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जहां चाह वहां राह।।

जहां चाह है वहां राह है

जहां चाह है, वहां राह है। ‘चाह’ अर्थात् इच्छा, जो मन की भावना है। यह जो मन है, इच्छा का स्रोत है, और इच्छा मन का प्यास है। यह अपने प्यास को मिटाकर तृप्त होना चाहता है। मन तृप्त होना चाहता है, यही चाह के होने का कारण है। और ‘राह’ का प्रयोग यहां तृप्ति के मार्ग के निमित हुवा है। यह उक्ति कहती है कि जहां चाह है, वहां राह भी है। अर्थात् अगर इच्छा है, तो इसे पूर्ण करने का मार्ग भी है। अगर प्यास है, तो तृप्त होने का साधन भी है। तो फिर यह जो मन है, अतृप्त क्यों रहता है?

मन को कुछ पाने की इच्छा होती है। वो कुछ, जिसे पा लेने से यह तृप्त हो सकता है। लेकिन इस कुछ को पा लेने का मार्ग इसे नहीं दिखाई देता। मार्ग है, लेकिन दिखाई नहीं देता, इसलिए यह अतृप्त रहता है। इच्छा का होना अलग बात है, और इसे पूर्ण करने के लिए इच्छाशक्ति का होना अलग बात है। मन में तृप्त होने का जो भाव है, उस भाव में दृढनिश्चय का समावेश होना जरूरी है। तभी तृप्ति के राह को खोजा जा सकता है। और उस राह पर चल कर चाह को प्राप्त किया जा सकता है। तृप्त होने के लिए कुछ पाने की इच्छा का, इस कुछ को पा लेने की इच्छा में रुपांतरण जरूरी है। अगर कुछ को पाने की इच्छा रेत में खींची लकीर के समान हो, तो उसका मिट जाना तय है। कुछ पाने की इच्छा तो होगी, लेकिन हर हाल में इस कुछ को पा लेने की स्थिति को प्राप्त न हो सकेगी। रेत में खींची लकीर के समान इनका बनना और मिटना लगा रहेगा।

इच्छाशक्ति एक महाशक्ति है।

जहां चाह है वहां राह है, और राह है तो गंतव्य भी है। राह पर चलने और गंतव्य तक जाने की इच्छाशक्ति का का होना जरूरी है। यह मन ऊर्जावान है, बहुत शक्तिशाली है। लेकिन इसके स्वभाव में चंचलता है, अस्थिरता है। फलस्वरूप यह अपनी शक्ति का सदुपयोग नहीं कर पाता है। चंचल स्वभाव के कारण इस शक्तिमान की शक्ति विखर जाती है। विभिन्न विचारों में विखरी इसकी शक्ति के तरंगों को समेटना जरूरी है। किसी एक के लिए मन को केन्द्रित करना जरूरी है। अगर मन की शक्ति किसी एक इच्छा को पूरी करने में लग जाए, तो यह इच्छाशक्ति में परिवर्तित हो जाती है।

इच्छा की शक्ति क्या है ..! 👈

अगर कुछ पाने की इच्छा है, तो इस कुछ को पा लेने का राह भी है। लेकिन राह को खोजना पड़ता है, और फिर राह में चलना पड़ता है। तृप्त होने की अवस्था तक जाना पड़ता है। इसके लिए तृप्त होने की इच्छा का प्रबल होना जरूरी है। मन जब किसी एक इच्छा पर केंद्रित हो जाता है, तो इच्छाशक्ति का उदय होता है। मन की शक्ति जब एकाग्र हो जाती है, तो महाशक्ति का रुप ले लेती है। यह जो इच्छाशक्ति है, एक महाशक्ति है। जो कोई भी अपने किसी वांछित कुछ को प्राप्त कर पाया है, इसी शक्ति से पाया है।

मन में कुछ पाने की चाह का होना प्रारंभिक अवस्था है। राह साधन है, जो मध्य की अवस्था है। अगर खोज लिया राह को, तो सफर तय किया जा सकता है। और तृप्त होने की अवस्था को प्राप्त किया जा सकता है। तृप्त होने की अवस्था अंतिम अवस्था है। कुछ पाने की इच्छा का होना कारण है, कुछ को पाने में सफल होने का कारण। कुछ को पाने के लिए राह पर चलना कार्य है। और उस कुछ को पाने में सफल हो जाना परिणाम है। जहां कारण है, वहां कार्य भी है। और जहां कार्य है, वहां परिणाम भी परिलक्षित होता है। कारण का उपस्थित होना कार्य के कार्यान्वित होने का सुचक है। यह सुचक है, एक अवसर का, कुछ करने का अवसर का, कुछ पाने का अवसर का। इस अवसर को खोना नहीं है, इस अवसर को पहचाना जरुरी है, पकड़ना जरुरी है। जिसने जाना, जिसने पहचाना, कुछ पा लेने के इस अवसर को, उसने इसे खोया नहीं। उसने वह सबकुछ हासिल कर लिया, जो उसने कभी चाहा था। मनुष्य जीवन की जो बड़ी बड़ी उपलब्धियां हैं, इच्छाशक्ति के कारण ही हैं।

कोई भी अपने मनचाहा संसार का निर्माण कर सकता है, परन्तु इसके लिए इच्छाशक्ति का होना जरूरी है। मनचाहा, अर्थात् मन के मतानुसार, मन की इच्छाओं के अनुकूल। मन की जो चाह होती है, वह उसी के विषय में विचार करता है। किसी के मन में जो विचार उभरते हैं, वह उसी के अनुसार कार्य भी करता है। और उसे वैसा ही प्रतिफल भी प्राप्त होता है। महत्वपूर्ण यह है कि मन में जो चाह है, उसका स्वरूप क्या है? क्योंकि चाह के अनुसार ही राह की खोज होती है। कोई भी अपने मनचाहा संसार का निर्माण कर सकता है। ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे वह प्राप्त नहीं कर सकता। महत्वपूर्ण यह है कि वह पाना क्या चाहता है?

दृष्टिकोण से दृश्य उत्पन्न होता है।

मन तृप्त होना चाहता है, लेकिन अतृप्त रहता है। मन को कुछ चाहिए, यह जो ‘कुछ’ की चाह है, यह क्या है? यह कौन सी चीज है, जिसे वह पाना चाहता है। यह जो ‘कुछ’ है, यह सुख है‌। मन को सुख प्राप्त करने की चाह है। लेकिन सही राह का खोज नहीं कर पाता है, इसलिए अतृप्त रहता है। अधिकांश लोगों की मनःस्थिति सांसारिक होता है। सुख की तलाश लोग सांसारिक वस्तुओं में करते हैं। वस्तुगत विचार की धारा वस्तुजनित सुखसागर की ओर प्रवाहित होती है।

सांसारिकता में आसक्त मन वस्तुजनित सुख को पाने के लिए वह सबकुछ करता है, जो वह कर सकता है। लेकिन उसे सुख नहीं मिल पाता। जो सुख मिलता है, वह होता है। जो सुख मिलता है, वह उसे तृप्त नहीं कर पाता। यह जो अवस्था है, मन के दृष्टिकोण को संकुचित कर देता है। प्रत्येक के मन में सद्गुण और अवगुण दोनों निहित होते हैं। ठीक वैसे ही सभी वस्तुओं में निष्ठ और अनिष्टकारी तत्त्वों का समावेश होता है। इस संसार में कुछ भी गुणरहित नहीं होता है। जो गुण एक दुसरे के सदृश होते हैं, एक दुसरे को आकर्षित करते हैं। हमारे मन में जिस गुण का प्रभाव अधिक होता है, आस पास का वातावरण हमें वैसा ही दिखाई देता है। और वातावरण का प्रभाव भी हम पर वैसा ही पड़ता है।

सत से सुख का उद्भव होता है।

सत के प्रभाव में अच्छे कार्य होते हैं, और परिणाम भी अच्छा प्राप्त होता है। सत से प्रभावित मन प्रत्येक वस्तुओं से सत को ग्रहण कर लेता है। हर वातावरण में उसे सत दिखाई देता है। सतोगुणी व्यक्ति हंस की भांति दुध में से ग्राह्य को ग्रहण कर लेता है, और अग्राह्य का त्याग कर देता है। मन को सुख की चाह है, परन्तु यह विचारणीय है कि सुख कहां है। मन इस बात पर विचार नहीं करता, इसलिए सत से विमुख हुवा रहता है। मन बाहरी संसार के प्रति आसक्त रहता है। यह जो आसक्ति है, सांसारिक वस्तुओं से सुख पाने की है। फलस्वरूप मन भटकता रहता है, बाहर के संसार में भटकता रहता है। अगर मन में तम का प्रभाव बना रहेगा तो अधिकांश कार्य तामसिक ही होंगे। और व्यक्ति से जो वातावरण का, संसार का निर्माण होगा, उसमें तम की ही अधिकता होगी। सद्गुण मन के भीतर तल में निहित होता है।

मन में चाह का होना स्वाभाविक है, और चाह के प्रबल होने की संभावना भी होती है। मगर वांछित को पाने की ओर अग्रसर होने से पहले यह जानना जरूरी है कि इसकी प्रकृति क्या है? इस विषय पर विचार करने की चाह का होना महत्वपूर्ण है। तभी अंधकार से प्रकाश की ओर प्रवृत्त हुआ जा सकता है। सद्गुण को धारण कर ही सद्गति को प्राप्त किया जा सकता है। किसी भी व्यक्ति का उन्नत होना अथवा पतनशील होना उसके मन की अवस्था पर निर्भर करता है। शास्त्र में उल्लेखित है कि ‘सत्वं सुखं संजयति।’ सत से सुख उत्पन्न होता है। हम जिस सुख को पाना चाहते हैं, सत से विमुख होकर करते हैं। भौतिक सुख प्राप्त करने की आकांक्षा एवम् महत्व की आकांक्षा को पाने के लिए हम प्रयासरत रहते हैं। जबकि वास्तविक सुख सत से उत्पन्न होता है। अपने प्रयास की दिशा को बदलकर सत की ओर प्रवृत्त हुवा जा सकता है।

असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय।‌ मृत्योर्माऽमृतमंगमय।।

यह उक्ति शास्त्रोक्त है। इस उक्ति में तम अर्थात् असत्य, अवास्तविकता से सत अर्थात् सत्य, वास्तविकता की ओर प्रवृत होने के लिए प्रार्थना है। यह अंधकार अर्थात् अज्ञानता से प्रकाश अर्थात् ज्ञान की ले जाने हेतु याचना है। मृत्यु से अर्थात् दुख की स्थिति से अमरता अर्थात् सुख की स्थिति को पाने के लिए प्रार्थना है। यह जो याचना है, प्रार्थना है, स्वयं से करने की जरूरत है। स्वयं के मन से, और पुरे मन से करने की जरूरत है। यह जो मन है स्रोत भी है, साधन भी है और साध्य भी है। इच्छा का होना, इच्छा को पूर्ण करने का मार्ग और तृप्त होने की अवस्था, सब मन का विषय है। बाहर अंधकार, अज्ञान है, दुख है। भीतर प्रकाश है, ज्ञान है, सुख है।

आकर्षण का सिद्धांत कहता है कि याचना जिस चीज की होती है, वही मिलता है। प्रार्थना जिस चाह को पूर्ण करने के लिए होती है, देर सवेर राह अवश्य प्रशस्त होती है। ‌अंधकार से प्रकाश की ओर जाने के लिए प्रार्थना जरुरी है। स्वयं से और स्वयं के लिए याचना करना जरूरी है। याचना स्वयं से हो, और स्वयं के लिए हो। क्योंकि कोई दुसरा स्वयं को तुष्ट नहीं कर सकता। कोई दुसरा मन को तृप्त नहीं कर सकता। मन को तृप्त करने के लिए मन पर ही प्रयोग करना पड़ता है।

प्रत्येक प्राणी में सत का का अंश निहित है।

सत अर्थात् सत्य ही ब्रह्म है, और प्रत्येक जीव ब्रह्म का ही अंश है। ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ अर्थात् मैं ही ब्रह्म हूं। यह जो तथ्य है, शास्त्रोक्त है। यहां अहम् उस मैं को, उस स्वयं को दर्शाता है, जिसमें कोई अहंकार नहीं है। यह जो स्वयं है, मन के भीतर तल में निहित है। यह जो स्वयं है, उस सत का अंश है, जिसे ब्रह्म की संज्ञा दी गई है। सामान्यत: अहम् उस मैं को, उस स्वयं को समझा जाता है, जिसमें अहंकार निहित है। इस अहम् में अज्ञान है।

मन में स्वयं को मिटाने की चाह का प्रस्फुटित होना एक महान घटना के घटित होने का संकेत है। वह घटना जो स्वयं को स्वयं में विलीन कर देता है। एक स्वयं जो मन का ऊपरी सतह है, जहां वस्तुजनित सुख की चाह है। और दुसरा जो स्वयं है, मन का भीतरी सतह है, जहां वास्तविक सुख विद्यमान है। वास्तव में वहां मन है ही नहीं, वहां तो सत है। मन तो असत का एक आवरण है, जो सत को घेरे हुवे रहता है। स्वयं से स्वयं तक, अर्थात् असत से सत तक जाने की यात्रा ही जीवन का ध्येय है। मन में अगर इस चाह की प्रबलता हो, तो ध्येय तक जाने का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। यही इस उक्ति ‘जहां चाह वहां राह’ का गहन अर्थ है।

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