माटी का चक्र !
माटी कहे कुम्हार से क्यों रौंदो हो मोय।
एक दिन ऐसा आवेगा मों रौंदूगी तोय।।
उक्त पंक्तियां कबीरदास ने कही है। इस दोहे का सरल अनुवाद है; माटी कुम्हार से कहती है कि तुम मुझे क्यों रौंद रहे हो, एक दिन ऐसा आएगा जब मैं तुम्हें रौंदूगी।
सुनने पढ़ने में तो यह दोहा सरल है और इसका अर्थ भी सरल है। अब प्रश्न यह उठता है कि माटी के माध्यम से कबीरदास कुम्हार को किस बात की ओर इशारा कर रहे हैं। कुम्हार का तो काम ही है मिट्टी को रौंदना। अगर वह ऐसा नहीं करेगा तो माटी को आकार कैसे दे पायेगा। मिट्टी के प्याले, हांडी, बर्तन, खिलौने आदि जरुरत की सामग्री को गढ़ने के लिए मिट्टी को रौंदना ही पड़ता है। स्वयं के जीवन-यापन करने एवम् समाज के ज़रूरतों को पूरा करने के लिए ही तो कुम्हार माटी को रौंदता है। फिर कबीरदास माटी के माध्यम से किस बात की ओर इशारा कर रहे हैं।
माटी तो माटी है, वह मूल है इस सृष्टि का। इस धरा पर जो कुछ भी है उसका आधार यह माटी है। मनुष्य का शरीर भी तो माटी से ही बना है। इस शरीर को पोषित करने के लिए मनुष्य जो कुछ भी खाता पीता है उसका स्रोत भी माटी है। और जब सांस रूक जाता है तो यह शरीर माटी में मिल जाता है। परन्तु मनुष्य इसे महसूस नहीं कर पाता। उसका कारण क्या है ? उसका कारण है अहंकार, उसका कारण है मैं। कबीरदास दास इस दोहे के द्वारा इसी मैं रुपी अज्ञान के प्रति सचेत कर गये हैं।
सदगुरु जग्गी वासुदेव इस माटी के चक्र को अपने तरीके से समझाते हैं। सदगुरु के शब्दों में; अगर यह शरीर उसी माटी से बना है जिसपर हम चलते हैं, तो फिर हमें इसका अनुभव क्यों नहीं होता ? हम पुरी धरती को अपने हिस्से के रूप में कैसे महसूस कर सकते हैं ? जब आपका जन्म हुवा था, आपका कद कितना था ? अब कितना है इस बीच उसके बढ़कर विकसित होने के लिए आपने क्या किया ? आप कहेंगे, ‘उसे खाना दिया’। लेकिन आपको भोजन कहां से मिला ? इसी माटी से! कामना का अर्थ क्या है: meaning of desire.
मूल रूप से इसी माटी से आपका शरीर बना है। ज्यों ज्यों आपके शरीर में माटी जुड़ती गई, आपने उसे मैं कहकर अपना लिया। एक लोटे में जल रखा है। क्या वह जल और आप एक हैं ? आप कहेंगे नहीं। उस जल को लेकर पी लिजिए। जब वह आपके शरीर में मिल गया तो उसे क्या कहेंगे ? आपके अनुभव के सीमा में जो आ जाता है, उसी को आप मैं के रुप में महसूस करेंगे। जब तक वह बाहर है आप समझते हैं वह अलग है और आप अलग हैं। क्या आप महसूस करते हैं कि बाहर वाले पानी, माटी, हवा और ताप से ही आपका निर्माण हुवा है ? जब वे आपका एक हिस्सा बन गये, उन्हें अलग अलग देखना संभव नहीं रहा।
कुल मिलाकर उसे मैं की पहचान दे दी आपने! आपके पुरखे कहां गये ? वे इसी माटी में समा गये! आखिर में आप कहां जाने वाले हैं ? थोड़ी सी माटी आपका स्वरुप बनकर सांस ले रही है। कुछ माटी आपके बाग में ऊचे पेड़ के रुप में खड़ी है। और थोड़ी माटी कुर्सी बन गई है, जिसपर आप बैठे हैं। इसी माटी के चक्र में आम, नीम, इमली, फूल, केंचुआ, मनुष्य और अनेक स्वरुप हैं। और यह भिन्न भिन्न अवतार ले रही है और लेने वाली है।
एक कहानी जो मैंने पढ़ी है। कहानियां काल्पनिक होती हैं, पर किसी तथ्य को दर्शाती हैं। एक कुशल मुर्तिकार था जो ऐसी मुर्तियां बनाता था मानो उसमें जान हो। अगर किसी की मुर्ति बनाता तो यह पहचानना मुश्किल हो जाता कि कौन मूल है और कौन मुर्ति। कालान्तर में वह बुढ़ा हो गया, उसे उसकी मृत्यु करीब नजर आने लगी। जीवंत मुर्तियां गढ़ने वाला वह मुर्तिकार चिंतित हो उठा। फिर उसने एक तरकीब सोची। उसने सोचा कि अगर अपने जैसी कुछ मुर्तियां बना ले तो मौत उसे पहचान नहीं पायेगी। उसने ऐसा ही किया, दर्जन भर मुर्तियां बना ली और उसी के बीच खड़ा हो गया। मौत आयी तो एक जैसी तेरह आकृतियों को देख भ्रमित हो गई। एक को ही लेकर जाना है, किसे ले जाय। वह लौट गया यमराज के पास, जाकर उसने सारी बात बतायी। यमराज ने उससे कहा; फिर से जाव और जाकर कहो कि ‘एक कमी रह गई’। मौत वापस गई और उसने आकृतियों से यह बात कही। यह सुनते ही मुर्तिकार बोल उठा ‘ कौन सी कमी रह गई’। मौत का काम हो गया। मुर्तिकार का मैं, उसे मुर्तियों से अलग कर दिया। और वह मौत के मुंह में चला गया। तेरह आकृतियां एक जैसी प्रतीत हो रही थी। पर उन बारहों को गढ़ने का अहंकार उनके गढ़नेवाले तेरहवें को नष्ट कर दिया। सुमति है तो सम्पति है : wisdom is your property..!
यह जो मैं है सारे उपद्रव का जड़ है। मैं ये हूं, मैंने यह कर दिया, मैंने वह कर दिया। सिकन्दर भी अपने अहंकार के कारण बहुत कुछ कर गया। परन्तु वास्तव में उसे क्या हासिल हुवा ? खाली हाथ आया था और खाली हाथ ही चला गया। माटी का शरीर अंततः माटी में मिल जाता है। इस संसार में जो रह जाता है वह आपका यश है। मनुष्य के जन्म, पोषण और मरण तक में माटी का ही साथ है। धरती के इस कर्ज को कैसे चूकाना है ? अहंकार से या प्रेम से! क्रोध से, लोभ से, इर्ष्या से या परोपकार से, नेक कर्मों से ! इस पर विचार कौन करेगा ? जो इस बात को जानता है, इस मैं के माया में नहीं उलझता।
झुठे सुख को सुख कहै मामत है मनमोद।
्
खलक चबेना काल का कुछ मुंह में कुछ गोद।।
मनुष्य झुठे सुख यानि भौतिक सुख को ही सुख समझ लेता है। और उसके भोग में अंधे होकर प्रसन्न होता रहता है। जबकि यह संसार काल का चबेना है। थोड़े संसार को मुंह में लेकर चबा रहा है। और कुछ को गोद में रखकर खेल रहा है।
इस सुख के पीछे की व्याकुलता ही अहंकार है, यह अज्ञान है, अंधेरा है। जो दिखता है वह है नहीं और जो है वह दिखता नहीं। बाहर की दुनिया जिसे हमारा मन अपने इन्द्रियों के द्वारा अनुभव करता है। यह मन का खेल है, मैं की माया है। इसके प्रति जागरूक होने की जरूरत है, समस्त मुक्ति के साधनों का उपयोग करने का प्रयास जागरूकता है। जागरुक व्यक्ति अहंकारी नहीं होता। वह स्वयं को जानने का प्रयास करता है, वह सुख की नहीं आनंद की अनुभूति प्राप्त करने चेष्टा करता है।
मनुष्य का अहंकार स्वयं को कुम्हार समझ बैठता है, वह समझता है कि माटी को रौंदकर वह चीजों को गढ़ रहा है। जबकि जगत का कुम्हार तो परमात्मा है! जिसने समस्त सृष्टि को गढ़ा है। मनुष्य के भीतर का जो ऊर्जा है, उस परम ऊर्जा का अंश ही तो है। जब तक उस परम ऊर्जा से अपने भीतर के ऊर्जा का मिलन नहीं होता, सबकुछ अलग-अलग महसूस होता है। यही अहंकार है और इसका मिटना आवशयक है। कबीरदास इसी बात को इंगित कर गए हैं।
माया मरी न मन मरा मर-मर गया शरीर।
आशा तृष्णा ना मरी कह गये दास कबीर।।
मनुष्य जीवन का लक्ष्य ही जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति पाना है। माटी के इस चक्र से बाहर निकलने के लिए मुक्ति के मार्ग में निकलना पड़ता है। ध्यान, योग, प्रार्थना, भक्ति जैसी उत्तम मार्ग हैं, जिसमें चलकर यह संभव हो पाता है। अन्यथा आपका अहंकार माटी को रौंदता रहेगा और माटी आपको रौंदती रहेगी। फिर क्या होगा ? न आशा मरेगी ना तृष्णा मिटेगी! माटी का शरीर माटी में मिल जायगा और अपने साथ आशा तृष्णा लेकर जायगा और भटकता रहेगा। अगला शरीर फिर से उसी में लिप्त हो जायगा और पुनः माटी में मिल जायगा। चिंता नहीं चिंतन करो ..! चिंतन जरुरी है, सब कुछ समझ के स्तर पर निर्भर है।