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परिवार का अर्थ — Meaning of Family

परिवार क्या है! सामान्यतः यह सबको मालुम होता है, परन्तु परिवार का अर्थ क्या है? इसका महत्व क्या है? इसे जानना आवश्यक है। क्योंकि व्यक्ति की सामाजिक मर्यादा बहुत कुछ उसके परिवार से ही निर्धारित होता है। 

समाज शास्त्र के अनुसार परिवार समाज की एक इकाई है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। मूख्यत: समाज में नर-नारी के यौन संबंध को व्यवस्थित रखने के लिए वैवाहिक संबंध बनाने का विधान है। वैवाहिक बंधन में बंधे नर-नारी दम्पति (पति-पत्नी) कहलाते हैं। सामान्यतः एक पति-पत्नी एवम् उनसे उत्पन्न संतानों के समूह को परिवार समझा जाता है। इस समूह में दत्तक प्रथा से स्वीकृत शिशु/व्यक्ति को भी इसके सदस्य के रूप में मान्यता दी गई है। 

विस्तृत दायरे में यह एक साथ रहनेवाले रक्त संबंधियों का एक समूह है। इस प्रकार से एक परिवार के अंतर्गत अनेक पीढ़ियों का एवम् अनेक दम्पतियों का होना संभव होता है। ऐसा समूह संयुक्त परिवार कहलाता है। इसके सदस्य पति-पत्नी, भाई-बहन, चाचा-भतीजे, देवर-भाभी, सास-बहू, पितामह-पौत्र आदि रिश्तों में एक-दुसरे से बंधे होते हैं। संयुक्त परिवार में प्रत्येक रिश्तों की अपनी मर्यादा होती है। 

अधिकांश परिवारों में स्त्री एवम् पुरुष के बीच कार्य विभाजन की परंपरा भी सदियों से चली आ रही है। स्त्रियों का अधिकांश समय जहां घर के कार्यों में व्यतीत होता है, वहीं पुरुष बाहरी कार्यों में हाथ बंटाता है। हांलांकि आज के आपाधापी के समय स्थितियों में बदलाव हुवा है। अब स्त्रियां भी घर के अलावे बाहर के कार्यों में योगदान दे रही हैं। 

इस बात को सभी मानते हैं कि परिवार एक साथ रहनेवाले रक्त संबंधियों का समूह है। वैसे तो आज के समय में संयुक्त परिवार बहुत कम देखने को मिलते हैं। और अगर इक्के-दुक्के दिख भी जाते हैं, तो ‘अपनी डफ्ली अपनी राग’ के कहावत को ही चरितार्थ करते नजर आते हैं।  क्या वास्तव में एक साथ रहने भर से कोई समूह परिवार हो जाता है? जिस परिवार के सदस्यों में एक दुसरे के प्रति सहयोग और समर्पण का भाव का अभाव हो! रिश्तों (रिश्ते नाते क्या होते हैं जानिए !) के मर्यादा ( मर्यादा क्या है जानिए! Know what is modesty.) का पालन का अभाव हो! वह परिवार एक भीड़ के अलावा कुछ नहीं है। क्योंकि परिवार की एक मर्यादा होती है, और जिस समूह के सदस्यों में ना खुद का और नाही दुसरों के मर्यादा का ख्याल रहता हो, वास्तव में वह एक परिवार नहीं हो सकता।

बच्चों का जन्म और पालन-पोषण परिवार में ही होता है। संयुक्त देख-भाल में रह रहे बच्चों में बहुमुखी प्रतिभा के विकास की संभावना अधिक होती है। संयुक्त परिवार में रह रहे बच्चों में सुरक्षा और आपसी सामंजस्य स्थापित होते होने की संभावना भी प्रबल होती है। सदस्यो में एक दुसरे से बहस करने! अपने दोष पर पर्दा डालने और दुसरों पर दोषारोपण करने की प्रवृति! जाने-अनजाने बच्चों में भेदभाव, अपना-पराया का भाव को विकसित करने की प्रवृति! यह सबकुछ भी परिवार में ही चलता है। और इसमें पल रहे बच्चों में इसके गलत परिणाम भी पड़ते हैं।

व्यक्ति में जो आचार, व्यवहार एवम् संस्कार का निर्माण होता है उसका मूख्य आधार परिवार ही होता है। हरेक परिवार को कभी ठीक तो कभी कठिन परिस्थितियों से गुजरना पड़ सकता है। रोजमर्रा के जिंदगी में छोटी-मोटी बातें भी होती रहती हैं।  परन्तु आपसी सामंजस्य अगर बना रहे, तो हरेक परिस्थिति से मिलकर लड़ना संभव हो जाता है। सभी के सामंजस्य और सहयोग से समूह में पल रहे बच्चों के व्यक्तित्व का विकास ठीक प्रकार से हो पाता है। इन बातों पर विचार हरेक को करना चाहिए। 

परन्तु विना नियमबद्ध हुवे, विना अनुशासन (अनुशासन क्या है ! What is discipline…) के किसी भी समूह का ठीक प्रकार से संचालन नहीं हो सकता। परिवार से ही घर! घर बनता है, वर्ना घर और सराय में कोई खास अंतर नहीं रह जाता है। इसके सभी सदस्यों की योग्यता व अवस्था एक जैसी नहीं होती, परन्तु सबकी उपयोगिता महत्त्वपूर्ण होती है। जो जैसा है उसे उसी रुप में अपना लेना और उसके प्रति सहयोगात्मक रवैया रखना एक अच्छे परिवार की पहचान होती है। परन्तु सदस्यों में जो जिस योग्य हो, उसे उस प्रकार का कार्यभार देना भी उतना ही जरूरी होता है।  वर्ना ‘अंधेर नगरी चौपट राजा’ वाली कहावत चरितार्थ होने लगता है। नियम और अनुशासन के विना आपसी सामंजस्य की कल्पना करना ही बेमानी हो जाता है। और नियम एवम् अनुशासन का दायित्व परिवार के मुख्य सदस्य को अपने कंधे पर उठाना ही पड़ता है, अथवा किसी अन्य सदस्य को जो योग्य हो इसकी जवाबदारी देनी पड़ती है। विना नेतृत्वकर्ता के कोई भी परिवार, समूह अथवा संस्था का ठीक प्रकार से संचालन हो, ऐसी कल्पना करना ही व्यर्थ है।

परिवार में स्त्रियों की भुमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। घर को साफ-सुथरा रखने के अलावा घर के वातावरण को भी स्वच्छ रखने में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। परन्तु सामान्यतः यह देखा जाता है कि संयुक्त परिवारों में एक स्त्री अपने पति और खुद के बच्चों के अलावा अन्य रिश्तों को लेकर वेपरवाह होती हैं। वहीं अधिकांश पुरुष अपनी पत्नी के विचारों ( चाल, छल-कपट, स्वार्थपरता) के इर्द-गिर्द ही मंडराते नजर आते हैं। जिसके कारण अन्य रिश्तों में खटास उत्पन्न होने लगता है। इन परिस्थितियों में घर-परिवार की खुशियां भंग होने लगती हैं। 

माता-पिता को उनके बच्चों में अच्छे संस्कारों का निर्माण कैसे हो, इसका प्रयत्न करते रहना चाहिए। क्योंकि गलत संस्कारों के कारण कभी ऐसा भी होता है कि संतान रास्ते से भटक जाते हैं। उस वक्त उन्हें सबकुछ ठीक लगता है, पर समय के साथ उस रास्ते की खामियां नजर आने लगती हैं। और तब तक अपने कर्मों में वे इतने आगे निकल चूके होते हैं कि गलतियों का प्रभाव उनके पुरे परिवार पर पड़ने लगता है। पिता होने का अर्थ ! Meaning of being a father.

आज के समय में दुसरे के बच्चों का तो ख्याल रखना दुर की बात है, माता-पिता खुद के बच्चों का ख्याल भी सही ठंग से नहीं रख पाते। माता-पिता को अपने संतानों के बीच किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करना चाहिए। और अन्य रिश्तों के प्रति भी उनके मन में अपना-पराया का भाव उत्पन्न ना हो इसका प्रयास करना चाहिए। हांलांकि प्रवृति के अनुसार सभी के स्वभाव में भिन्नता होती है, पर सही दिशा देने पर उचित संस्कारों के विकसित होने की संभावना बनी रहती है।

खेत (खेत में उगे खर-पतवार) को जब जलाया जाता है तो धरती उपजाऊ हो जाती है, परन्तु धरती ही जलने लगे तो खेत ही नष्ट हो जाता है। अनुशासन, सही देखभाल और लापरवाही, भेदभाव में यही अंतर होता है।

वो माता जो अपने बच्चों के बीच ही भेदभाव करती हैं, वो बच्चों के लिए घातक सिद्ध होती हैं। वह अपने संतान और परिवार का भला सोच ही नहीं सकती। वहीं संतान अगर अज्ञानी हो तो वे माता-पिता के लिए शत्रु समान होते हैं, वे जीवन भर उनके लिए समस्याएं उत्पन्न करते हैं। अगर माता-पिता अपने संतानों के प्रति कर्तव्यों का निर्वहन न करे, तो संतान आगे चलकर उनके लिए समस्याएं ही उत्पन्न करेंगे। एक पुरानी कहावत है कि ‘बोये पेड़ बबूल के तो आम कहां से होय’।

घर एक साईकिल की तरह होता है, परिवार साईकिल के पहिये के समान होता है, और उसके सदस्य पहिये में लगे चेन की तरह होते हैं। जिसे चलाने के लिए सवार को पैडल मारने होते हैं। चेन की एक भी कड़ी अगर टुट जये तो साइकिल चलाना मुश्किल हो जाता है। ठीक इसी प्रकार घर को सही ठ़ग से चलाने की ज़िम्मेदारी किसी एक पर होना चाहिए, जो सदस्यरूपी कड़ियों का ठीक प्रकार से देखभाल कर परिवार रुपी पहिया को ठीक से चलाने की कोशिश करें। अगर ऐसा न हो तो गृहस्थी की साइकिल को चलाना मुश्किल हो जाता है।

यह भी एक बिडम्बना है कि ठीक प्रकार से कैसे रहना चाहिए, यह तो लोग जानते हैं,  पर ठीक प्रकार से रहना नहीं जानते। परिवार को संस्थागत रुप देकर हो अथवा भावनात्मक रूप देकर हो, इसे सही तरीके से चलाने का प्रयास अवश्य करना चाहिए। परन्तु इसके वावजूद अगर सबकी सोच सही दिशा में नहीं जा रहा हो, अपनी-अपनी सोच के आधार पर पृथक हो जाना ही उचित होता है। क्योंकि जब ‘अपनी डफ्ली अपना राग’ जैसी स्थिति हो तो समूह में संगीत का स्वर ही बिगड़ जाता है। 

अगर कोई वस्त्र बहुत ही प्रिय हो और वह मलीन हो जाय, तो उसे साफ सुथरा कर पुनः धारण करना उचित है। अगर एक दो जगह फट भी जाय तो उस वस्त्र का मरम्मत कर धारण करना भी उचित होता है। परन्तु अगर इतना जीर्ण हो जाय की मरम्मत कंरने लायक ही नहीं रहे, तो उस वस्त्र को बदलकरं दुसरा धारण करना ही उचित है। 

एक परिवार ऐसा होता है जिसमें रहनेवाले लोग सिर्फ अपने से मतलब रखते हैं। बात बात पर एक दूसरे से बहस करते हैं। ऐसे परिवारों को चलाने के लिए कोई नियमावली ही नहीं होती।  और एक परिवार ऐसा भी होता है जिसमें कोई समस्या नहीं होती है। जब कोई समस्या (समस्या और समाधान ! Problem and solution.) आती है तो सभी इसकी जिम्मेदारी लेने को तत्पर होते हैं। इससे किसी के बीच कोई विवाद नहीं होता। ऐसे परिवार का कोई सदस्य स्वयं को परिवार से ऊपर या बड़ा नहीं समझता। और ना ही किसी दुसरे सदस्य को अपने बड़प्पन का एहसास दिलाता है। एक परिवार ऐसा होता है, जिसके सदस्य सवार्थपूर्ण विचारों से जीते हैं। एक परिवार ऐसा भी होता है जिसके सभी सदस्य एक दुसरे के लिए जीते हैं।

उसी दम्पति का घर सुखी हो सकता है, जिसके संतान अच्छी बुद्धि से युक्त हों। पति परिश्रमी हो और पत्नी मधुर वचन बोलने वाली हो। जिस घर में ईश्वर की उपासना हो, अतिथियों का हमेशा आदर-सत्कार होता हो। जिस घर के रसोई में देवताओं को भोग लाने जैसी पवित्र ख्याल के साथ भोजन पकाया जाता हो। जिस घर के लोगों को हमेंशा साधु-संतों की संगति प्राप्त करने का हमेंशा अवसर प्राप्त होता हो। ऐसा गृहस्थ आश्रम सुखी होता है और वास्तव में प्रशंसा का पात्र होता है।

परिवार का अस्तिस्व ही संबंधों के आधार पर टिका होता है। और सामान्य रुप में संबंधों का आधार होता है अपेक्षा। पति को पत्नी से अपेक्षा, पत्नी को पति से अपेक्षा, पिता को पुत्र से अपेक्षा, भाई को भाई से अपेक्षा! परन्तु क्या किसी की अपेक्षा कभी पूर्ण होता है? और जब अपेक्षाओं की पुर्ति नहीं होती तो संघर्ष उत्पन्न होता है। संपति का संघर्ष, मान-सम्मान का संघर्ष, और जहां आपस में संघर्ष होता है, वहां सुख नहीं हो सकता। अत: संबंंधो का आधार अपेक्षा नहीं समर्पण में होना चाहिए। ऐसा होने पर सबके मन में संतोष (संतोष क्या है ..! What is satisfaction ! ) का स्थान होता है। संतोषी परिवार सुखी परिवार होता है। सबकुछ समझ के स्तर पर निर्भर है।

इस यथार्थ को झुठलाया नहीं जा सकता कि सुमति है तो सम्पति है : wisdom is your property..! । जहां खुशी होती है, वहां उन्नति उ होती है और जहां कुमति है वहां समस्या, अशांति और अवनति होती है। उन्नति क्या है जानिए ..! अत: सकारात्मक विचारों के साथ प्रसन्न रहना ही महत्त्वपूर्ण है, और जब परिवार में प्रसन्नता होती है, तो सबकुछ अच्छा होता है।

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