साथियों ! सम्मान, अभिमान और स्वाभिमान के आशय भिन्न हैं। ये तीनों ही मन के भाव हैं । और हमारे मन पर इनका अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। सम्मान का आशय है प्रतिष्ठा या मर्यादा का भाव और सम्मान का विलोम शब्द है अपमान। जब किसी कारणवश आपके सम्मान को ठेस लगे तो आप खुद को अपमानित महसूस करते हो। हर किसी को सम्मान चाहिए! यह भावना सबों में प्रबल होती है। आपका प्रत्येक कृत्य सिर्फ इसलिए होता है, कि बदले में आपको सम्मान मिले। अभिमान से आशय है, अपनी प्रतिष्ठा या मर्यादा का अनुचित धारणा। स्वाभिमान में स्व और अभिमान दो शब्दों का मेंल है। स्व का आशय यहां स्वयं से है। स्वाभिमानी केवल वही हो सकता है जो स्वयं को जानता हो, जिसने स्वयं को पहचाना हो। ऐसे व्यक्ति में अभिमान हो ही नहीं सकता।
सम्मान की अभिलाषा ही अपमान का कारण है !
सम्मान पाने की अभिलाषा के कारण ही हम अपमानित होते है। सम्मान ना तो मांग के लिया जा सकता है, न जोर जबरजस्ती से। वस्तुत: आहत होने का कारण सम्मानणीय बनने की चाहत ही है, यही अपमान से भयभीत होने का कारण भी है।
क्या आपने कभी इस पर गहराई से विचार किया है? अगर मैं कहूँ कि अपमान के कारण नहीं, सम्मान के चाहत के कारण आघात पहूँचता है, तो बात थोड़ी अजीब लगेगी। वास्तव में देखा जाय तो आघात लगने का कारण सम्मान है और लोग समझते हैं कि आघात का कारण अपमान है। कोई यह स्वीकार नहीं कर पाता कि उसे आघात इसलिए लगता है, क्योंकि वह सिर्फ सम्मान चाहता है।
अभिमान एक रोग के समान है !
अभिमान दुसरे से अपने आप को श्रेष्ठ समझने का भाव है। अभिमानी हर उपाय सिर्फ इसलिए करता है, कि दुसरे उसे मान दे, उसकी उपेक्षा न हो।
साधारण व्यक्ति जो भी करता है अपने अहम् को तुष्ट करने के लिए करता है। अभिमान सदा इस तलाश में रहता है, कि वो आँखें मिल जांए जो उसकी छाया को वजन दें। दुसरों पर आक्रमण या दुसरे से तुलना करने में अभिमान है। फलस्वरूप मनुष्य के दुखों का कारण भी उसका अभिमान ही है।
अभिमानी व्यक्ति खुद को सम्मानित समझता है। अपने इस भाव की तुष्टि के लिए वह हर हथकंडा अपनाता है, जिससे उसका अहम् तुष्ट होता रहे। अगर किसी कारणवश उसके अहम् को चोट लग जाय, तो अपने अहम् के रक्षा हेतु आक्रामक हो जाता है। और फिर दुसरों का अपमानित करना शुरू कर देता हैं।
स्वाभिमान अहम् के रोग का निदान है !
आम आदमी आमतौर पर अभिमान को ही स्वाभिमान समझ लेता है। जबकि स्वाभीमान की बात ही कुछ और है। स्वाभिमान विनम्र है। मैं दुसरे से श्रेष्ठ हूं, यह धारणा स्वाभिमानी में नहीं होता। न कोई किसी से बड़ा है न कोई किसी से छोटा है, स्वाभिमान इस बात की स्वीकृति देता है।
स्वाभिमान में संघर्ष की क्षमता है। अभिमानी का प्रयास दुसरे को नीचा दिखाने का, दुसरे को चोट पहुंचाने का होता है। स्वाभिमानी का संघर्ष दुसरे को नीचा दिखाने के लिए नहीं, दुसरे का आक्रमण गलत है, यह दिखाने के लिए होता है। स्वाभीमान में कोई आक्रमण नहीं है
अभिमान उस दशा को प्रगट करता है जो अहंकारी की होती है। कहीं ऐसा तो नहीं कि आप स्वाभीमान को अभिमान समझ रहें हैं। स्वाभिमान में अभिमान से पहले स्व लगा है। स्व के मायने मैं अर्थात् अहम् मत समझिए, यह भाषा की कमजोरी है।
सम्मान और यश में बहुत अन्तर है !
यश आपके विचार, आपके अच्छे व्यवहार, आपके द्वारा किए जा रहे सुकर्म के आधार पर स्वत: फैलता है, जबकि सम्मान को पाने के लिए आप तरह-तरह के हथकंडे अपनाते हो। सम्मान और यश के फर्क को समझना जरूरी है।
जरा सोचिये अपने मन की गहराइयों में उतर कर ! क्या हुवा जब रत्नाकर ने अपने अभिमान का परित्याग कर दिया? क्या हुवा जब अशोक अपने अहंकार को त्याग दिया? जिस किसी ने भी अपने अहम् का परित्याग किया, वो संसार में सम्मानित हो गये। स्वाभिमानी मान-सम्मान से परे होता है।
सम्मान में अपमान का भय होता है !
सम्मान अर्जित करने का जो प्रदर्शन किया जाता है, उससे अर्जित सम्मान अस्थायी होता है। इसलिए, उचित तो यह है कि यह सम्मान की चाह के रूप में जो भीतर का उपद्रव है, उसे बाहर निकल जाने दें। अपमान का भय मन से बाहर कर पाने में अगर आप सफल हो गए तो फिर आपके लिए सिर्फ सम्मान ही रह जायेगा। अगर अपमान के घुँट को पीना सीख लो, तो आपके लिए सिर्फ सम्मान बचता है।
भोग में रोग का, उच्च-कुल में पतन का, धन में राजा का, मान में अपमान का, बल में शत्रु का, रूप में बुढ़ापे का औरशास्त्र मे विवाद का डर है। भय रहित तो केवल वैराग्य ही है।
– भगवान महावीर
अपमान के भय को मन से निकाल दिजिए !
एक मनीषी हुवे थे। उनके निवास स्थल के आस पास के लोग उनका बहुत सम्मान करते थे। अपमान का स्वाद उन्होने कभी चखा नहीं था। अगर किसी को अपमान के पीड़ा से पीडित होते देखते तो उन्हे विस्मय होता था। मनीषियों का स्वभाव सत्य को जानने की होती है, और सत्य को वो अपने अनुभव द्वारा जानने का प्रयास करते हैं। उनके मन में यह जानने की जिज्ञासा हुवी कि यह अपमान क्या है ? लोग इससे इतना डरते क्यों हैं ?
उन्होनें सोचा- जब तक मै खुद को अपमानित नहीं करुँगा, अपमान क्या होता है, यह नहीं जान पाऊँगा। उन्होने अपने मित्रों से यह इच्छा जताई, पर उन्हे अपमानित करने को कोई तैयार नहीं हुवा।
अन्ततः वे एक अन्जान व्यक्ति से मिलते हैं, कुछ रुपये देकर उसे बीच चौराहे पर भरी भीड़ के बीच अपने गाल पर थप्पड़ मारने को कहते हैं। वह व्यक्ति वैसा ही करता है, यह देख उपस्थित भीड़ सन्न रह जाती है।
कुछ लोग उसे मारने को दौड़ते है, मनीषी भीड़ को ऐसा करने से रोकते हैं। भीड़ से आवाज आती है, आपके जैसा सम्मानित व्यक्ति के साथ ऐसा व्यवहार का कोई कारण हो ही नहीं सकता! फिर इसने ऐसा क्यों किया ?
मनीषी भीड़ को समझाते हुवे कहते हैंं- इसे मैने ऐसा करने को कहा था। जो हुवा इसमें इसकी कहीं से कोई गलती नहीं। मैं अपमान का अनुभव करना चाहता था सो कर लिया। अब मैने यह जान लिया है, कि जिस अपमान के भय से सभी भयभीत रहते हैं, उस अपमान का कोई अस्तित्व नहीं है।
अहंकार का कोई अस्तित्व नहीं है !
अंधकार वहीं है जहाँ प्रकाश नही है। मनुष्य जब तक मैं की माया से मुक्त नहीं हो जाता, वह किसी से प्यार नहीं कर सकता। अंधकार है तो कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता, अंधकार नहीं है तो सबकुछ दिखाई पड़ता है। मैं की माया नही होगी, अहम् का भाव नहीं होगा तो आपके हृदय में प्रेम होगा, आपके मन-मष्तिष्क मे स्वाभीमान की तरंगें होंगी।
प्रशिद्ध शायर मिर्ज़ा ग़ालिब mirza-ghalib बहुत ही सहजता के साथ ‘मैं ‘ अर्थात अहंकार के अस्तित्व को नकार देते है। अहंकार तो है ही नही, परन्तु जिस अहंकार का कोई अस्तित्व नहीं होता उसी के बन्धनों में मनुष्य उलझा पड़ा है।
मैं न था तो खुदा था, मैं न होता तो खुदा होता।
डुबोया मैं के होने ने, मैं न होता क्या होता ।।
इस संसार में सबका महत्व एक समान है !
ना कोई किसी से ऊपर है ना कोई किसी से नीचे है। ना कोई किसी से बड़ा है ना कोई किसी से छोटा है। एक छोटा सा घांस का फूल और आसमान का बड़ा से बड़ा तारा, इस अस्तित्व में दोनों का समान महत्व है।
अगर यह छोटा-सा फूल के न होने से अस्तित्व में कुछ कमी हो जाय तो बड़ा से बड़ा तारा भी उसे पुरा नहीं कर सकता। इस अस्तित्व में प्रत्येक वस्तुओं, प्राणियों का समान मूल्य है।
कवि रहीम का यह दोहा इसी आशय को दर्शाता है। छोटी सी सुई से जो काम हो सकता है उसे तलवार से नहीं किया जा सकता। जो तलवार का काम है उसे सुई नहीं कर सकता। प्रत्येक का अपना महत्व है।
रहिमन देखि बड़ेन को लघु न दीजै डार।
जहां काम आवै सुई कहां करै तलवार।।
अभिमान अहंकारी और स्वाभिमान यशस्वी बनाता है !
हमारे जीवन में कई ऐसे मौके आते हैं जो हमें अभिमानी और कटु होने को प्रेरित करते हैं। लेकिन इतिहास गवाह है कि उन लोगों ने ही अपने जीवन में ऊंचाईयां हासिल की, जिन्होंने अपनी विनम्रता से लोगों को प्रभावित किया।
जीवन में ऊंचाई चाहिए, तो अपने अन्दर के अभिमान को निकाल कर खुद को हल्का कीजिये, क्योकि ऊँचा वही उठ सकता है जो हल्का होता है। अभिमानी नहीं स्वाभामानी बनिए।
अभिमान एक मानसिक रोग है। स्वाभिमान में कोई अकड़ नहीं है। यह सीधा और सरल है। अभिमानी होना एक सांसारिक बीमारी है और स्वाभिमानी होना एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है।
पुराने ज्ञानियों में से एक हकीम लुकमान से किसी ने पुछा कि तुम इतने समझदार कैसे हो गये? लुकमान ने कहा ‘जब से मैं नासमझ हो गया।’
अपने निबन्ध “गेहूँ और गुलाब” के माध्यम से बेनीपुरीजी कहते हैैं, ‘दुुनिया ज्ञान के ज्वाला से जला है, शान्ति तो प्रेम से ही संभव हो सकता है।’
गौतम बुद्ध ने कहा था; ‘विनम्रता का अर्थ है खुद को वश में कर लेना और जिस व्यक्ति ने यह कर लिया, उसकी जीत को देवता भी हार में नहीं बदल सकते। यदि हम विनम्रता को अपने जीवन का अंग बना सके तो लोकप्रियता और सफलता का दामन हमसे कभी भी नहीं छुटेगा।’
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