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उपकार का अर्थ — Meaning of Favor

उपकार का सामान्य अर्थ भलाई करने से है। किसी की भलाई अथवा हित के लिए सहायता करना उपकार कहलाता है। अपने व्यापक स्वरुप में उपकार का अर्थ बदल जाता है। खुद का भला करना हो अथवा दुसरों का भला करना हो, जो कृत्य भलाई के लिए किया जाता हो वास्तव में वही उपकार है। 

किसी के जीवन में चल रहे समस्याओं से निजात दिलाने के लिए उसका साथ देना, परोपकार कहलाता है। परन्तु दुसरों की भलाई के लिए निस्वार्थ भाव से किये जाने वाला कृत्य ही वास्वव में परोपकार होता है। स्वंय के जीवन को संवारने के लिए, आत्मसुधार के लिए जो कृत्य होता है, निज के लिए उपकार है।

अपकार अधर्म है !

उपकार का विपरीत है अपकार। अपकार यानि कष्ट देना, हानि पहुंचाना, अहित करना। जब तक कोई व्यक्ति खुद का आकलन नहीं करता, वह स्वयं अपना अपकार करता रहता है। मन में व्याप्त कामना, क्रोध, मोह, असंतोष आदि अवांछनीय त्तत्वों के प्रभाव में व्यक्ति खुद का अहित करता रहता है। ज्ञानियों का कहना है कि जो खुद का भला नहीं कर सकता वह दुसरों का भला कैसे कर सकता है। अर्थात् हमसे परोपकार तभी होंगे जब हम निज का उपकार करने में समर्थ हों। 

जब तक कोई व्यक्ति निजी स्वार्थ के चक्कर में पड़ा रहेगा, दुसरे का उपकार नहीं कर सकता। परोपकार का संबंध हृदय से होता है।  जो व्यवहार हृदय से किसी के लिए होता है, उसका संबंध हृदय में उमड़ रहे उत्तम भावनाओं से होता है। जो व्यवहार किसी के लिए किया जाता है और करके जताया जाता है, वास्तव में वह उपकार नहीं होता। जब कोई किसी का सहायता कर रहा होता है तो सहायता लेनेवाला व्यक्ति विवशता में ही उसे स्वीकार करता है। परन्तु कर्ता इस बात से अनभिज्ञ रहता है कि उपकृत व्यक्ति का स्वाभिमान का क्या? 

परोपकार दिल से : Benevolence from heart

ज्ञानियों का कहना है कि एक हाथ को यह मालूम नहीं होना चाहिए कि दुसरा हाथ उसे क्या दे रहा है। परोपकार हृदय से होता है और जिसे साधारण मनुष्य उपकार समझता है, वह मन से होता है। और मन तो मन है, वह कभी आसक्त तो कभी विरक्त होता रहता है, कभी चीजों के प्रति, कभी संबंधों के प्रति। सबकुछ समझ के स्तर पर निर्भर करता है।

शास्त्रों में कहा गया है; जो अहित करने वालों का भी उपकार करता है, वह साधु पुरुष होता है, सज्जन पुरुष कहलाता है। और जो उपकार करने वाला है, उसके लिए उपकार करने में कौन सी सज्जनता है, वह तो ऋण चुकाना है।

अपकारिषु य: साधु: साधु सद्भिरुच्यते। उपकारिषु य: साधु: साधुत्य तस्य का गुण:।।

जीवन में कुछ ऐसे ऋण होते हैं, जो जन्म लेने के साथ ही इकट्ठे होने लगते हैं। ऐ ऐसे ऋण होते हैं जिन्हें चुकाया नहीं जा सकता। जरा सोचिए! जन्मदात्री माता का ऋण, उसके दुध का कर्ज, आप पर लुटाये उसकी ममता का ऋण कभी चुकाया जा सकता है। अपने जन्मदात्री के लिए कोई जो कुछ भी करता है, वह कम है। ठीक उसी प्रकार पिता का ऋण, गुरु का ऋण कभी चुकाया तो नहीं जा सकता। परन्तु जिस किसी ने कभी आपके हित के लिए कुछ किया हो, उनकेे हित के लिए हमेशा तत्पर रहना चाहिए।

बचपन से लेकर वयस्क होने तक माता-पिता, गुरुजनों, बड़ेजनों, सगे-संबंधियों से जो कदम आपके हित के लिए समय-समय पर उठाया गया है। उनके हित के लिए, सुख के लिए अगर कुछ अच्छा किया जाय तो वह उपकार नहीं है। वह श्रृण जो आपका उपकार करके कभी किसी ने दिया है, उस श्रृण को चुकता करना होता है। 

जहां तक बात किसी का सहयोग लेने का है तो लेन-देन तो करना ही होता है। हमारा खुद का शरीर भी सहयोग की महता को परिभाषित करता है। जब हम कदम बढ़ा रहे होते हैं तो एक पैर दुसरे पैर को सहयोग करता है। और एक को दुसरे का सहयोग लेना ही होता है। एक पैर के सहारे छोटी सी दुरी भी तय नहीं हो सकती। एक आंख को दुसरे आंख का सहारा लेना पड़ता है। हर किसी को किसी न किसी प्रकार से अन्य से सहयोग लेनी पड़ती है।

जीवन पथ में विभिन्न प्रकार के उलझनों का सामना करना पड़ता है। और कठिनाइयों का सामना करना ही एकमात्र विकल्प होता है। स्वयं के प्रयास से एवम् दुसरों के सहयोग से कठिन से कठिन परिस्थितियों से उबरा जा सकता है। कठिन परिस्थितियों से हित और अहित करने वालों की परख भी होती है। पंडित तुलसीदास ने कहा है;

धीरज धरम मित्र और नारी। आपद काल परखिए चारी।।

कठिन समय में ही धैर्य की परीक्षा होती है। आप विवेक पूर्ण निर्णय लेने सक्षम हैं तभी इन परिस्थितियों में धार्मिक बने रह सकते हैं। परिस्थितियों से घबरा कर अगर अनुचित मार्ग पर चले गए तों धर्म भ्रष्ट हो जाता है। मित्र वही है जो कठिन परिस्थितियों में साथ नहीं छोड़ता। और नारी सिर्फ सुख की सहभागी है या दुख में भी साथ होती है, इसकी परख भी आपद काल में ही होती है। उत्तम विचारों को धारण करने वाली नारी का संग जिसे प्राप्त होता है, वह सौभाग्यशाली होता है। और जिसे यह प्राप्त है, निश्चित रुप से कहा जा सकता है कि उसे दैविक कृपा प्राप्त है। 

साधारण नारी का संपूर्ण कृत्य अपने स्वार्थ की परिधि तक ही सीमित होता है। और गौरतलब है कि पुरुष उसके प्रपंच को समझ ही नहीं पाता। ऐसी ही नारियों के चरित्र को लेकर महाकवि तुलसीदास ने यह बात लिखी है; ‘नारी नीर नीचे धावै’। 

एक समय की बात है। एक लम्बे अर्से के बाद एक व्यस्क मित्र दुसरे व्यस्क मित्र से मिलने उसके निवास स्थल पर गया। मुलाकात हुवी हाल चाल हुवी। फिर वह वापस लौट गया। पुनः कुछ दिनों के बाद किसी चौराहे पर उसकी मुलाकात उस मित्र से हो जाती है। और वह अपने मित्र से पत्नी के साथ अपने घर आने का आग्रह करता है। उसका मित्र उसके आग्रह के पीछे का कारण जानना चाहता है। इस पर वह बताता है कि मेंरी पत्नी उनसे मिलना चाहती है। मेंरी पत्नी का यह मानना है कि उनका मेंरे घर आने से मुझे शुकुन मिलेगा। 

मित्र ने कहा ऐसा क्यों? तब उसने विस्तार से सारी बात बताई। उसने कहा; जब मैं आपके घर से लौटा तो उसने आपके विषय में जानने की इच्छा व्यक्त की। मैंने उसे सारा वृतांत सुनाया जो मैने आपके घर देखा। मैने वहां कम उम्र के बच्चों को भी देखा और किशोर बालक, बालिकाओं को भी देखा। सभी का आवभाव, मुखमुद्रा को देखकर मैने जो अनुभव किया, अपनी पत्नी को सुनाया। जब उससे यह कहा कि वह जो बच्चे वहां हैं, उनके भाईयों के बच्चे हैं। उनके बच्चे बाहर अध्ययनरत हैं, उनके साथ नहीं रहते। इसी बात से वह प्रभावित है और आपकी पत्नी का अभिनंदन करना चाहती है।

यह बात सुनकर उसके मित्र ने कहा कि इसमें कौन सी बड़ी बात हो गयी। आखिर बच्चे तो बच्चे हैं, भाईयों के बच्चे भी तो मेंरे ही हैं। उनका देखभाल करना तो सामान्य सी बात है। उसने कहा मैने भी उससे यही कहा, पर वह जिद पर अड़ी है। उसका कहना है कि साधारण नारी का सोच अपना पति और अपने बच्चे तक सीमित होता है। दुसरों के बच्चों को स्वाभाविक प्यार वह दे ही नहीं सकती। यहां तक कि दुसरे के बच्चों का मल मूत्र साफ करना तो उसे विल्कुल नागवार लगता है। सामान्यतः दुसरों के लिए उसके मन में भेदभाव, प्रपंच ही होता है। कुछ तो दिखावा करने में माहिर होती हैं और कुछ तो विद्रोह पर उतर जाती हैं। जो नारी दुसरों के बच्चों को सहेजकर रखती है, किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं करती है, उसमें जरूर कोई विशेष गुण है। कृप्या आप उन्हें लेकर मेंरे घर तक आईये, मैं पुनः आपसे आग्रह करता हूं। 

इस बात से यह सीख मिलती है कि व्यक्ति का स्वभाव छुपता नहीं है। समाज हमें बताता है कि हम क्या हैं, हमारा आचरण कैसा है, हमारी खूबियां क्या है, और कमियां क्या हैं। जो इन बातों पर गौर करते हैं, एकान्त में स्वयं को सुधारने के लिए विचार करते हैं। और खुद का उपकार करने का प्रयास करते हैं। जो अपने आचरण को हर हाल में सही साबित करने का प्रपंच करते हैं, खुद का भी और दुसरों का भी अपकार करते हैं। 

एक कथा महाकवि सुर्यकांत त्रिपाठी निराला के जीवन से संबंधित है जो मैंने पढ़ी है। एक समय की बात है, निराला जी का एक करीबी मित्र उनसे मिलने गये। घर के दरवाजे पर उन्होंने दस्तक दी। अन्दर से उनकी पत्नी ने आवाज दी; भैया कवि जी अभी घर में नहीं हैं। आप थोड़ी देर के बाद आकर मिल लिजियेगा। मित्र हैरान हो गया। ऐसा कभी हुवा नहीं था। निराला जी घर में ना हों, फिर भी वह घर के अंदर तक जाते थे। करीबी मित्र थे तो स्वाभाविक है कि संबंधों में औपचारिकता नहीं थी।

उनसे रहा नहीं गया, आखिर दरवाजा नहीं खुलने की वजह क्या है। कोई समस्या तो नहीं है। उन्होंने खिड़की से अंदर झांका। उन्होंने देखा एक साड़ी जो भीगी हुवी है, और सुखने के लिए पसारी गयी है। और उन्हें यह आभास हुवा कि कमरे के अंधेरे कोने में दुबक कर कोई बैठी हुवी है। उन्हें सब कुछ समझ में आ गया। और यह कहते हुवे कि थोड़ी देर में आता हूं भाभी जी, वहां से निकल पड़े।

यह सभी जानते हैं कि निराला जी की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। वह एक तपस्वी की भांति जीवन जीते थे। उनकी पत्नी के पास सिर्फ एक वस्त्र हुवा करता। स्नान करते वक्त जब भीग जाता तो अंधेरे को वस्त्र बनाकर बैठी रहतीं। जब तक वह वस्त्र सुख नहीं जाता। फिर सुखा हुवा वस्त्र पहनकर काम काज में लग जातीं। उन्हें निराला जी से कोई शिकायत नहीं थी। अगर उनके जैसा जीवन संगिनी ना होती तो शायद लोगों को निराला कवि नहीं मिलता। नारी अगर मर्यादा में रहे तो पुरे परिवार का, समाज का उपकार करती है। और सीमा का उलंघन करे तो पुरे माहौल को खराब कर देती है। नारी का मर्यादा परिवार को जोड़ने में होता है।

पुरूष का सामर्थ्य और सम्मान अप्रत्यक्ष रुप से नारी पर ही निर्भर करता है। जरा सोचिए दरवाजे पर आये एक याचक को दान देने की मर्यादा का पालन करने के क्रम में माता सीता से सीमा का उलंघन हो गया। यह याचक का प्रपंच था। कभी ऐसा भी हो जाता है कि किसी एक मर्यादा को निभाने में दुसरा मर्यादा का उलंघन हो जाता है। यही देवी सीता के साथ हुवा, वह लक्ष्मण रेखा पार कर गई। परन्तु रावण जो चाहता था, अगर देवी सीता मान गई होती तो श्रीराम किसके लिए युद्ध करते। लक्ष्मण के धनुष के टंकार का क्या अर्थ रह जाता। देवी सीता ने अपने आत्मबल से अपने नारीत्व को बचाये रखा। तभी श्रीराम का सामर्थ्य पुर्ण रुप से बाहर आ पाया। और युद्ध में रावण को पराजित कर देवी सीता को वापस पाने में सफल हुवे। 

सुमति है तो सम्पति है : wisdom is your property..!

सामुहिक सोच से मुश्किल से मुश्किल परिस्थितियों से उबरना आसान हो जाता है। परन्तु अगर आपस में सही समझ विकसित न हो तो आसान सा काम भी उलझ जाता है। आपसी तालमेल का दिखावा करना और तालमेल का होना दोनों के मायने अलग होते हैं। एक हमेंशा उलझाता है तो दुसरा सुलझाता है। साहिर लुधियानवी के इस गीत की पंक्तियों पर गौर तो सहयोग की महता समझ में आती है।

एक से एक मिले तो कतरा बन जाता है दरिया, एक से एक मिले तो जर्रा बन जाता है सेहरा। एक से एक मिले तो राय बन सकती है परबत, एक से एक मिले तो इंसान वश में करले किस्मत। साथी हाथ बढ़ाना ..!

साधारण मनुष्य इन बातों पर गहराई से विचार नहीं करता। वह अपनी समस्याओं में ही उलझा रहता है। या फिर जिन विषय-वस्तुओं की कामना करता है, उसी में उलझा रहता है। जिस व्यक्ति अथवा जिस रिश्ते के प्रति आसक्त होता है, उसी के अनुसार सोचता है। इस प्रकार से वह धीरे-धीरे अनेक महत्त्वपूर्ण संबंधों से दुर होता चला जाता है। और अंततः इससे किसी का कोई भला नहीं होता। 

विचलित मन ना तो स्वयं का उपकार कर पाता है। और ना ही किसी और का। बात बात पर विचलित होते मन का कारण है; भीतर समता का न होना। और ज्ञान के अभाव में भीतर सम का विकास नहीं हो पाता। 

ओशो के शब्दों में मन का विकास ही चूनाव की वजह से होता है। जिस चीज को मन चूनता है, बहुत जल्द उससे उब जाता है। मन ठहर नहीं सकता। इसलिए मन जिसे चूनता है, उसके विपरीत चला जाता है। आज जिसे प्रेम करते हैं, कल उससे घृणा करने लगते हैं। 

आज हम जिसकी सहायता करने का मन बना लेते हैं, कल यह सब बोझ प्रतीत होने लगता है। मन कहीं और किसी विषय पर चला जाता है। कल का लिया गया निर्णय भावावेश में लिया गया निर्णय साबित हो जाता है। जीवन में सब जगह द्वंद है। रिश्तों में भी द्वंद है। वह किसकी सुने, जिन लोगों के बीच पला बढ़ा है उनकी। या उसकी जिसके साथ उसके रिश्ते बाद के दिनों में जुड़े हों। इस स्थिति से बाहर निकलने का एक ही रास्ता है, हमेंशा अपने दिल की सुनो। 

उदाहरण स्वरुप देखा जाए तो एक साधारण व्यक्ति दो रिश्तों में अधिकांश समय आसक्त होकर व्यतीत करता है। और ये दो मुख्य हैं एक मां का और दुसरी पत्नी का। परन्तु अधिकांशतः यह देखा गया है कि दुसरे के आते ही व्यक्ति पहले से विरक्त हुवा जाता है। वे लोग विरले होते हैं जो संबंधों में सम भाव को बनाये रखने में समर्थ होते हैं।

विवेकानंद के शब्दों में; जब दिल और दिमाग में जंग हो तो हमेंशा दिल की सुनो। किसी भी विचार को क्रियान्वित करने से पहले ठहर कर विचार अवश्य करना चाहिए। किसी के कृत्य से उसका अथवा दुसरों का उपकार हो रहा है, अथवा अपकार। जो इस विषय पर गहराई से विचार करता है, उसके कृत्य के परिणाम उपकार के रुप में सामने आता है। संकीर्ण मानसिकता से किसी का भला नहीं होता। और उदारता का भाव जिसके मन में निहित होता है, उससे अपकार नहीं होता। और जो उपकार पर सोचते हैं, उपकार करते हैं, उनका उपकार विधाता के हाथों होता है। 

ज्ञानीजन कह गये हैं ‘कर भला तो हो भला’। और सबके लिए यह प्रार्थना करने की सीख दी गई है कि ‘ सर्वो भवन्तु सुखिन: सर्वो सन्तु निरामया:।’ सबकी सुख और आरोग्य की कामना भी अगर आप नित्य कर रहे होते हैं तो यह उपकार है। दुसरों की हित का कामना भी परोपकार है। और स्वयं के लिए यह प्रार्थना करने की सीख दी गई है कि ‘असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय।। हे प्रभु हमें अंधकार से प्रकाश की ओर, अज्ञान से ज्ञान की ओर ले चलो। अगर यह प्रार्थना नित्य कर रहे हैं तो यह खुद के लिए उपकार है। 

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