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सुमिरन का अर्थ।।

सुमिरन एक ऐसा शब्द है, जिसके अर्थ को दो तरह से समझा जा सकता है। सामान्यतः जब किसी को याद किया जाता है तो इसे सुमिरन समझा जाता है। 

गहनता से विचार करें तो सुमिरन का अर्थ होता है ‘स्मरण’। यह जो शब्द हैं, चिंतन के सदृश है। सुमिरन एक मनन योग है, जिसमें ध्यान, जाप आदि क्रियाओं ज्ञान के द्वारा दिव्यता के साथ संपर्क स्थापित करने का प्रयास किया जाता है। सुमिरन का अभ्यास भजन, प्रार्थना, सत्संग एवम् स्वाध्याय के माध्यम से भी किया जा सकता है। 

सुमिरन का अर्थ होता है ईश्वर या दिव्यता के आत्मिक स्वरूप को स्मरण, चिंतन एवम् ध्यान के माध्यम से प्राप्त करना। इसे एक धार्मिक या आध्यात्मिक प्रक्रिया के रूप में समझा जा सकता है। इस प्रक्रिया के द्वारा मन को शांत और स्थिर किया जा सकता है। और आत्मिक सुख की अनुभूति की जा सकती है। 

सुमिरन एक साधना है, एक आंतरिक सफर है, जिसमें चित्त को दिव्यता में विलीन किया जाता है। यह स्वयं को भूलकर उच्चतम के साथ मिलन की प्रक्रिया है।

दुख में सुमिरन सब करे सुख में करे न कोई।
जो सुख में सुमिरन करे तो दुख काहे का होय।।

यह जो उक्ति है, कबीर की वाणी है। जब कबीर ने ऐसा कहा है, तो इसके भावार्थ को समझना जरूरी है।

इसमें भी जो मुख्य शब्द का प्रयोग हुवा है, वह सुमिरन ही है। सुख और दुख दो अन्य शब्द हैं। इन दोनों का हमारे जीवन में आना जाना लगा रहता है। 

दुख में सुमिरन करने से हम अपने अपनी सहनशक्ति में वृद्धि कर सकते हैं। इसके द्वारा हमारा व्यथित मन शांत हो सकता है। और आंतरिक संघर्ष करते हुए हम दुख की पीड़ा से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। 

वहीं सुख में सुमिरन करने से हमें आनंद का अनुभव हो सकता है। यह जो आनंद की अवस्था है, स्थायी सुख की अवस्था है। एक बार जो कोई इस अवस्था को प्राप्त कर लेता है, उसे फिर कभी दुख की पीड़ा का अनुभव नहीं होता है।

दुख में सुमिरन सब करे – गहनता से विचार करें तो इस उक्ति में सुमिरन का आशय ईश्वर के स्मरण से है। दुख और सुख दोनो जीवन के अनिवार्य अंग हैं। जब किसी के जीवन में दुख का समय आता है, तो वह दुख की पीड़ा से मुक्ति पाना चाहता है। पहले तो वह उसे याद करता है, जिससे वह सहयोग की उम्मीद करता है। जब कोई उसके मदद के लिए आगे नहीं आता, तो वह ईश्वर का स्मरण करने लगता है। भजन, प्रार्थना, सत्संग,ध्यान, योग आदि क्रियाओं के द्वारा वह मन को पीड़ा मुक्त करने का प्रयास करने लगता है। 

परन्तु सुख के समय में हर कोई सुमिरन करना भुल जाता है। सुख के समय में कोई किसी को याद नहीं करता। अगर सुख के पलों में भी याद करते रहा जाए, तो दुख के पलों से निपटना आसान हो सकता है। सुख के समय अगर हमारा रवैया सहयोगात्मक हो, तो दुख के समय में हमें दुसरों का सहयोग भी मिलता है। दुख का समय तो आता है, पर दुख की पीड़ा का अनुभव नहीं होता। जब हम अच्छे समय से गुजर रहे हों, तो यह उक्ति हमें दुसरों के साथ सहयोगात्मक रवैया बनाए रखने की सीख देती है।

जो सुख में सुमिरन करे तो दुख काहे को होय- आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह उक्ति हमें बताती है कि सुख के समय में भी सुमिरन किया जाए, तो दुख के पलों से गुजरना आसान हो जाता है। दुख आता है, परन्तु इसकी पीड़ा का अनुभव नहीं होता। सुख के समय में व्यक्ति का मन प्रसन्न होता है। इस स्थिति में प्रार्थना, जाप, ध्यान आदि क्रियाओं का परिणाम शीघ्र प्राप्त होने की संभावना अधिक होती है। 

सुख के समय में मन व्यथित नहीं रहता, और थोड़े अभ्यास से ही इसे शांत एवम् स्थिर किया जा सकता है। शांत और स्थिर मन से सुमिरन किया जाए, तो शीघ्र ही दिव्यता का अनुभव हो सकता है। और यही सुमिरन का वास्तविक उद्देश्य है। यह परम सुख की अवस्था को प्राप्त करने की प्रक्रिया है। एक बार जिसे यह अवस्था प्राप्त हो जाता है, उसका जीवन आनंदमय हो जाता है।

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