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लघुता से प्रभुता मिलै। Zero to Hero.

लघुता से प्रभुता

लघुता से प्रभुता मिलै, प्रभुता से प्रभु दुरि।
चींटी शक्कर लै चली, हाथी के सिर धुरि।।

उक्त दोहा संत कबीर की वाणी है। इस उक्ति का शाब्दिक अर्थ है कि लघुता से प्रभुता की प्राप्ति होती है। और प्रभुता के कारण प्रभु से अलगाव होता है। चींटी के मुख शक्कर और हाथी के मस्तक में धुल लगता है। शाब्दिक अर्थ तो यही जान पड़ता है , लेकिन इस उक्ति के कहने का तात्पर्य समझ में नहीं आता। इस उक्ति में दो बातें कही गई हैं, लेकिन दोनों में विरोधाभास प्रतीत होता है। लघुता से प्रभुता की प्राप्ति और फिर प्रभुता के कारण ही प्रभु से दुरी, यह बात समझ में नहीं आती। लेकिन यह कबीर की वाणी है, इस पर संशय नहीं किया जा सकता है। इस उक्ति के भावार्थ को जानने के लिए विचार करने की आवश्यकता है। ‘लघुता’ और ‘प्रभुता’ , इन दो शब्दो पर गहनता से विचार किए बिना भावार्थ को नहीं समझा जा सकता है।

लघुता का अर्थ।

‘लघुता’ संज्ञावाची शब्द लघु का विशेषण है। आकार के निमित लघु का समानार्थी शब्द ‘छोटा’ है। मात्रा एवम् भार के निमित इसे अल्प एवम् हल्का समझा जाता है। इस प्रकार छोटापन , अल्पता , हल्कापन आदि लघुता के अनेक समानार्थी शब्द हैं। लघुता शब्द का प्रयोग वस्तुगत भी होता है, और भावात्मक भी होता है।

इस उक्ति में लघुता का प्रयोग मनोभाव के निमित हुवा है। इस दृष्टिकोण से लघुता में हीनता एवम् विनम्रता का समावेश जान पड़ता है। ये दो ऐसे लक्षण हैं, जो आपस में विरोधाभासी हैं। हीनता एवम् विनम्रता में कोई समानता नहीं है, दोनों एक दुसरे के विपरित के भाव हैं।

हीनता में छोटापन है, हल्कापन है, दुराग्रह का भाव है। हीनता में महत्व की इच्छा है, इसलिए असंतुष्टि भी है। हीनता में अहंकार है, इसलिए कुंठा भी है। यह लघुता का नकारात्मक स्वरूप है।
जबकि विनम्रता में विनयशीलता है, आग्रह का भाव है। विनम्रता में समझ का अभाव नहीं है, क्योंकि यह समझ का ही परिणाम है। फलस्वरूप इसमें महत्व की इच्छा नहीं है, अहंकार नहीं है, असंतोष नहीं है।यह लघुता का सकारात्मक स्वरूप है।

प्रभुता का अर्थ।

‘प्रभुता’ संज्ञावाची शब्द ‘प्रभु’ का विषेशण है। सामान्यत: जिसके पास अधिकार है, सत्ता है, जो अधिक महत्वपूर्ण है, शक्तिशाली है, उसे प्रभु से संबोधित किया जाता है। प्रभुता का अर्थ है, प्रभुत्व स्थापित करने का भाव। प्रभुता के इस स्वरुप में महत्व की इच्छा, अहंकार एवम् असंतोष जैसी भावनाओं की प्रबलता है। यह प्रभुता का नकारात्मक स्वरूप है।

प्रभुता को एक और दृष्टिकोण से देखा जा सकता है, यह प्रभुता का विकासशील स्वरूप है। इस अवस्था में अहंकार है, लेकिन समझ भी है, उचित एवम् अनुचित पर विचार करने की जिज्ञासा है। और उचित कार्य-व्यवहार में लगे रहने की प्रवृत्ति है।
प्रभुता का एक जो स्वरुप है, अधोगामी है, पतनशील है। और दुसरा जो स्वरुप है, वह विकासशील अवस्था है। इस अवस्था में मनःस्थिति में विकास की संभावना है। इस अवस्था में दुःख है, लेकिन दु:ख क्यों है? यह जानने की तड़प है।

कभी सिद्धार्थ के मन की स्थिति ऐसी ही थी। उनमें यह जानने की तड़प थी कि दु:ख क्यों है। यह तड़प जब प्रबल हो गई, जो सुख की स्थिति को अर्थात् प्रभुता की वास्तविक स्थिति को जानने की इच्छाशक्ति में बदल गई। इसका परिणाम यह हुआ कि सिद्धार्थ एक महामानव में रुपांतरित हो गया। जिसे संसार भगवान बुद्ध के रूप में जानती है।

शास्त्रानुसार ‘प्रभु’ एक पवित्र संबोधन है। यह एक महानतम शक्ति परमात्मा का पर्यायवाची शब्द है। इस महानतम शक्ति को ब्रह्म, ईश्वर, भगवान , विधाता आदि शब्दों से भी संबोधित किया जाता है। ( ईश्वर क्या है जानिए…) ‘प्रभुता’ के इस पावन स्वरूप में प्रभुत्व है भी और नहीं भी है। इसमें सत्ता प्राप्त करने का भाव नहीं है, लेकिन सबकुछ इसके अधीन है। इसमें महत्ता का भाव नहीं है, लेकिन यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। यह प्रभुता का महानतम स्वरूप है, जो प्राकृतिक है, वास्तविक है।

लघुता से विशालता और प्रभुता।

लघुता का एक और समानार्थी शब्द है, सुक्ष्मता। सुक्ष्म यानि अति लघु , मात्रा एवम् आकार में लघु से भी कम। सुक्ष्मता का विपरीत है विशालता। गहनता से विचार करें सुक्ष्मता का ही विस्तृत रूप है विशालता। क्योंकि छोटी-छोटी चीजों से ही बड़ी बड़ी चीजें निर्मित होती हैं।

सुक्ष्म से ही स्थुल का निर्माण होता है। स्थूल रूप में यह दृश्यमान होता है। लेकिन इसका सुक्ष्मतम रुप ऐसा भी होता है, जिसे यन्त्र से देखा जाता है। इस ब्रह्मांड में जो भी स्थुल पदार्थ मौजूद हैं, सुक्ष्म कणों से ही निर्मित हुवी हैं। सुक्ष्म से सुक्ष्मतम तक सभी तत्त्वों में ऊर्जा समाहित होता है। समस्त स्थुल पदार्थों का अस्तित्व इसी ऊर्जा कारण है। यह ऊर्जा अक्षय है, इसका नाश नहीं होता, केवल रुपांतरण होता है।

एक सुक्ष्म बीज विकसित होकर विशाल वृक्ष में परिवर्तित हो जाता है। विकसित वृक्ष में फल-फूल लगते हैं। और उनसे अनेकों बीज उत्पन्न होते हैं। उस एक बीज से उत्पन्न असंख्य बीजों में विशाल वृक्ष में परिवर्तित होने की संभावना होती है। यह प्रक्रिया चलता रहता है। एक बीज का वृक्ष में विकसित होना, उसमें से पुनः बीज का उत्पन्न होना। और पुनः उस बीज का वृक्ष में विकसित होना, यह प्रक्रिया तो दृश्य है। लेकिन यह प्रक्रिया जिस शक्ति से संचालित हो रही है, वह अदृश्य रहता है। यह जो रुपांतरण की प्रक्रिया है, यह प्रभु की प्रभुता है।

सामान्यत: ऐसा आभास होता है कि यह कुछ भी नहीं है। इस शक्ति का केवल आभास किया जा सकता है। समस्त प्राणियों में जो जीवन ऊर्जा है, इसी शक्ति का अंश है। यह जो महाशक्ति है, इसे ही प्रभु कहा गया है, परमात्मा कहा गया है। और इसी शक्ति का सुक्ष्म अंश को, जो प्राण ऊर्जा है, इसे आत्मा कहा गया है। इस प्रकार सुक्ष्मता का ही विशालतम स्वरूप प्रभुता है।

मानव के मन पर ( मन की प्रकृति : nature of mind. ) विचार करें, तो यह भी सुक्ष्म है, अदृश्य है, इसका केवल आभास होता है। लेकिन यह जो मन है, अत्यंत शक्तिशाली है। परन्तु अपने नकारात्मक स्वरूप में यह मनुष्य के जीवन को दुखी कर देता है। सकारात्मक स्वरूप में यह व्यक्तित्व को महानता की ओर प्रवृत्त कर देता है। मन में सद्गुणों की प्रबलता से इसकी शक्ति का रुपांतरण हो जाता है। यह मनःस्थिति का विकासशील स्वरूप है।

लघुता का जो उत्कृष्ट स्थिति है, उसमें मनुष्यता के गुणों को ग्रहण करने की पात्रता है। यह जो स्थिति है, प्रभुता के विकासशील स्थिति के सदृश है। इसमें मनःस्थिति को सद्वृतियों की ओर प्रवृत्त करने की शक्ति है। लघुता का उत्कृष्ट स्वरूप में ध्यान का साधना का समावेश हो, तो यह विकसित होकर प्रभुता के महानतम स्थिति को प्राप्त कर सकता है।

प्रभुता से प्रभु दुरि।

‘लघुता से प्रभुता मिलै’ का भावार्थ तो समझ में आता है। किन्तु दुसरा जो वाक्यांश है ‘प्रभुता से प्रभु दुरि’ यह पुन: संशय में डाल देता है। लघुता के दो पहलूओं पर गहनता से विचार किया गया, जो ऊपर अंकित है। एक पहलू है हीनता का और दुसरा विनम्रता का है। विचारोपरांत यह ज्ञात हुवा कि लघुता से प्रभुता की स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है।

उसी प्रकार प्रभुता के भी अनेक पहलूओं पर विचार किया गया। एक निकृष्ट पहलू है, जिसमें सत्ता की भुख है, महत्व की ( महत्त्वाकांक्षा क्या है जानिए — Learn What Is Ambition ) आकांक्षा है। और एक सामान्य पहलू है, यह मध्य की अवस्था है, जो विकासशील है। और एक महानतम पहलु है, जो प्राकृतिक है, वास्तविक है।
लघुता की भांति प्रभुता का भी एक स्वरुप नकारात्मक है। ऐसी मनःस्थिति में अज्ञान की प्रबलता है, जो मन को सद्वृतियों से विमुख करता है। कुवृत्तियों की प्रबलता से मलीन मन अपने शुद्ध स्वरूप से दुर हो जाता है। ऐसी मनःस्थिति का धारक वस्तुजनित सुख के सागर में गोता लगाता है, और दु:ख के भॅंवर में उलझ जाता है। ‘प्रभुता से प्रभु दुरि’ का भावार्थ यही है।

चींटी शक्कर लै चली हाथी के सिर धुरि।

यहां चींटी उस मनःस्थिति का प्रतीक है, जो हीनता से ग्रस्त नहीं है। उसमें लघुता है, उसकी शक्ति सिमीत है, लेकिन वह अपने ध्येय से अवगत है। शक्कर प्राप्त करना उसका ध्येय है। शक्कर सत का प्रतीक है। चींटी का ध्यान अपने ध्येय पर है, जिसे पाना कठिन है। क्योंकि शक्कर धुल के कणों में मिला हुवा है। अर्थात् यह जो सत है, मन का शुद्ध स्वरूप है। यह असत के दुषित वृतियों से मलीन हो गया है। लेकिन अपने प्रयासों चींटी शक्कर प्राप्त करने में सफल हो जाता है। यह जो प्रयास है, यह साधना की क्रिया है। जिस चीज को पाने में उसका ध्यान है, वह उसे पाने के लिए साधना करता है, और ध्येय को प्राप्त कर लेता है।

हाथी उस मनःस्थिति का प्रतीक है, जिसमें विशाल होने का, शक्तिशाली होने का अहंकार है। ऐसी मनःस्थिति में समझ का अभाव होता है। वह अपने ध्येय को बलपूर्वक पूर्वक प्राप्त करना चाहता है। उसका ध्येय वस्तुजनित सुख है, जो क्षणिक है। जहां वास्तविक सुख है, उस चीज से वह अनभिज्ञ है। अहंकार के मद में शक्कर रुपी सत से अनभिज्ञ है। हाथी धुल प्राप्त करता है, लेकिन संतुष्ट नहीं हो पाता। फलस्वरूप वह धुल को माथे पर लगाता रहता है। मलिन मनःस्थिति प्रभु सत्ता के प्रभाव से दुर हो जाता है।

लघुता में विकास और विनाश दोनों ही शक्तियों का समावेश है। एक सुक्ष्म बीज विकसित होकर विशाल वृक्ष में परिवर्तित हो जाता है। यह लघुता का विकासशील रुप है। और एक सुक्ष्म चिनगारी से उत्पन्न आग की लपटें विशालकाय वृक्ष को जलाकर राख कर देती हैं। यह लघुता के विनाशकारी रुप को दर्शाता है। ठीक इसी प्रकार प्रभुता का भी एक स्वरूप है, जो लघुता के इस स्वरुप के सदृश है। जीवन में सुख अथवा दुख का होना मनस्थिति पर निर्भर करता है।

विचारोपरांत यह निष्कर्ष निकलता है कि लघुता से प्रभुता को प्राप्त किया जा सकता है, महता से नहीं। लघुता में अगर विनयशीलता समाहित हो, तो पात्रता को विकसित किया जा सकता है। बौद्धिक संपदाओं को अर्जित कर मन की शक्ति को विकसित किया जा सकता है। एवम् सत के मार्ग पर चलकर प्रभुता को प्राप्त किया जा सकता है।

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