Adhyatmpedia

स्वाभीमान का अर्थ :

स्वाभीमान का अर्थ है ! स्वयं पर अभिमान। यह एक अमूर्त अवधारणा है। यह स्व और अभिमान का मेंल है। स्व का अर्थ आत्म से है, स्वयं से है। इस प्रकार स्वाभीमान का अर्थ हुआ स्वयं पर अभिमान। अभिमान दुसरों से स्वयं को अधिक सम्मानित समझने का मनोभाव है। अभिमानी दुसरों की उपेक्षा करता है, परन्तु उसकी उपेक्षा न हो, इसके लिए हर संभव प्रयास करता है। तो क्या स्वयं पर अभिमान करना स्वाभीमान है? 

स्वाभीमान का समानार्थी है, आत्म सम्मान! अंग्रेजी भाषा में इसे self respect कहते हैं। सम्मान का आशय किसी को मान देने से है। और जब इसमें आत्म (self) जूड़ जाता है तो इसका आशय स्वयं को सम्मान देने से है। स्वयं को सम्मान देना एवम् स्वयं पर अभिमान करने के अर्थ को समझना जरूरी है। यह विचार करने योग्य है कि स्वाभीमान का वास्तविक अर्थ क्या है?

दार्शनिक ओशो के शब्दों में : मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जो लोग अपने अहंकार की घोषणा करते हैं, उनमें हीन भाव होता है। जो व्यक्ति वस्तुत: अपने से तृप्त है, वह अहंकार का घोषणा नहीं करता । जिसका तुम्हें पता है, अनुभव है उसकी तुम घोषणा नहीं करते। जो है उसकी घोषणा की जरुरत नहीं है। जो नहीं है उसकी घोषणा करनी पड़ती है।

हमने बहुत सी बातों के अभ्यास किए हैं। राह पर कोई मिल जाता है तो मुस्कुराते हो, चाहे भीतर आंसू उमड़ रहे हैं। लेकिन राह पर यदि कोई मिल गया तो तुम मुस्कुराते हो। अभ्यास कर लिया, मुस्कुराहट आती नहीं ह्दय से। लेकिन होंठों को फैलाने का अभ्यास तुमने कर लिया है। होंठों को फैलाने से भ्रांति पैदा होती है मुस्कुराट की। यह कैसी मुस्कुराहट, जिसकी जड़े हृदय तक न गये हों। जिसकी जड़ें हृदय तक न गये हों, वह मुस्कुराहट झुठी है।

स्वाभीमान में कोई अकड़ नहीं है। लेकिन बड़ी से बड़ी शक्ति दुनिया की स्वाभीमानी व्यक्तियों को नीचा नहीं दिखा सकतीं। स्वाभीमानी व्यक्ति विनम्र हैं, इतना विनम्र कि खुद ही सबसे पीछे खड़ा है। अभिमान बहुत सरल बात है, रोग आम है। स्वाभीमान का स्वास्थ्य मुश्किल है। और जब किसी व्यक्ति में पैदा होता है तो पहचानना मुश्किल होता है। क्योंकि स्वाभीमान का कोई दावा नहीं है, यही उसका दावा है। स्वाभीमानी व्यक्ति किसी के ऊपर अपने को रखना नहीं चाहता और किसी को कभी अपने ऊपर गुलामी लादने भी नहीं देता। इसलिए बात थोड़ी जटिल हो जाती है, समझने में भूल-चूक हो जाती है।

स्वाभीमानी होने के लिए अभिमान का त्याग करना पड़ता है। परन्तु हम इस अभिमान का मैं त्याग कैसे करें? इसके लिए अभिमान पर विचार जरुरी है। यह जो अहम् भाव है, मन में इसके होने का का क्या प्रभाव प़डता है जीवन में? इस पर विचार जरुरी है। अभिमान एक रोग है! जब तक रोग का अनुभव नहीं होगा, इसके निदान का प्रयास भी नहीं हो सकता।

स्वाभीमानी होना एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है!

मैं मैं बड़ी बलाई है, सकै निकसी तो भाग।
कहे कबीर कब लग रहे, रुई लपेटी आग।।

कबीर ने इस मैं को बहुत बड़ा बला कहा है। यहां मैं का आशय अहम् से है, अहंकार से है। कबीर के कहने का तात्पर्य है कि इस मैं के लपेटे से निकल जाना ही श्रेयस्कर है। क्योंकि यह पतनशील है, मन से अहम् के भाव को जितना शीघ्र हो सके, त्याग देना उचित है। आखिर रुई को अग्नि के ताप से कब तक बचाया जा सकता है। जिस प्रकार अग्नि की ज्वाला रुई को जलाकर भस्म कर देती है। ठीक वैसे ही अहंकार की अग्नि मनुष्य को जलाकर नष्ट कर देती है। 

स्वाभीमान या आत्मसम्मान का संबंध स्व से है, आत्म से है। मैं से नहीं! स्व में मैं की भावना नहीं होती। मैं मे अहम् भाव है, यह अहंकार ( अहंकार का अर्थ ) का धोतक है। मैं में अभिमान है! परन्तु मैं दुसरों से अधिक सम्मानित हूं, यह भाव स्वाभीमान में नहीं है। स्वाभीमान में किसी प्रकार का कोई अकड़ नहीं है। आत्म से बना है आत्मा! आत्मा यानि जीवन ऊर्जा। मैं का संबंध मन से है, आत्मबोध होना मन से परे का भाव है। 

ऊंचो पानी ना टिकै, नीचो ही ठहराय।
नीचो होय सो भरि पियै, ऊंचो पियासा रहि जाय।।

कबीर कहते हैं कि पानी ऊपर नहीं ठहर सकता। पानी नीचे की ओर गिरता है, नीचे ही बहता है। धरातल पर गिरता है, सतह पर ही ठहरता है। जो नीचे सतह पर निवास करते हैं, जल भरकर पी लेते हैं। ऊपर रहकर प्यास नहीं बुझाया जा सकता है। यहां ऊंचा होने का आशय अहंकार से है, अभिमान से है। जिस प्रकार ऊपर रहकर प्यास नहीं बुझाया जा सकता। ठीक उसी प्रकार जो अहंकार में जीता है, वह ज्ञान को प्राप्त नहीं कर सकता। 

वास्तव में स्वाभीमान का अर्थ है, स्व पर अभिमान। यहां स्व का आशय भीतर के ऊर्जा से है। जीवन के ऊर्जा से है! स्व को मैं समझ लेना मनुष्य की बहुत बड़ी भूल है। यही कारण है कि सामान्य की दृष्टि में अभिमान और स्वाभीमान एक जैसा प्रतीत होता है। 

आखिर ये तन खाक मिलेगा, काहे फिरत मगरूरी में।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, साहेब मिले सबुरी में।।

कबीर के कहने का तात्पर्य  हैं कि मगरूर होकर क्यों फिरते हो। ये जो मगरुरी है, अहंकार है किस बात को लेकर है। ना यह तन रहेगा और न कोई धन काम आवेगा। यह जो शरीर है, एक दिन जलकर राख क हो जावेगा। मिट्टी से बना शरीर मिट्टी में मिल जावेगा। जो नश्वर है, जहां ज्ञान है, उस आत्म स्वरूप को जानने का प्रयास करो। इस सांसारिक बंधन से मुक्ति के लिए मन में संतोष धारण करना होगा। कबीर कहते हैं कि हे साधो! जिसके मन में संतोष होता है, साहेब उसी को मिलते हैं। यहां साहेब का तात्पर्य परमात्मा से है। 

यह जो ऊर्जा है जीवन का परमात्मा का ही घटक है। जो अपने प्रयासों से आत्मबोध की अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं। वैसे पुरुष परमात्मा का अनुभव कर पाने में सफल हो जाते हैं। यह जो जीवन है, परमात्मा का ही देन है। 

वास्तव में जो आत्मज्ञानी होते हैं, वही स्वाभीमानी होते हैं। उन्हें ही स्वयं का ज्ञान हो पाता है। जिन्होंने स्वयं को जान लिया, उन्हें और कुछ जानने की इच्छा नहीं रहती। उनका मैं मिट जाता है, अहंकार मिट जाता है। और अगर अपने तन और मन पर अभिमान हो तो इसमें गलत कुछ भी नहीं है। क्योंकि इसी तन और मन को नियंत्रित कर आत्मज्ञान को पाया जाता है। 

यह स्व पर अभिमान है, ईश्वर पर अभिमान है। यही स्वाभीमान है, यह परोपकारी भाव है, अभिमान से निर्लिप्त भाव है। जिन्होंने कभी स्वयं को जानने का प्रयास ही नहीं किया। और सांसारिक गतिविधियों में ही लिप्त होकर जीते रहे, वे स्वाभीमान को कैसे समझ सकते हैं। 

स्वाभीमानी होना एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है। अध्यात्म के मार्ग पर चलकर ही स्व को, आत्म को जाना जा सकता है। जिसने स्व को समझा ही नहीं, वह स्वाभीमान को कैसे समझ सकता है?

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *