मनोकामना, अर्थात् मन की कामना। कामना एक मनोभाव है, जो मन में सृजित होता है। सामान्यतः कामनाओं को जगाना और उन्हें पूर्ण करने की लालसा ही मन की प्रकृति है। मन की जो चाहत होती है, वह उसे ही पाने में लगा रहता है। यह जो लालसा है, यह भी मनोभाव है, जो कामना की सहगामिनी है। ये जो भावनाएं हैं मन की, इसे उलझाए रखती हैं। यह जो मन है! एक मकड़ी की तरह है, जो खुद जाल को बुनता है और अपने बनाए जाल में खुद ही उलझ जाता है।
मनोकामना का अर्थ क्या है..?
मनोकामना यानि ‘कुछ’ चाहिए इस मन को। और यह जो ‘कुछ’ है, यह ‘कुछ’ उसे कभी मिलता ही नहीं। यह जो ‘कुछ’ है, जिसकी उसे कामना है। अगर उसे मिल जाए तो फिर उसकी कामना पूरी हो जाएगी। जिस चीज पाने की लालसा है उसे, अगर मिल जाए तो उसकी लालसा ही मिट जाएगी। फिर यह मन शांत हो जाएगा, स्थिर हो जाएगा। और कहेगा कि उसे और कुछ नहीं चाहिए। उसे जो चाहिए था, वह ‘कुछ’ उसे मिल गया है। फिर तो यह मन ही मिट जाएगा। क्योंकि मन की कामना ही है ‘कुछ’ को पाना।
आखिर यह जो ‘कुछ’ है, कौन सी चीज है? जिसके पा लेने से और कुछ की कामना मिट जाती है। जिसके पा लेने से यह मन ही मिट जाता है। इसे जानना ही मनोकामना के वास्तविक अर्थ को जानना है। समस्त कामनाओं का सृजन मन में ही होता है। परन्तु एक ऐसी भी कामना है, जो मन में शुरुआत से ही निहित होता है। यह जो कामना है, यही वह ‘कुछ’ है, जिसे मन ढुंढ़ता रहता है। यह जो ‘कुछ’ है, उसके भीतर ही निहित है। परन्तु खुद के जगाए कामनाओं में उलझकर इस ‘कुछ’ से वह अनभिज्ञ रहता है।
मन की दशा उस हिरण की तरह है, जो जो कस्तुरी के खोज में इधर-उधर भटकता रहता है। वह यह नहीं जान पाता कि कस्तुरी उसके नाभि में ही निहित है। कस्तुरी की महक जब उसे मिलती है, तो वह समझ लेता है कि महक कहीं बाहर से आ रही है। इसी प्रकार मन उस ‘कुछ’ को, जो उसे चाहिए! बाहर के संसार में खोजता रहता है। और विभिन्न कामनाओं का सृजन करता रहता है। लेकिन ये जो कामनाएं हैं, कभी पूर्ण नहीं होती। संसार में उपलब्ध सारी वस्तुओं को प्राप्त लेने के पश्चात भी, यह मन तृप्त नहीं हो पाता। बाहरी संसार में भटकते हुवे कोई अपनी मनोकामना को पूर्ण नहीं कर सकता। वास्तव में मनोकामना का अर्थ इसी ‘कुछ’ की कामना है।
मन है एक समन्दर की तरह
कामना की भंवर है जिसमें
लालसा की लहरें उमड़ती हैं
महत्त्वाकांक्षा का तीव्र बहाव
सबकुछ पाने को मचलता है।कुछ ऐसी ही होती है
मानव के मन की मंशा
पर यूं ही मचलने से कभी
होती नहीं, हो सकती नहीं
पूरी इसकी लालसाएं सभी।तब अतृप्त उदास मन में
उठती हैं चिंताओं की भंवर
घबराहटों की लहरें उमड़ती हैं
निराशा की तीव्र बहाव में
शांति कहीं खो जाती है।बात हो विशाल समन्दर की
या हो विकराल मन की
हैं सब ऊपर के सतह का
यह कृत्य, खेल यह सारा।स्थिरता है भीतर के तल में
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है वहां नीरव शाति की धारा
प्रयत्न कर गये जो भीतर
देखा उसने अलग नजारा।
अब जरा सोचिए! यह जो ‘कुछ’ है, जो हमारी वास्तविक मनोकामना है। जिसे पाने के लिए यह मन भठकता रहता है। और कुछ और को पाने में लगा रहता है। लालसा की लहरें चलती रहती हैं। और इन लहरों के बहाव में हम बह जाते हैं। इनसे कैसे बचा जा सकता है?
यह जो ‘कुछ’ है, जिसे पा लेने पर और कुछ की कामना मिट जाती है। इस ‘कुछ’ को पाने का उपाय क्या है? इस प्रश्न का उत्तर कबीर के इस दोहे में छिपा है।
मैंने देखा जबसे तुमको, मेंरे सपने हुवे सिंदुरी
इन्दीवर
तुझे पाके मेंरे जीवनधन, हर कमी हुवी मेंरी पूरी।
पिया एक तेरा प्यार, मेंरे सोलह श्रंगार
मुझे अब दर्पण से क्या लेना, क्या लेना।
यह जो ‘कुछ’ है, यही वो जीवनधन है, जिसकी तलाश मनुष्य मात्र को है। इसी को पा लेना जीवन का लक्ष्य है। जिसे मिल गया वह जीवनधन उसका जीवन संवर जाता है। उसकी हर कमी पूरी हो जाती है। वह जो ‘कुछ’ है, जीवनधन है, यह भीतर की ऊर्जा है। इसे ही आत्मा कहा गया है, जो परमात्मा का अंश है। और परमात्मा जिसका मीत बन जाए, पिया बन जाए, उसे तो सबकुछ मिल जाता है। ऐसा पिया का प्यार उसके लिए सौलह श्रंगार है। ऐसे पिया की प्रेयसी को फिर दर्पण की क्या आवश्यकता है। यह संसार रूपी दर्पण और भोग रूपी श्रृंगार उसके लिए व्यर्थ हो जाता है।
मन पर लगाम जरूरी है !
यह जो ‘कुछ’ है, जिसे पा लेने पर और कुछ की कामना मिट जाती है। इस ‘कुछ’ को पाने का उपाय क्या है? इस प्रश्न का उत्तर कबीर के इस दोहे में छिपा है।
मन हीं मनोरथ छांड़ी दे, तेरा किया न होय।
संत कबीर
पानी में घीव निकसै, तो रूखा खाय न कोय।।
मन हीं मनोरथ छाड़ी दे! कबीर मनुष्य मात्र से मन की कामनाओं को त्याग देने को कहते हैं। वह जो ‘कुछ’ है, उसे अगर पाना है तो और कुछ पाने की इच्छाओं का त्याग जरुरी है। मनोरथ यानि मन का रथ! मन के रथ पर सवार होकर उस ‘कुछ’ प्राप्त नहीं किया जा सकता।
यह जो रथ है मन का, पांच घोड़े हैं इसके। ये पांच घोड़े और कोई नहीं, हमारी इन्द्रियां हैं, जो कामनाओं के पहिये को खींचती चली जाती हैं। और रथ है जो दौड़ता चला जाता है, लेकिन मंजिल कभी मिलती नहीं। लेकिन इस रथ पर जो बैठा है, उसके पास लगाम भी होता है। अगर इंद्रियरुपी घोड़ो पर नियंत्रण रख सको तो उसे अपने जहां चाहे ले जा सकता है। अगर नहीं तो इंन्दियां उसे वहीं ले जाती हैं, जहां वह ले जाना चाहती हैं।
तेरा किया ना होय! कबीर कहते हैं, मनुष्य जो करता है, उससे ‘कुछ’ नहीं मिलेगा। इसके लिए मन को नियंत्रित करने की जरूरत है। मन के दो तल हैं, एक बाहर और दुसरा भीतर का तल। बाहरी तल में जो लहरें उमड़ रही है, कुछ और की लहरें हैं। ये लहरें सांसारिक कामनाओं की, भौतिक लालसाओं की लहरें हैं। जिस ‘कुछ’ की तलाश में है मनुष्य को, वह तो भीतर के तल में है। जहां कोई लहर नहीं है।
कबीर कहते हैं कि पानी में अगर घी निकलने लगे तो कोई भी रूखा नहीं खायेगा। मन के ऊपरी तल की जो मनोकामनाएं हैं, मनुष्य को सुख नहीं दे सकती। सुख के लिए, शान्ति के लिए, भीतर गहराइयों में उतरना होगा। मन के दिशा को जो बाहर की ओर उन्मुख है, भीतर की ओर मोड़ना पड़ेगा।
वह जो ‘कुछ’ है, जिसे पा लेने पर और कुछ की कामना मिट जाती है, भीतर तल में है। इसे ढुंढना, इसे पाना ही वास्तव में मनोकामना है। मन के मते चलकर मन के वास्तविक कामना को पूरा नहीं किया जा सकता। इसके लिए मन पर नियंत्रण करना पड़ता है। मन को कामनाओं से मुक्त करना पड़ता है। भीतर गहराइयों में उतर कर प्रेम का दीपक जलाना पड़ता है।
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