कारण व्यक्ति स्वयं के साथ साथ दूसरों का भी अहित करता रहता है। साधारण व्यक्ति में खुद को श्रेष्ठ एवं दुसरो़ को निकृष्ट समझने की भावना होती है, उन्हें दुसरों के आंखों के तिनके तो नजर आते हैं, पर अपनी आंखों का शहतीर नज़र नहीं आता।
दुष्ट व्यक्ति दुसरों के गुणों पर ध्यान ना देकर अवगुणों पर ज्यादा ध्यान देता है। वह स्वयं को श्रेष्ठ और दुसरों को हीन दिखाना चाहता है। दुष्ट स्वभाव के लोगों में केवल बुराई देखने की प्रवृत्ति के कारण आपस में मतभेद उत्पन्न हो जाता है, जिससे द्वेष फैलता है। और द्वेष का वातावरण व्यक्ति एवं समाज को पतन की ओर ले जाता है।
क्या सभी मनुष्यों का स्वभाव समान होता है !
जैसा कि कहा गया है कि व्यक्ति का मूल गुण अथवा प्रकृति जिसे हम उसका स्वभाव कहते हैं, सबमें एक समान होता है? आचार्य चाणक्य के अनुसार; मनुष्य जैसा भाग्य लेकर आता है उसकी बुद्धि भी उसी समान बन जाती है, कार्य व्यापार भी उसी अनुरूप मिलता है। उसके सहयोगी, संगी-साथी भी उसके भाग्य के अनुरूप ही होते हैं। मनुष्य का सारा क्रिया कलाप भाग्यानुसार चलता है।
मुंशी प्रेमचंद का भी मानना है कि स्वभाव इंसान को जन्म से मिलता है और स्वभाव सबका भिन्न-भिन्न होता है।
इन विचारों पर नजर डालने से यह निष्कर्ष निकलता है कि व्यक्ति अच्छा और बुरा स्वभाव, सकारात्मक और नकारात्मक गुणों के साथ ही इस धरा पर जन्म लेता है। व्यक्ति जन्म के साथ ही अच्छे या बुरे संस्कारों के प्रभाव में आ जाता है। अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति का स्वभाव या प्रकृति, nature अलग-अलग होता है।
मनुष्य का मूल स्वभाव क्या है ?
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि व्यक्ति के स्वभाव की छाया का प्रभाव उसके जिन्दगी पर पड़ता है। इस संसार में प्रत्येक व्यक्ति के अंदर अच्छाई भी होती है और बुराई भी। परन्तु दुसरों में बुराई देखना, दुसरों का बुरा करना मनुष्य के मूल स्वभाव नहीं हो सकता! हम दुसरों को दोष देते हैं, उनके अनुचित व्यवहार हमें बुरा लगता है। पर वही व्यवहार हमसे हो जाता है तो हम उस पर नहीं सोचते। मनुष्य का अच्छा या बुरा व्यवहार उसके स्वभाव पर निर्भर करता है।
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मनुष्य का असली स्वभाव क्या है? इस पर विचार होना जरूरी है। जरा सोचिए! जब आप रेडियो या साउन्ड सिस्टम पर कोई गाना सुन रहे होते हैं और वह गीत आपको अच्छा लगता है, तो आप क्या करते हैं? आप आवाज को और तेज कर देते हैं! क्या आपने कभी सोचा है कि आप ऐसा क्यों करते हैं? यही आपका असली स्वभाव है, जब आपको कोई चीज अच्छी लगे तो आप अपनी फिलिंग्स को दुसरों तक पहुंचाना चाहते हैं।
आत्यात्मिक दृष्टि से देखा जाए तो हमारे अन्दर जो परम ऊर्जा है, जिसे हम आत्मा, रुह, soal के नाम से जानते हैं। शास्त्रों में कहा गया है, कि यह आत्मा परमात्मा का अंश है। और अपने शुद्ध स्वरुप में आत्मा कलुषित नहीं रह सकता। मतलब साफ है कि दुष्ट प्रकृति किसी भी व्यक्ति का मूल स्वभाव नहीं हो सकता! शास्त्रों में यह भी उल्लेख किया गया है कि जन्म जन्मान्तरों में किये गये कर्मों की निरंतरता का परिणाम होता है स्वभाव! अर्थात् अपने संस्कारों के प्रभाव से व्यक्ति में दुष्ट प्रवृत्ति का प्रादुर्भाव हो जाता हैं। फिर अज्ञानतावश वह उसे दोहराता चला जाता है। दुसरों की बुराई करना और देखना किसी व्यक्ति का मूल स्वभाव में नहीं है।
दुसरों को बदलने की कोशिश ना करें !
मनुष्य के संस्कार तीन तरह के होते हैं, और उसके संस्कार से ही उसका स्वभाव निर्मित होता है। दो तरह के संस्कार उसके जन्म के साथ चले आते हैं, एक जो दैविक होता है जो जन्म जन्मांतर में किये गये कर्मों का फल है। इसे ही हम प्रारब्द, किस्मत, तकदीर, luck या भाग्य के नाम से जानते हैं। दुसरा दैहिक होता है जो अनुवांशिक होता है, अपने माता-पिता, पूर्वजों के शारिरीक लक्षण कुछ ना कुछ स्वत: चले आते हैं। तीसरा भौतिक होता है जिसे परिवार, समाज शिक्षा एवम् संगति से प्राप्त होता है। कोई व्यक्ति शिक्षा और उत्तम संगत के द्वारा अपने जन्मजात आदतों में परिवर्तन कर सकता है।
मुशी प्रेमचंद ने भी कहा है कि जो स्वभाव मनुष्य को जन्म से मिलता है, उसे शिक्षा और संगति से सुधारा जा सकता है।
परन्तु इसके लिए उसे स्वयं प्रयास करने पड़ेंगे, किसी दुसरे के प्रयास से वह नहीं बदलेगा। अगर कोई खुद को नहीं बदलना चाहे तो कोई दुसरा उसे नहीं बदल सकता। उपदेश से स्वभाव नहीं बदला जा सकता है, गरम किया हुवा पानी फिर ठंढा हो जाता है।
महान कवि कालिदास ने भी कहा है ;“जल तो आग की गर्मी पाकर गरम होता है, उसका स्वभाव तो ठंढा ही होता है।”
प्रयत्न स्वयं में बदलाव का होना चाहिए !
संसार में जितने भी विचारक हुवे, सबने आत्मविश्लेषण की बात कही है। इस दुनिया में केवल एक ही व्यक्ति है जो आपकी उन्नति रोक सकता है,और वह आप खुद हैं। आप ही वो व्यक्ति हैं, जो स्वयं की जिंदगी में बदलाव ला सकते हैं। ज़िन्दगी तब बदलती है, जब हम बदलते हैं! जब हम अपनी संकृर्ण सोच को तोड़ते हैं! जब हम इस बात को महसूस करते हैं कि अपनी जिंदगी के लिए सिर्फ़ और सिर्फ हम ज़िम्मेदार हैं।
मुंशी प्रेमचंद का कहना है कि, व्यक्ति के स्वभाव पर उसका भविष्य निर्भर करता है।
प्रसिद्ध लेखक स्वेट मार्डन के अनुसार; इस दुनिया में किसी भी व्यक्ति का स्वभाव प्राकृतिक रुप से ऐसा नहीं है जिसे सम्पुर्ण, complete कहा जा सके। उसे आवश्यकता होती है देखभाल की, आत्ममंथन की।
स्वभाव कच्ची मिट्टी की भांति होता है जिसकी शक्ल नहीं होती, इसे आकृति देने की आवश्यकता होती है। अपने मन को टटोलने से व्यक्ति को अपनी बुराइयों का, अपनी कमजोरियों का पता चल सकता है। हर एक को अपने अवगुणों पर विचार करके, उन्हें दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। स्वयं में सुधार लाने के लिए व्यक्ति को आत्मचिंतन की प्रवृत्ति को विकसित करना चाहिए। ऐसा चिंतन करने से मनुष्य अपने दोषों के प्रति सजग हो जाता है और दुसरो की बुराई देखने की प्रवृत्ति खत्म होने लगती है। इसका लाभ यह होता है कि मनुष्य धीरे-धीरे अपने अवगुणों को त्यागने लगता है और सद्गुणों को ग्रहण करने में प्रवृत्त हो जाता है।
दुसरों के अच्छाई को ग्रहण किजिए !
बीते दिनों की बात है। अर्थशास्त्र के एक शिक्षक जिन्हें तम्बाकू सेवन करने की आदत थी। वे विद्यालय के कक्षा में भी तम्बाकु हाथ में लेकर रगड़ते थे। हांलांकि वे एक अच्छे शिक्षक थे। उनका पढ़ाने का तरीका बहुत अच्छा था और वे बहुत ही मृदुल स्वभाव के व्यक्ति थे। पर, पढ़ाने के दौरान जब वे तम्बाकू का सेवन करते तो कुछ छात्रों को नागवार गुजरता था। छात्रों के बीच उनके इस बुरी आदत पर चर्चा होती ही रहती थी। आखिर एक दिन एक छात्र ने टोक ही दिया।
शिक्षक महोदय ने बहुत प्रेम से उस छात्र को समझाया; बेटा मेंरे अन्दर जो बुरे गुण हैं, उसपर ध्यान मत दो। मैं तुम्हें क्या पढ़ाता हूं, इसपर ध्यान दो। इस बात पर अमल करो कि तुम मेंरे समक्ष क्यों बैठे हो। समय का सदुपयोग करो, मेंरी अच्छाईयों को ग्रहण करो।
वास्तव में यही होना ही चाहिए। हम दुसरों में जो खोजेंगे वही हमें मिलेगा। अंत: हर किसी में उसके अच्छाई को देखना और ग्रहण कर लेना हमारा स्वभाव होना चाहिए।
बुरा जो देखन मैं चला !
मनुष्य को दूसरों की बुराई की ओर देखने की बजाए अपने अंदर झांकना चाहिए। अपने मन को टटोलने से व्यक्ति को अपनी बुराइयों का, अपनी कमजोरियों का पता चल सकता है।
‘बुरा जो देखन मैं चला’ कबीर का एक लोकप्रिय दोहा है। रसंत कबीरदास ने कहा है_ जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे किसी में भी बुराई नजर नहीं आयी। पर जब मैंने खुद के भीतर, अपने मन में झाँक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा तो कोई भी नहीं है!
बुरा जो देखन मैं चला बुरा ना मीलया कोय।
जो जग ढ़ुढ़ा आपनो मुझसे बुरा ना कोय।।
हर एक को अपने अवगुणों पर विचार करके, उन्हें दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। स्वयं में सुधार लाने के लिए व्यक्ति को आत्मचिंतन की प्रवृत्ति को विकसित करना चाहिए। ऐसा चिंतन करने से मनुष्य अपने दोषों के प्रति सजग हो जाता है और दुसरो की बुराई देखने की प्रवृत्ति खत्म होने लगती है। इसका लाभ यह होता है कि मनुष्य धीरे-धीरे अपने अवगुणों को त्यागने लगता है और सद्गुणों को ग्रहण करने में प्रवृत्त हो हो जाता है।
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