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देख-भाल का अर्थ क्या है?

सामान्यतः देख-भाल का आशय किसी का ख्याल रखना समझा जाता है। देख एक क्रियात्मक शब्द है। देख का आशय किसी को देखने, निहारने की क्रिया से है। एक शब्द है संभाल, जिसका अर्थ है सहेज कर रखना। संभाल में भाल शब्द जुड़ा हुआ है, भाल के साथ सम उपसर्ग लगा हुवा है। सम का आशय समान, समतल, समस्त आदि समझा जाता है। इस प्रकार किसी चीज को ठीक तरह से देखना और संभालना देख-भाल कहा जा सकता है।

देख-भाल एक ऐसा युग्म शब्द है, जिसका अर्थ व्यापक है। इसकी परिधि में परहित एवम् आत्महित दोनों का समावेश है। किसी को संरक्षण देना, भरण-पोषण करना, मार्गदर्शन देना आदि क्रियाएं इसमें समाहित होते हैं। वहीं आत्मसुधार के प्रयास भी देख-भाल का ही एक रूप है। यह खुद का ख्याल रखना और और जीवन को सुखमय बनाने की प्रक्रिया भी है।

देख-भाल का एक समानार्थी युग्म शब्द है देख-रेख। देख और रेख, यहां रेख का संबंध रेखा से है। यहां रेख का तात्पर्य उचित और अनुचित के बीच का रेखा भी हो सकता है। देखना एक क्रिया है, और रेख सीमाओं को इंगित करता है। यह जो सीमा है, मर्यादा का भी हो सकता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि देख-रेख का आशय समदृष्टि से है। समान और तुल्य दृष्टि से है। अगर देखने में सीमाओं का उलंघन होता है, तो सही मायने में ऐसा करना देख-रेख नहीं है। 

किसी चीज का सही तरीके से देख-भाल करना महत्वपूर्ण है। अगर ऐसा न हो तो सकारात्मक परिणाम की संभावना न्युनतम हो जाता है। यह खुद पर भी और दुसरों के साथ किए गए कार्य-व्यवहार पर भी समान रूप से लागु होता है। अगर किसी चीज के देख-भाल के प्रति उचित सोच रखा जाए, तो इसके सकारात्मक परिणाम प्राप्त होते हैं।

भाल का एक अर्थ होता है ललाट।  कपाल, मस्तख आदि भी इसके समानार्थी शब्द हैं। ललाट यानि मस्तिष्क का अग्रभाग। मनुष्य के शारीरिक संरचना की बात करें, तो ललाट आंखों से ऊपर का भाग है। यह मस्तिष्क का बाहरी आवरण है। और देखने की क्रिया का संबंध आंखों से है। मनुष्य आंखों से देखता है, ललाट से नहीं।  फिर देख और भाल का प्रयोग एक साथ करने का अर्थ क्या है? यह समझने की बात है।

ललाट जो कि मस्तिष्क का अग्रभाग है। और मस्तिष्क का संबंध सोचने, समझने की क्रिया से है। उचित और अनुचित का विचार मस्तिष्क के द्वारा ही होता है। देखना आंखो का काम है, लेकिन क्या देखना है, यह महत्वपूर्ण है। किसी का कितना ख्याल रखना है, यह महत्वपूर्ण है। किसी चीज का कितना ख्याल रखा जाए, इस पर विचार जरुरी है। जरूरत से ज्यादा और जरुरत से कम ख्याल रखना दोनों ही अनुचित है। 

अब प्रश्न है कि हम देखते क्या हैं? हम वही देखते हैं, जो मन हमें दिखाता है। हम वही करते हैं, जो मन हमसे करवाता है। और यह जो मन है, मोह के पाश में उलझा हुआ रहता है। हम उसी के विषय में सोचते हैं, उसी का ख्याल रखते हैं, जिसके प्रति मन आसक्त होता है। और ऐसा करते हुवे हमसे गलतियां भी हो जाती हैं। किसी का कितना ख्याल रखना है, इस पर विचार नहीं कर पाते। और मोह से ग्रस्त होकर किसी का ख्याल रखने को ही हम देख-भाल समझते हैं। 

सही मायने में देख और भाल का एक साथ प्रयोग का आशय विशिष्ट है। अब प्रश्न है कि जब हम सबकुछ मन के अनुसार ही करते हैं। जो मन को अच्छा लगता है, हम वही व्यवहार करते हैं। हमारे मन में जो चल रहा होता है, हमारे मस्तिष्क में उन्हीं विचारों की तरंगे उत्पन्न होती हैं। तो फिर देख-भाल का विशिष्ट आशय क्या है?

सामान्यतः हम जिन आंखों से देखते हैं, यह तो इंद्रिय है, एक यंत्र मात्र है। हमारे शरीर में पांच इंद्रियां हैं, इन्हीं के द्वारा हम बाहर के संसार का अनुभव करते हैं। और इन्हीं अनुभवों के द्वारा हमारा खुद का आचरण भी प्रभावित होता है। सामान्यतः हम मन के ऊपरी तल से चीजों को देखते हैं। मन का ऊपरी तल, जो अहंकार से, स्वार्थ से, मोह से ग्रस्त होता है। इससे हमारा मस्तिष्क भी प्रभावित रहता है, और हमारी बुद्धि मन को संतुष्ट करने में लगी रहती है। 

देख-भाल का विशिष्ट आशय है, मन की आंखों से देखना। यहां मन का आशय अंतरमन से है। बुद्धि मन के ऊपरी तल का विषय है, जबकि अंतर्मन में ज्ञान निहित होता है। जब भीतर मन में निहित ज्ञान का प्रादुर्भाव हो जाता है, तो देखने का ढंग बदल जाता है। वास्तव में यह जो ललाट है, जिसे भाल भी कहा जाता है, तीसरी आंख है। यह भीतर मन की दृष्टि है, जिसका दृष्टिकोण मोहग्रस्त मन से भिन्न होता है। देख-भाल का वास्तविक आशय है, भाल से देखना। अर्थात् अंतर्मन की आंखों से देखना। यह वो दृष्टिकोण है, जहां हर चीज का ख्याल उचित ढंग से रखा जा सकता है। 

पहले खुद का देख-भाल करने की सीख महत्वपूर्ण है। जीवन के सामान्य गतिविधियों में खुद के आचरण का देख-भाल करना अत्यंत महत्वपूर्ण है। जो खुद का ख्याल रखना सीख जाते हैं, उन्हें दुसरों का ख्याल रखना भी जान जाते हैं। और जहां तक बात मन की आंखों से देखने की बात है, तो इसके लिए कठिन साधना की जरूरत पड़ती है। जीवन में यौगिक क्रियाओं का निरंतर अभ्यास से इस स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है। योग में जो सिद्ध हो जाते हैं, उनका मलीन मन निर्मल हो जाता है। भीतर मन में ज्ञान का संचार हो जाता है। इस संसार की समस्त गतिविधियों को इसी मन की आंखों से देखते हैं। कोई भी, कुछ भी उनके मन को अशांत नहीं कर पाता। इस संसार में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं, जिन्होंने अपने प्रयासों खुद का एवम् औरों का ख्याल रखना करना सीखा है। ऐसे लोग युग युगांतर तक लोगों के प्रेरणास्रोत बने रहेंगे।

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