प्रिय बन्धुगण ; इस आलेख में इस बात पर विचार किया जा रहा है कि वास्तव में सुख और दुख क्या है ? सामान्य मनुष्य का सारा जीवन इन्हीं दो स्थितियों में क्यों उलझा रहता है ? ज्ञानीजनों के अनुसार सुख और दुख मन की अवस्थाएं हैं! जिनका अनुभव मन के कारण ही होता है, इनका संबंध भौतिकता से है। कुछ पाने और कुछ खोने का जो अनुभव होता है, वही सुख और दुख का कारण है।
मनुष्य का इस संसार में जब अवतरण होता है तो प्रकृति उसे दो चीजों के साथ भेजती है। उनमें से एक शरीर और दुसरा मन। और यह जो मन होता है, बुद्धि से युक्त होता है। समय के साथ इन दोनों में विकास होता है। एक बच्चा जैसे जैसे बड़ा होता है, उसमें बुद्धि का भी विकास होता चला जाता है। यह बुद्धि ही है, जिसके द्वारा वह अपने लिए सुविधाजनक साधनों को जुटा लेता है।
हमारे अन्दर कुछ खो जाने का जो एहसास होता है, वही हम सभी के दुख का कारण होता है। यह भाव इसलिए पनपता है कि हम उन चीजों को ही सबकुछ मान लेते हैं। हमें इस बात का विस्मरण हो जाता है कि हम चाहे जितना भी संसाधन इक्ट्ठा कर लें, वो तो बस सुगमता से रहने का साधन मात्र हैं।
दुख का दुर जाना ही सुख है। और दुख जितना गहरा होता है, सुख का अनुभव उतना ही अधिक होता है। एक बांसुरी के सुरीली और मधुर स्वर तो सबके मन को भाता है। परन्तु क्या आपने कभी गौर किया है, कि इस स्वरुप में आने से पूर्व उसे कितना दुख सहना पड़ा है। यह वही लकड़ी है, जिसकी मधुरता मन को शांत करती है, उसे कभी चाकुओं से छिला और छेद किया गया था।
सामान्य व्यक्ति के समझ में ‘दुख की अपेक्षा सुख उत्तम होता है’ लेकिन ज्ञानियों का कहना है कि ‘सुख और दुख’ को एक दुसरे से अलग नहीं किया जा सकता! ये साथ साथ आते हैं! एक दुसरे के आसपास मौजूद रहते हैं।
ओशो के शब्दों में : “सुख का अर्थ है दुख गया, मगर राह देख रहा है किनारे पर खड़ा कि कब सुख से छुटकारा हो तो मैं मिट फिर आऊं। कभी ज्यादा दुर नहीं जाता! ऐसे दरवाजे पर खड़ा हो जाता है निकलकर कि ठीक है, आप थोड़ी देर सुख भोगो! फिर मैं आ जाऊं। सूख और दुख साथ-साथ हैं।”
ज्ञानियों की बातों पर गौर करें तो यह बात स्पष्ट हो जाता है कि सुख और दुख आते जाते रहते हैं। ना तो सुख स्थायी है और ना ही दुख स्थायी होता है। जब हमारा मन दुख में होता है तो वह सुख की तलाश करता है। और जो यह सुख की अवस्था आती है तो फिर चली भी जाती है। यानि कुछ समय के लिए सुख का आना भी हमें वास्तव में सुख नहीं दे पाता। जब हम दुख में होते हैं, तो दुख उठाते ही हैं। परन्तु असल में सुखभोग भी कहां कर पाते हैं। एक चिंता, एक भय के कारण कि यह सुख की अवस्था कब तक रहेगी, हमें वास्तविक सुख प्राप्त नहीं हो पाता।
इस प्रकार हम देखते हैं कि सुख में बने रहने का चाहत, जिसे हम केवल भौतिक संसाधनों से प्राप्त करते हैं! वास्तव में हमें सुख नहीं देता है। अगर ऐसी बात होती तो साधन संपन्न व्यक्तियों को चैन की नींद सोने के लिए औषधियों की जरूरत नहीं पड़ती। जीवन के एक मोड़ पर सभी को यह बात समझ में आ जाती है कि जिस सुख को वह खोज रहा था, वह तो उसे मिला ही नहीं। समय के साथ शरीर भी नष्ट हो जाता है और बुद्धि से युक्त मन भी अतृप्त रह जाता है।
तो फिर वह कौन सी अवस्था है, जहां हम वास्तविक सुख प्राप्त कर सकते हैं। वह कौन सी स्थिति है, जिसे पाना चाहते हैं, लेकिन वह हमें मिलता नहीं है। ज्ञानियों ने इस अवस्था को आनंद की संज्ञा दी है। यह जो आनंद है, यही वास्तविक सुख की अवस्था है!
ओशो के शब्दों में : आनन्द का अर्थ है दुख सदा के लिए गया! और जब दुख ही चला गया सदा के लिए तो सुख भी चला गया सदा के लिए। सुख दुख का जोड़ा है! वे साथ-साथ हैं! आनंद तो परम शांति की दशा है – जहां न सुख सताता है और न दुख सताता है। जहां कोई सताता ही नहीं! जहां कोई उत्तेजना नहीं होती। सुख की भी उतेजना है।
ओशो कहते हैं कि ” सवाल यह है कि हम आनंद में कैसे रहें ! बचपन के उम्र में आप बगीचे में तितली के पीछे भागते थे। उस समय आपको यही अनुभव होता था कि दुनिया में इससे बढ़कर कोई आनंद है ही नहीं। बड़े होने की प्रक्रिया में आपने इसे खो दिया।
सुख हमेशा किसी वस्तु या व्यक्ति पर निर्भर करता है! आनंद किसी पर निर्भर नहीं करता है। यह तो आपकी अपनी प्रकृति है! आनंद को असल में किसी बाहरी उतेजना की जरूरत नहीं होती। यह तो अपने भीतर की गहराई में खोदकर ढुंढ निकालने की चीज है। यह प्यास बुझाने के लिए एक कुंए जैसा है। बरसात हर वक्त नहीं होती रहती! अतः यह जरुरी है कि आप खुद का कुआं खोदें ताकि साल भर पानी मिलता रहे।
अब तक हमने जाना कि सुख और दुख मन की दो अनुभुतियां है। ये जो अनभुतियां हैं, चंचल मन का स्वभाव है! विचारों का, कामनाओं का विषय है। और मन की स्वाभाविक जो अनुभुति है, जो स्थायी है, जिसे ज्ञानीजनों ने आनंद कहा है, यह भीतर का त्तत्व है। जिसे खोजना होता है, मन की गहराइयों में उतर कर ढुंढना पड़ता है। इसके लिए ज्ञानियों ने ध्यान की क्रिया को महत्व दिया है। ध्यान क्रिया के अभ्यास से आंनद की अवस्था को प्राप्त किया जा सकता है।
ओशो के शब्दों में : ध्यान चेतना का विशुद्ध अवस्था है! जहां कोई विचार नहीं होते, कोई विषय नहीं होता। सामान्यतः हमारी चेतना विचारों, विषयों, कामनाओं से आच्छादित रहती है! जैसे कोई दर्पण धुल से ढंका हो।
मन एक सत्तर प्रवाह है, विचार चल रहे हैं, भावनाऐं चल रही हैं। नींद में भी हमारा मन चलता रहता है, सपने चलते रहते हैं। यह अ-ध्यान की अवस्था है! ठीक इसके विपरीत ध्यान की अवस्था है। जब कोई विचार नहीं चलते, कोई भावनाएं नहीं उठती, वह परिपूर्ण मौन ध्यान है।
मन असहज अवस्था है! यह सहज, स्वाभाविक अवस्था कभी नहीं बन सकती। ध्यान सहज अवस्था है। लेकिन हमने उसे खो दिया है।
Osho
किसी बच्चे की आंखों में झांकें और गौर करें! वहां आपको अद्भुत मौन दिखेगा। हर बच्चा ध्यान के लिए पैदा होता है, मगर उसे समाज के रंग ढंग सीखने ही होंगे। धीरे-धीरे वह अपनी सरलता से दुर हटता जायगा। बस उस सरलता को पुनः उपलब्ध होने की जरूरत है। उसे हमने पहले जाना है, लेकिन हम भूल गये हैं। हीरा कुड़े-कचरे में दब गया है, लेकिन हम अगर खोदें! तो पुनः हाथ आ सकता है।
यह हमारा स्वभाव है! हम इसे खो नहीं सकते, इसे हम केवल भूल सकते हैं। हम ध्यान में ही पैदा होते हैं, परन्तु मन के रंग ढंग सीख लेते हैं। लेकिन हमारा वास्तविक स्वभाव अन्तर्धारा की तरह भीतर गहरे में बना ही रहता है। किसी भी दिन थोड़ी सी खुदाई हुवी, और हम पायेंगे कि वह धारा अभी भी बह रही है। जीवन स्रोत के झरने ताजा जल अभी भी ला रहे हैं। और इसे पा लेना जीवन का सबसे बड़ा आनंद है।
जीवन का आनंद कैसे उठाएं ! Jeevan ka anand kaise uthayen.
अब तक हमने देखा कि सुख और दुख हमेंशा किसी वस्तु अथवा परिस्थिति पर निर्भर करता है। आनंद की अवस्था किसी पर भी निर्भर नहीं है। यह हमारे स्वभाव के कारण है। एक बार जब इसे खोजने में हम सफल हो जाएं तो फिर हम इससे पुनः जुड़ सकते हैं। और फिर ये सुख और दुख की अनुभूतियों से हमें निजात मिल सकता है। जीवन में ध्यान का दीपक जलाकर हम अपने मन के अंधेरे को दुर कर सकते हैं।
हमने यह जाना कि दुख और सुख मन की अवस्थाएं हैं! और जो आनंद है, जो भीतर की अवस्था है, वह दुख और सुख से परे है। यह जो आनंद की अवस्था है, इसे हम ध्यान का अभ्यास कर प्राप्त कर सकते हैं। ध्यान क्रिया से धीरे-धीरे मन एकाग्र होने लगता है। जो हमारे मन को अच्छा लगता है वह सुख और जो और अच्छा न लगे वह दुख है। मन में जब अच्छा ख्याल आता है तो हम सुखी होते हैं। और जब बुरा ख्याल आता है तो हम दुखी होते हैं। यह तब तक होता रहता है, जब तक हम मन के अनुसार चलते हैं। मन जैसा कहता है हम वैसा ही करते हैं। सुख और दुख से की स्थिति से बाहर आने का एकमात्र तरीका है मन पर नियंत्रण करना! जब हमारा मन नियंत्रित हो जायगा तो एक समभाव का उदय होना शुरू हो जायगा। और यह जो समभाव है, धीरे-धीरे परम आनंद की ओर ले जाता है।
संतोष क्या है ..! What is satisfaction !
मन में संतोष धारण करना। मन में यह विश्वास पैदा करना कि जिसने हमें इस धरा पर भेजा है, वही पालनहार है। एक नवजात शिशु को कोई यह नहीं बताता कि उसे माता का स्तनपान करना है, और कैसे करना है। प्रकृति यह ज्ञान देकर उसे भेजती है, और मां के स्तन में उसके लिए आहार की व्यवस्था भी कर देती है। परन्तु जैसे ही वह बड़ा होता जाता है, उसकी बुद्धि भौतिकता की ओर प्रवृति हो जाती है। अपने लिए वह भौतिक संसाधनों को जुटाने में लग जाता है। यहीं से सुख और दुख की यात्रा का आरंभ हो जाता है।
मन के मते न चलिये – Man Ke Mate mat Chaliye
जो हो रहा है ठीक हो रहा है, जो होगा वह ठीक ही होगा। कुछ पा गये तो ठीक, कुछ खो गया तो ठीक! प्रकृति ने हमें क्या देकर भेजा था, एक शरीर और दुसरा मन! यह शरीर तो नश्वर है, एक दिन नष्ठ हो जायगा। और यह जो मन है इसी नश्वर शरीर के सुख और दुख के भंवरजाल में फंसा रहता है। हमारा सारा क्रिया-कलाप इसी भौतिक त्तत्व के संरक्षण और संवर्धन के लिए होता है। और अंत में खाली हाथ आये थे और खाली हाथ ही जाना पड़ता है। जो मिला था, यहीं मिला था और जो खो गया यहीं पर को गया। श्रीमद्भागवत गीता में यही तो कहा गया है; क्यों व्यर्थ चिंता करते हो! क्यों दुखी होते हो! शास्त्रों में यही तो समझाया गया है कि संतोष ही सबसे बड़ा सुख है!
प्रकृति हमें जब इस धरा पर भेजती है तो शरीर और मन के अलावे एक और त्तत्व हमारे भीतर डालकर भेजती है। वह है प्राण ऊर्जा जिसे ज्ञानी आत्मा की संज्ञा देते हैं। और ज्ञानियों ने यही कहा है कि इसी परम ऊर्जा का आभास करना जीवन का उद्देश्य है। यह परमानंद का अंश है। जब ध्यान क्रिया के द्वारा मन पर नियंत्रण हो जाता है तो इस ऊर्जा का आभास होने लगता है।
मनुष्य को जिस वास्तविक समझ की जरूरत होती है, ज्ञानी इसी को ज्ञान कहते हैं। प्रत्येक मनुष्य के भीतर गहराइयों में ज्ञान छुपा हुवा रहता है। हमने से प्रत्येक के जीवन में सुख और दुख, आशा और निराशा के पल आते ही रहते हैं, परन्तु दुखी रहना हमारा स्वभाव नहीं है। हमारे मन में इच्छाओं, कामनाओं का जो परत जमा रहता है, जिसके मलिनता में हम दुखी होने को अपना स्वभाव बना लेते हैं। ज्ञानियों ने जो समझाया है यह कोई तर्क नहीं है! कोई दलील नहीं है। यह उनका अनुभव है, मनुष्य अगर पुरुषार्थ ( efforts ) करे तो इनके बातों को अपने जीवन ( सहज जीवन कैसे जीयें ! ) में उतार सकता है। अगर हम प्रयास करें तो मन को नियंत्रित कर समभाव को धारण कर सकते हैं! स्वयं को सुख और दुख की अनूभुतियों से दुर रख सकते हैं।
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