आस्था का अर्थ है किसी विषय-वस्तु, के प्रति विश्वास का भाव। साधारण शब्दों में ज्ञान के आधार के विना किसी भी परिकल्पना को सच मान लेना आस्था कहलाता है। परन्तु इसका व्यापक अर्थ भी है जो बुद्धि के पार है। क्योंकि किसी परिकल्पना पर विश्वास कर लेने के लिए बुद्धिमता की जरूरत नहीं है। आस्था के व्यापक अर्थ को जानने के लिए ज्ञान की, बुद्धिमता की जरूरत पड़ती है। वास्तव में आस्थावान होने का आशय आस्तिक होने से है।
आस्था और विश्वास !
साधारण मनुष्य जिसे आस्था समझता है वह अंधविश्वास का रुप ले लेता है। क्योंकि विश्वास बुद्धि से नीचे है। आस्था और विश्वास दो ऐसे शब्द हैं, जिसके आशय एक जैसे प्रतीत होते हुए भी भिन्न होते हैं। ये एक नदी के दो किनारे की तरह हैं जो एक साथ चलते हैं। एक की वजह से दुसरे का अस्तित्व है, परन्तु एक दूसरे से भिन्न हैं। दोनों किनारों को मिलाने के लिए नदी को मिटना पड़़ता है।
विश्वास का जन्म तो मनुष्य के जन्म लेते ही हो जाता है। जन्म लेने के साथ ही उसे भरोसा हो जाता है कि उसके रोने की आवाज़ सुनकर मां उसे दुध पिलायेगी। विश्वास एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, मनुष्य अपना सारा जीवन इसे के सहारे जीता है। कभी वह अपने जन्मदाता पर, कभी समाज पर तो कभी प्रकृति पर, अपने छोटे-बड़े हर कर्म, हर कदम पर वह विश्वास करता है। इसके विपरीत आस्था का प्रादुर्भाव मनुष्य के जन्म लेने के पश्चात होती है। जीवन के अनुभवों के आधार पर आस्था निर्मित होती है। आस्था मनुष्य को विरासत से भी प्राप्त होता है। साधारण मनुष्य उसी में विश्वास कर लेता है, जिसके विषय में पुरखे उसे सुनाते हैं। विश्वास मनुष्य की मूल प्रकृति है, जबकि आस्था उसके संस्कारों का परिणाम होता है।
दार्शनिक ओशो ने आस्था को बहुत मार्मिक ढंग से समझाया है। ओशो के शब्दों में ; आस्तिक होना सत्य नहीं है। नास्तिक हुवे विना कोई कभी आस्तिक हुवा ही नहीं। जो हुवा हो, उसकी आस्तिकता सदा कच्ची ही रहेगी। वह विना पका घड़ा है। धोखे में मत आना, उसमें पानी भर कर मत लाना। नहीं तो घर आते-आते न तो घड़ा रहेगा न ही पानी रहेगा। आग से गुजरना जरुरी है, घड़े के पकने के लिए। इस जगत में जो परम आस्तिक हुवे हैं, वे परम नास्तिकता से गुजरे हैं।
ओशो कहते हैं ; आस्था तो व्यक्ति को वना देती है सम्राट, आस्था तो व्यक्ति को बना देती है विराट। आस्था तो देती है विभुता, प्रभुता। आस्था से तो साम्राज्य फैलता ही चला जाता है। ऐसा साम्राज्य जिसमें सुर्य का कभी अस्त नहीं होता ! क्योंकि वहां अंधकार नहीं है प्रकाश है।
विश्वास जरुरी है,परिवार के सदस्यों में, पड़ोसियों में, समाज के हर व्यक्ति में, परम्पराओं में विश्वास बनाए रखना जरूरी है। विश्वास कायम भी रह सकता है और टुट भी सकता है। विश्वास अंधा होता है अथवा अंधा हो सकता है। विश्वास का होना जरूरी क्यों है – Vishwas Ka Hona Jaruri Kyun Hai विश्वास के लिए ज्ञान की जरूरत नहीं। परन्तु इसी विश्वास को जब ज्ञान का प्रकाश मिल जाता है तो यह आस्था का रुप ले लेता है। आत्मविश्वास क्या है ! What is confidence.
आस्था का संबंध आस्तिकता से है !
नास्तिकता का अर्थ वैसा नहीं है जैसा साधारणत: समझा जाता है। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि खुद पर अविश्वास रखनेवाला व्यक्ति भी नास्तिक है। विवेकानंद के शब्दों में; एक समय मान्यता यह थी कि जिस व्यक्ति को ईश्वर में आस्था नहीं है, वह आस्तिक नहीं हो सकता। अर्थात् जो व्यक्ति भगवान में आस्था नहीं रखता उसे नास्तिक माना जाता था। परन्तु अब यह मान्यता इस रुप में स्वीकृत की जाती है कि भगवान में आस्था न रखनेवाला व्यक्ति ही नहीं, अपितु स्वयं पर पर आस्था न रखनेवाला व्यक्ति भी आस्तिक नहीं माना जा सकता। अपने आप पर जो व्यक्ति अविश्वास व अनास्था रखता है, वह नास्तिक है। आस्तिकता का अर्थ केवल मात्र भगवान में आस्था रखने से नहीं, अपितु स्वयं अपने आप पर आस्था रखना भी होता है। आत्मा ही तो परमात्मा है। अतः अपने आप पर विश्वास रखना, आस्थावान बने रहना, उस परमात्मा के प्रति आस्थावान बने रहना ही है। यदि आप मानते हैं कि अनंत कल्याणकारी परम सत्ता ही विश्व में सर्वत्र काम कर रही है। अगर आप मानते हैं कि वह सर्वव्यापी परम तत्त्व ही सब में विराजमान है, ओत-प्रोत है, आपके हमारे मन और आत्मा में व्याप्त है तो फिर अविश्वास का अस्तित्व कहां है!
अपने में आस्था बनाये रखिए। अपने परिवार के सदस्यों में, पड़ोसियों में, समाज के हर व्यक्ति में आस्था रखिए। यदि आप संसार के हर व्यक्ति के प्रति आस्थावान बने रहे, तो सारा संसार आपको ब्रम्हमय प्रतीत होगा। _ स्वामी विवेकानंद – Swami Vivekanand Ka Mahan Jeevan
ओशो के शब्दों में ; साधारणत: समझा जाता है कि ईश्वर को इन्कार करे नास्तिक। यह परिभाषा मूलतः गलत है। क्योंकि बुद्ध ने ईश्वर को इंकार किया और बुद्ध से बड़ा कोई आस्तिक पृथ्वी पर नहीं हुवा। महावीर ने ईश्वर को इंकार किया, पर महावीर को क्या नास्तिक कह सकोगे? जो कह सके वह अंधा है, जो कह सके वह जड़ है। नास्तिक वह है जो अस्वीकार में जीता है। आस्था में जीए वह आस्तिक है ! अनास्था में जीये वह अनास्तिक।
ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं है _ भव्यता है, दिव्यता है! एक व्यवस्था है, एक लयबद्धता है! उस लयबद्धता के साथ तुम एक हो जावो तो आस्तिक और अलग-अलग चलो तो नास्तिक। स्वयं को कुछ न जानना आस्तिक है! स्वयं को शुन्य जानना आस्तिकता है। परन्तु स्वयं को शुन्य जानने से पहले अहंकार को मिटाना आवश्यक है। _ ओशो
आस्था जो अनुभव से आता है, स्थायी और अनमोल होता है। भगवान बुद्ध ने इस शब्द की व्यापकता को समझने के लिए अनुभव को महत्ती माना है। बुद्ध कहते है ; सोचो, विचारो, विश्लेषण करो, खोजो, पावो अपने अनुभव से, तो भरोसा कर लेना। बुद्ध ने कहा अनुभव प्राथमिक है, श्रद्धा आनुषांगिक है। अनुभव होगा तो श्रद्धा होगी। अनुभव होगी तो आस्था होगी। बुद्ध कहते हैं आस्था की कोई जरूरत नहीं है, अनुभव के साथ आयेगी, तुम्हें लानी नहीं है। और तुम्हारी लायी हुवी आस्था का कोई मूल्य भी क्या हो सकता है।
तुम आरोपित भी कर लोगे विश्वास को तो विश्वास के पीछे अविश्वास खड़ा होगा। मुझपर भरोसा मत करना, मैं जो कहता हूं उसपर इसलिए भरोसा मत करना कि मैं कहता हूं। तुम्हारे अनुभव की कसौटी पर सही हो जाय तो सही है। _ भगवान बुद्ध
जरा सोचिए ! अगर एक अंधे को हाथी के समक्ष ले जाया जा य। और उसे हाधी को छुकर यह कहा जाय कि बताव यह क्या है ? एक तो वह दृष्टिहीन है, उसपर भी उसका हाथी से बहुत छोटा है। वह एक प्रयास में हाथी के सम्पूर्ण आकृति का अनुभव नहीं कर सकता। या यूं समझिए उसके लिए यह असंभव कृत्य है। परन्तु अगर वह लगातार प्रयास करता जाय तो यह संभव भी हो सकता है। वह अंधा हाथी के भिन्न भिन्न अंगो को स्पर्श करेगा और उसे अलग-अलग अनुभव होगा। परंतु अपने सारे अनुभवों को इकट्ठा कर हाथी के पूर्ण स्वरुप को जानने में समर्थ हो सकता है। अपने मान्सिक शक्ति का उपयोग कर वह असंभव को संभव कर सकता है। यही बात आस्था के संबंध में कहा जा सकता है। आस्था एक असंभव धारणा में विसंगत विश्वास है।
जहां तक धर्म की बात है, यह एक शब्द नहीं व्यापक भाव है। धर्म सीधे-सीधे आस्था से जुड़ा है। धर्म के मूल भावना को समझकर ही चलना सार्थक है। धर्म जब आस्था के साथ होता है, स्वयं का, जन का कल्याण करता है। परन्तु जब यह अनास्था का, अंधविश्वास का रुप ले लेता है तो अनिष्टकारी होता है। आस्था हमें अंधेरे से उजाले की ले जाकर धार्मिक बनाता है।
किसी ने क्या खुब कहा है कि रख लो आईने हजार तसल्ली के लिए, पर सच के लिए तो आंखे ही मिलानी पड़ेगी ! खुद से भी और खुदा से भी..!
अध्यात्म क्या है ! Know what is spirituality प्राचीन भारतीय आध्यात्मिक ग्रंथों से हमें इसी बात की सीख मिलती है। वेद, पुराणों, उपनिषदों में जो धर्म का मार्ग बताया गया है, वस्तुत: वह ध्यान, योग से मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग है। योग क्या है! जानिए : Know what is yoga ! अगर हम चिंतन करें तो जान पायेंगे कि धर्म हमारे भीतर ही मौजुद है। यह मूलतः भाव प्रधान होता है और यह जो भाव है, ईश्वर ने हम सबके भीतर दिए हैं। जरुरत है इसे समझने की, जानने की। राजयोग क्या है जानिए ! Know about Raja Yoga!
संत कबीर ने कहा है ; जिन ढुंढ़ा तीन पाइयां गहरी पानी पैठ। उन्होने यह भी कहा है ; मन चंगा तो कठौते गंगा। कबीरदास की इन दो पंक्तियों पर गहराई से विचार करने पर यही बात सामने प्रत्यक्ष होती है।
बहुत साधारण सी दिखने वाली चीजें ही हमारे जीवन में असाधारण होती हैं, परन्तु इस बात को केवल ज्ञानी ही समझ सकते हैं। विश्वास जब आस्था में बदलता है, तो मन श्रद्धा से, आनंद से ओत-प्रोत हो जाता है। कर्मयोग का रहस्य : secret of Karma yoga किसी विषय-वस्तु को जानने के लिए, पाने के लिए विचार करना होता है, कर्म करना होता है। और मान लेने के पश्चात ही अनुभव की यात्रा की शुरुआत होती है।