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मर्यादा क्या है? — What Is Modesty?

मर्यादा का अर्थ ! Meaning of modesty.

मर्यादा का संबंध शालिनता, शिष्टाचार से है। वह व्यवहार जिसमें उत्तमता का भाव हो। मर्यादा का सामान्य आशय है सीमाओं के अन्दर रहना। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, और प्रत्येक समाज, समुदाय के अपने कुछ नियम और मान्यताएं होती हैं। समाज में दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच जो संबंध बनते हैं। उन सभी संबंधो को चलाने के कुछ आचार होते हैं, नियम होते हैं। इन आचारों, नियमों का पालन करना ही मर्यादा में रहना समझा जाता है। मर्यादा में रहने वाला, मर्यादा का पालन करनेवाला मर्यादित कहलाता है। समाज के द्वारा निर्दिष्ट आचारों का, सीमाओं का उलंघन करना, आचरणहीनता का प्रर्दशन, मर्यादा का उलंघन समझा जाता है। 

यह अनेक रुपों में जीवन में उपस्थित होता है। जैसे सामाजिक मर्यादा, कुल-परिवार की मर्यादा, रिश्तों की मर्यादा, सांस्कृतिक मर्यादा, धार्मिक मर्यादा आदि। परन्तु जब तक कोई व्यक्ति स्वयं को मर्यादा की सीमा में रखने का प्रयास नहीं करता, वह किसी अन्य मर्यादा का पालन कैसे कर सकता है! प्रत्येक स्वरुप में इसका पालन करने हेतु जो मूल तत्त्व है, वह है व्यक्ति का आचरण। और आचरण की उत्तमता के लिए भाषा, वाणी अथवा वचन पर नियंत्रण रखने की महत्ती आवश्यकता है।

महाभारत का एक विशिष्ट पात्र महात्मा विदुर अपनी नैतिकता एवम् जीवनशैली के लिए जाने जाते हैं। मानव कल्याण के निमित्त उन्होंने जो बातें कही हैं, विदुर नीति कहलाती है। विदुर नीति के अनुसार; भाषा की मधुरता व्यक्ति का आभुषण होता है। वाणी की सुन्दरता भाषा की विनम्रता से ही है। 

ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोय। औरन को शीतल करे आपहुं शीतल होय।।

कबीरदास का कथन है; कि भाषा का प्रयोग करते समय व्यक्ति को विनम्र होना चाहिए। ऐसी बोली बोलनी चाहिए, जिसे सुनकर दुसरे को अच्छा लगे। वाणी ऐसी बोलनी चाहिए, जो औरों के मन को शीतल करे। और साथ ही साथ स्वयं के मन को भी शीतलता मिले। 

कटु वचन तीर के समान हृदय को चुभता है। तलवार से जो जख्म शरीर को मिलता है, उपचार के बाद उसे ठीक किया जा सकता है। परन्तु कटु वाणी से जो जख्म मन को होता है, उसे ठीक करना असंभव हो जाता है। मधुर वाणी व्यक्ति को परिवार से, समाज से जोड़ता है। और कटु वाणी उसे हर जगह से पृथक कर देता है। जिनकी भाषा अमर्यादित होती है, दुसरे उनसे धीरे-धीरे दुर होते चले जाते हैं। भाषा के कारण ही अपने पराये और पराये अपने हो जाते हैं। प्रत्यक्ष या परोक्ष दोनों ही स्थितियों में किसी के प्रति कठोर अथवा निंदनीय भाषा का प्रयोग अनुचित होता है। विवेकवान व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में भाषा की मर्यादा का उलंघन नहीं करते।

सर्वप्रथम यह महत्त्वपूर्ण है कि व्यक्ति का स्वभाव कैसा है। प्रत्येक को सर्वप्रथम अपने आचरण पर दृष्टि डालना चाहिए। परिवार क्या है ? व्यक्तियों का समूह है, वैसा समुह जिसमें प्रत्येक एक दुसरे से किसी न किसी रिश्तों से जुड़े हुवे हैं। और परिवारों का समूह समाज का निर्माण करता है। यह बात अलग है कि प्रत्येक समूह अथवा समाज की अपनी अपनी मान्यताएं होती हैं। जब मान्यताओं का सम्मान नहीं होता, परम्पराओं का टुटना प्रारंभ हो जाता है तो मर्यादा का उलंघन होता है। 

संसार में रिश्तों के, समाज के मर्यादा का पालन करने वाले अनेक विभूतियों का उदाहरण मिलता है। जिन्होंने रामायण पढ़ी है, वे श्रीराम के संबंध में अवश्य जानते होंगे। श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया है। श्रीराम की मातृ-पितृ एवम् गुरु भक्ति, भ्रातृ प्रेम, पत्नी के प्रति निष्ठा एवम् समस्त प्रजाजनों के प्रति सम्मान का भाव अनुकरणीय है। मनुष्य जीवन के विभिन्न कर्तव्यों का निर्वहन पूर्ण मर्यादित रहकर कैसे किया जाए! श्रीराम से सीखा जा सकता है। वहीं श्रीराम के तीनों अनुज भरत, लक्ष्मण एवम् शत्रुघ्न ने भी यह भली भांति दर्शाया है कि अपनी सीमाओं में रहकर मर्यादा का पालन कैसे किया जाता है। नारीत्व की मर्यादा क्या है, यह देवी सीता से सीखा जा सकता है। 

पिता का मान रखने के लिए श्रीराम वनवास को चले गए। वह चाहते तो विद्रोह कर सकते थे। वह एक कुशल योद्धा थे, प्रजा उनके साथ खड़ी थी। उनके लिए राज्य को अपने अधिकार में लेना सरल था। और उनके पिता भी यह नहीं चाहते थे कि श्रीराम उन्हें छोड़कर चले जाएं। गौरतलब यह है कि उन्होंने पिता के वचन को स्वेच्छा से एवम् पुरे मन से अंगीकार किया।

अब बात भरत की करते हैं। केकैयी के द्वारा जिस राज्य के लिए राम को वनवास भेजने का षड्यंत्र किया गया। उस राज्य को त्यागने में भरत को क्षण भर देर नहीं लगी। अंत में वे श्रीराम के कहने पर प्रतिनिधि के रुप में राज्य के संचालन को तैयार हुवे। श्रीराम के चरणपादुका को सिंहासन में रखकर वे श्रीराम के लौट आने तक कर्तव्य का निर्वाह करते रहे। 

लक्ष्मण तो श्रीराम के साथ-साथ वन चले गये। चारों भाइयों के आपसी समझ और प्रेम के बीच कोई दिवार नहीं थी। न तो राज्य का, न संपती का, और नाही स्वार्थी पत्नियों का। लक्ष्मण जब श्रीराम के साथ वन जाने का निर्णय लिया तो सुमित्रा विरोध कर सकती थी। परन्तु उसने पति के मर्यादा का ख्याल कर विरह की वेदना को अंगीकार कर लिया। भरत की पत्नी ने भरत से यह कभी नहीं कहा कि राजसी सुख का त्याग कर आप योगी का जीवन क्यों व्यतीत करते हो। उसने हमेंशा भरत का साथ दिया। 

सीता जिनकी दृष्टि में भरत,लक्ष्मण और शत्रुघ्न पुत्र के समान थे। श्रीराम के साथ उनका वन गमन निर्णय एक पतिव्रता नारी का निर्णय था। परन्तु गौरतलब यह है कि श्री राम ने जब सीता का त्याग किया, तो उस वक्त भी वन गमन का निर्णय देवी सीता ने ही लिया था। जब ऐसी स्थिति उपस्थित हुवी। तो श्रीराम को चिंतित देख सीता ने स्वयं गुप्तचरों के द्वारा वस्तु स्थिति से अवगत होना जरूरी समझा। और एक राजा के मर्यादा मान रखने के लिए स्वयं वन गमन को सज हो गयी।

बात महाभारत की कथा की है। द्युत क्रीड़ा में महाराज युधिष्ठिर अपना राज्य हार गए। तब शकुनी द्वारा यह कहकर उकसाया गया कि अगर आपको अपने भाईयों पर गर्व है तो वे भी आपके संपत्ति हैं। अतः आप उन्हें दांव पर लगाईये। और एक एक कर युधिष्ठिर अपने सभी भाईयों को दांव पर लगा दिये। किसी ने विद्रोह नहीं किया। देवव्रत जिन्हें भीष्म पितामह के नाम से जाना जाता है। अपने पिता के इच्छा को स्वयं के प्रयास से जानकर, उस इच्छा को पूरा करने के लिए आजीवन ब्रम्हचर्य रहने की प्रतिज्ञा ले ली। दान के मर्यादा का पालन करने के लिए कर्ण ने खुशी-खुशी अपने क्वच कुंडल दान कर दिए। 

पांच पांडवों की पत्नी थी द्रोपदी। परन्तु इस असहज रिश्ते का निर्माण माता कुन्ती के वचन के मर्यादा को निभाने के कारण ही अस्तित्व में आया। कहा जाता है कि स्वयंवर में द्रोपति का वरण करने के पश्चात, जब भाईयों सहित अर्जुन ने माता से यह कहा कि;  माते हम तुम्हारे लिए एक उपहार लेकर आये हैं। तो विना वस्तु स्थिति से अवगत हुवे उन्होंने सभी भाईयों को आपस में बांट लेने को कहा। परन्तु समाज में अस्वीकार्य इस रिश्ते को भी द्रोपदी ने पुरे मर्यादा के साथ निभाया। और एक आदर्श नारी के रुप में खुद को प्रतिष्ठित किया। 

कहा जाता है कि पांचो पांडवों के बीच एकता कि कड़ी द्रोपदी ही थी। क्योंकि सबने मिलकर द्रोपदी के मान-मर्यादा का पालन करने का शपथ लिया था। परन्तु श्रीराम और उनके तीन भाईयों की पत्नियां तो अलग-अलग थीं। फिर उनके बीच के भ्रातृ प्रेम और समझ का क्या कारण था। निश्चित तौर पर यह कहा जा सकता है कि देवी सीता समेत उनकी तीनों देवरानियां परिवार के, समाज के मर्यादा को भली-भांति समझती थी। 

बात जहां तक नारीत्व के आचरण की है, प्रसिद्ध कथाकार राधाकृष्ण के शब्दों में; ‘ नारी का मर्यादा घुंघट के पट और दरवाजे के ओट में नहीं, उसके स्वभाव में होती है।’ मुंशी प्रेमचंद ने अपनी रचना ‘बड़ी घर की बेटी’ में कहा है कि ‘ बड़ी घर की बेटियां ऐसी ही होती हैं, बिगड़ता हुवा काम बना देती हैं।’ अपना-पराया का भाव जिस नारी के आचरण में है, उससे परिवार का भला नहीं हो सकता।  

भारतिय संस्कृति में रसोई को भी मंदिर की संज्ञा दी गई है। रसोई में दुसरों को खिलाने के लिए, दुसरों के पसंद का भोजन पकाने की शिक्षा दी गई है। और यह भी विधान है कि जब बाकि सब ग्रहण कर लें, तभी पकाने वाले को ग्रहण करना चाहिए। सबको संतुष्ट करने के पश्चात जो भोजन बच जाता है, प्रसाद के समान माना जाता है। ज्ञानीजन कह गए हैं कि परिवार की मर्यादा उस परिवार में रहने वाली नारियों पर पुरुषों से अधिक निर्भर करता है। जिस परिवार में एक भी नारी ऐसी होती है, जो निज के भावना से ऊपर उठकर सबका ख्याल रखने का प्रयास करती है। वह परिवार बहुत हद तक उसके दम पर चल रहा होता है। यह बात अलग है कि उसका त्याग किसी को नजर नहीं आता।

कहते हैं कि घर दिवारों से नहीं बनता। उसमें रह रहे लोगों से बनता है। और घर में रह रहे अथवा घर का देखभाल कर रहे इन्हीं लोगों से परिवार बनता है। आज के परिवेश में रसोई की मर्यादा, घर की मर्यादा अथवा परिवार की मर्यादा का पालन किस प्रकार हो रहा है, यह विचारणीय विषय है। 

प्रेम निज के स्वार्थ से परे होता है। प्रेम और मोह के बीच धरा-गगन का अन्तराल है। प्रेम हमेंशा त्याग सिखाता है। वह कभी आपस में व्यव्हारों के लेन-देन का हिसाब नहीं रखता। ठीक उसी प्रकार सम्मान करने और सम्मान देने या सम्मान देने का प्रर्दशन करने में फर्क होता है। भरत ने कभी श्रीराम को यह नहीं जताया कि मैने आपके लिए त्याग किया। और ना ही भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव जैसे समर्थ भाईयों ने युधिष्ठिर को किसी बात को लेकर कभी कोई उलाहना दिया। 

ज्ञानियों के द्वारा बहुत सोच समझकर मानव समाज की व्याख्या की गई है। परिवारों का समूह ही समाज का निर्माण करता है। और एक परिवार में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति पर उस परिवार का मर्यादा निर्भर करता है। आज के समय में मर्यादा, आदर्श जैसे शब्द केवल दुसरों को सुनाने के लिए प्रयोग किया जाता है। वास्तविकता तो यह है कि लोग अपने आचरण पर कम दुसरो के आचरण पर ही नजर रखने में लगे रहते हैं। जब तक प्रत्येक अपने आचरण पर ध्यान नहीं देगा, तो परिवार के मर्यादा का पालन कैसे हो सकता है। और जिस समाज में मर्यादा का पालन करने वाला परिवार न हो, वह समाज मर्यादित कैसे हो सकता है।

काम, क्रोध, मोह और लालच के प्रभाव में आकर मनुष्य अकसर सीमाओं का उलंघन करता रहता है। और इस बात का आभास होने के वावजूद वह अपने अहम् की तुष्टी के लिए अपने कृत्यों को सही ठहराने का प्रयास करता रहता है। एक पुरानी कहावत है; हम सुधरेंगे तो जग सुधरेगा! खुद को सुधारने के लिए कोई चिंतन नहीं, कोई प्रयास  नहीं। और दुसरों की गलतियों पर नजर रखना कहां तक उचित है। अगर हम स्वयं को मर्यादा के सीमा में रखने में असमर्थ हैं तो दुसरों के मर्यादा में रहने का विचार कैसे कर सकते हैं।

रिश्ते नाते क्या होते हैं जानिए !

एक परिवार के अन्तर्गत अनेक रिश्ते होते हैं। माता-पिता के साथ उनके संतानों का रिश्ता, भाई-भाई का रिश्ता, भाई-बहन का रिश्ता, सास-बहू का रिश्ता, देवर-भाभी का रिश्ता आदि। और प्रत्येक रिश्ते की अपनी मर्यादा होती है। और हर व्यक्ति को जीवन में अनेक रिश्तों को साथ लेकर चलना होता है। और प्रत्येक रिश्ते की एक मर्यादा होती है। एक चिंतनशील व्यक्ति ही इन बातों को समझ सकता है।

व्यवहार कुशल होना जरुरी क्यों है – Vyavahar Kushal Hona Jaruri Kyun Hai

अज्ञान के अन्धकार में चीजें अपने सही स्वरुप नजर नहीं आती। जब तक व्यक्ति अज्ञानता के अंधकार में पड़ा रहेगा, वह किसी प्रकार के मर्यादा का पालन नहीं कर सकता। जगत में मर्यादा पालन के अनेक अप्रतीम उदाहरण मिलते हैं, जो विचारणीय हैं। ज्ञानियों की मानें तो रामायण की घटनाएं दस हजार साल और महाभारत की घटनाएंपांच हजार साल पुर्व की हैं। परन्तु आज के युग में भी प्रासंगिक हैं। रामायण और महाभारत का अध्ययन हर किसी को अवश्य करना चाहिए।

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