सामान्य अर्थों में दुसरों के दुःख, कष्ट अथवा हानि के प्रति सहानुभूति के भाव को संवेदना समझा जाता है, यह मन की एक प्रतिक्रिया है। सही अर्थों में संवेदना का अर्थ ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान अथवा अनुभव से है।
जगत में दो प्रकार के पदार्थ उपस्थित हैं, सजीव और निर्जीव। सजीव पदार्थों में प्राण ऊर्जा का समावेश होता है। और निर्जीव वस्तुओ में प्राण ऊर्जा का अभाव होता है। प्राणी सजीव की श्रेणी में आते हैं। संवेदना भी एक तरह का ऊर्जा है, जिसका अनुभव प्राणियों को होता है।
अब जरा सोचिए यह जो ज्ञान है, इसका अनुभव केवल मनुष्यों को होता है ? या समस्त जीव जगत को होता है? जगत में तो सबकुछ ऊर्जा का ही खेल है। संवेदना भी तो एक ऊर्जा है, एक भाव है, एक क्रिया है। और यह बात भी प्रमाणित है कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। तो फिर मन में यह प्रश्न भी उभरकर आता है कि क्या निर्जीव वस्तुओं में भी किसी प्रकार का भाव उत्पन्न होता है?
बात कुछ अजीब लगेगी, पर ऐसी भी घटनाएं देखने सुनने को मिल जाती हैं, जिससे आभाष होता है कि निर्जीव वस्तुओं में भी संवेदना होती है। ग्रामीण इलाकों में इस तरह की चर्चाएं सुनने को मिलती है। किसी गांव के सुदुर इलाके में स्थित एक बड़े से खेत में एक कृषक धान (चावल) की खेती करता था। उसने खेत के एक कोने में एक पत्थर गाड़ रखी थी। इस धारणा के साथ की वह पत्थर उसके खेत की रखवाली करेगा। वह फसल बोने से पूर्व फसल की रक्षा की कामना के साथ उस पत्थर का पूजा किया करता था। ठीक उसी प्रकार फसल काटने से पूर्व वह उस पत्थर का धन्यवाद ज्ञापन करने के लिए पूजा करता था।
बाद के दिनों में उसकी यह क्रिया उसके परिवार की परंपरा बन गयी। दो तीन पीढ़ियों तक यह ठीक चलता रहा। फिर एक बार ऐसा हुवा की उस पत्थर की पूजा किये वगैर फसल बो दिया गया। और फसल काटने के पूर्व भी उसकी पूजा करना लोग जरुरी नहीं समझे। परिणाम यह हुवा कि जिस बैलगाड़ी में फसल लादकर लाया जा रहा था, वह पलट गयी और बैल खुद को मुक्त कर भाग गये। ऐसी घटना सिर्फ एक बार नहीं, जब जब उस पत्थर को पूजना लोग भुल गये किसी न किसी दिक्कतों का सामना कृषक के परिवार को करना पड़ा।
यह घटना एक कहानी भी हो सकता है अथवा यह एक अर्द्धसत्य भी हो सकता है। अर्द्धसत्य इसलिए क्योंकि यह सुनी सुनाई है, पर यह नहीं कि कहा जा सकता कि ऐसा घटित नहीं हुवा होगा। कुछ के नजर में इस घटना को सच मानने या बताने वाले अंधविश्वासी भी हो सकते हैं। परन्तु इतना तो कहा जा सकता है कि पत्थर ही क्यों न हो किसी एक स्थान पर उसे स्थापित कर उसके साथ लम्बे समय तक एक जैसा व्यवहार किया जाता है, तो उसे भी इसकी लत लग जाती है। और यह क्रम टुटने पर उसकी ओर से भी प्रतिक्रया का होना संभव हो सकता है। आखिर इस जगत में सर्वत्र जो हो रहा है, सबकुछ ऊर्जा का ही खेल है।
अब आइए प्राणी जगत पर चर्चा करते हैं। अध्ययन के अनुसार जगत के ऐसे बहुकोशिकीय पदार्थों का समूह, जो उत्पन्न होने के पश्चात स्वत: विकसित होते हैं प्राणी कहे जाते हैं। प्राणी गतिशील होते हैं, उनमें प्रजनन एवम् पोषण की क्षमता होती है। पोषण क्रिया के द्वारा उनके रूप और आकार में निर्धारित गति से परिवर्तन होता है। ‘अरस्तू’ ने प्राणी जगत को मूख्य रुप से दो समूहों में वर्गीकृत किया है, वनस्पति और जन्तु। वनस्पति के अन्तर्गत पेड़, पौधे आते हैं। वहीं सुक्ष्म अमीबा से लेकर विशाल हाथी एवम् भीमकाय व्हेल तक जन्तु के श्रेणी में आते हैं।
संक्षेप में यह जानने का प्रयत्न करते हैं कि क्या वनस्पतियों में संवेदना होती है? गौरतलब है कि वनस्पतियों के विना जन्तु जगत की कल्पना भी नहीं की जा सकती। वनस्पतियों में प्रकाश संश्लेषण के द्वारा स्वयं को पोषित करने की क्षमता होती है। और इनमें जो फल-फूल लगते हैं उसका उपयोग वे खुद के लिए नहीं करते। जन्तु जगत के पोषण का आधार वनस्पति जगत ही है। इस पर आप क्या कहेंगे?
सत्य पर आधारित इस घटना से यह प्रमाणित हो जाता है कि वनस्पति जगत में भी संवेदना होती है। एक अमेरिकी संत बरबैंक को गुलाब के एक पौधे से लगाव हो गया। वह नित्य उस पौधे को सींचते थ । पौधे का देखभाल करते वक्त उसे बहुत प्यार से सहलाते और बारम्बार उससे कहा करते कि ‘तुम्हारे काँटों के चुभन से तुम्हे छूने वाले को चोट पहुँच सकता है, अगर तुम इन काँटों का त्याग सको तो लोग तुम्हे और अधिक प्यार करने लगेंगे। अंततः वो पल आ ही गया और गुलाब के पौधे ने अपने काँटों का परित्याग कर दिया। उस गुलाब कि प्रजाति आज भी मौजूद है, बिना काँटों का गुलाब जिसे दुनिया बरबैंक गुलाब के नाम से जानती है। बरबैंक की संवेदना का असर ऐसा हुवा कि गुलाब का पौधा भी संवेदनशील हो गया।
अब आइए जन्तु जगत की चर्चा करते हैं। जन्तुवों के पोषण, प्रजनन एवम् विकास की प्रक्रियाएं भिन्न भिन्न होती है। इनमें कुछेक प्रक्रियाओं में समानता देखने को मिलती है, जिसके आधार पर उनका वर्गीकरण किया गया है। सरीसृप, मतस्य, पक्षी आदि इनके अनेक समूह होते हैं। जन्तुओं के एक समूह को स्तनधारी कहा गया है। स्तन एक प्रकार का शारीरिक अंग है, जिससे जन्तुएं अपने संतानों को जन्म देने पर प्रारंभ में उनका पोषण करती हैं। मनुष्य, हाथी, शेर, गाय, घोड़ा, कुत्ता, बिल्ली आदि स्तनधारी के श्रेणी में आते हैं।
मनुष्य के अलावा बाकी के सभी स्तनधारियों को जानवर की संज्ञा दी गई है। यह समझा जाता है कि अन्य जन्तुओं के जीवन में पोषण और प्रजनन के क्रियाओं के अलावा और कोई कार्य नहीं होता। उनमें मनुष्यों की भांति बुद्धि-विवेक का अभाव होता है। यह कहना सही है कि अन्य प्राणीयों में मनुष्यों की भांति सोचने समझने की शक्ति नहीं होती। परन्तु विल्कुल ही नहीं होती यह कहना उपयूक्त नहीं होगा।
अन्य प्राणीयों में कुछ ऐसे स्वाभाविक गुण होते हैं जो मनुष्य जाति में नहीं पाये जाते। उनमें कुछ ऐसे गुण होते हैं, जो उन्हें विशिष्ट बनाती हैं। पक्षियों में नभ में उड़ने की, मतस्य में जल में तैरने की, तो सरीसृपों में रेंगने की क्षमता होती है। कुछ मामलों में तो वे आम मनुष्यों से श्रेष्ठ नजर आते हैं। जैसे जानवर कभी पीठ पीछे वार नहीं करते! कुर्तों की उसके मालिक के प्रति वफादारी से भी हम सब परिचित हैं। कुत्तों की सुंघकर पता लगाने की शक्ति के कारण विभिन्न आपराधिक घटनाओं के अनुसंधान में उनका सहयोग भी लिया जाता है। शेर जब भुखा हो तभी शिकार पर निकलता है। ऐसा कहा जाता है कि शेर अपने जीवन में एक बार यौन संबंध बनाता है। अन्य जीवों में भविष्य की चिंता कर संसाधनों को इकट्ठा करने की प्रवृत्ति देखने को नहीं मिलती। कहा तो यह भी जाता है कि पशु-पक्षियों में मौसम में संभावित बदलाव का पूर्वानुमान की क्षमता होती है।
अब आइए इस विषय पर आते हैं! क्या जानवर संवेदनशील होते हैं? साथियों अनेक कथा कहानियों में ऐसा वर्णन मिलता है, जिससे यह ज्ञात होता है कि जानवरों में भी समझ और संवेदना होती है।
फिल्मों में भी बहुत से ऐसे दृश्य देखने को मिलते हैं, जो जानवरों की समझ और संवेदना को दर्शाते हैं। ‘हाथी मेंरा साथी’ एक ऐसी ही फिल्म है। इस फिल्म का कथानक ही फिल्म के नायक और एक हाथी के दोस्ती पर आधारित है। माना कि ये लेखक की कल्पना है, परन्तु जब इस कथा का छायांकन किया जा रहा होगा तो उस हाथी ने अवश्य ऐसा अभिनय किया होगा।
साधारण मनुष्यों को इन बातों से कोई मतलब ही नहीं होता। संसार की सभी वस्तुएं तो उनके लिए सिर्फ और सिर्फ उपयोग एवम् उपभोग के निमित्त होते हैं। जिसके भीतर प्रेमरुपी संवेदना हो, वही अन्य जीव-जंतुओं के संवेदनाओं को समझ पाता है।
फूल की पंखुड़ियों को छोड़कर आप उसकी खुबसूरती को एकत्रित नहीं कर सकते!
रविन्द्र नाथ टैगोर
वनस्पतियों एवम् जन्तुओं की जो प्रकृति है, उन्हें विकसित करने के लिए उनके पास कोई शास्त्र नहीं है। उनका जो स्वभाव है, प्रकृति प्रदत है। और प्रत्येक जीव-जन्तुओं को उनके स्वभाव के अनुसार ही जाना जाता है। उनकी अपनी सीमाएं हैं, जबकि मनुष्य उन्नतिशील प्राणी है। मनुष्य खुद को विकसित कर सके, इसके लिए धर्म, शास्त्र, सबकुछ उपलब्ध है। परन्तु यह विडम्बना ही है विरले ही वास्तविक संवेदना का अनुभव कर पाते हैं।
एक सुखी लकड़ी ज्वलनशील होता है, उसके भीतर पूर्व से ही अग्नि निहित होती है। परन्तु उसे सुलगाना पड़ता है। चिंगारी जो बाहरी त्तत्व होता है, लकड़ी जब उसके सम्पर्क आती है तो सुलग जाती है। ठीक वैसे ही मनुष्य के भीतर ही समस्त ज्ञान निहित है। विना प्रयास के वह उसे जान नहीं पाता। भीतर के ज्ञान रुपी अग्नि को सुलगाने के लिए गुरु रुपी बाहरी त्तत्व से मिलना होता है। गुरु रुपी बाहरी चिंगारी ज्ञानरुपी भीतर के अग्नि को प्रज्वलित कर देते हैं। इसिलिए तो कहा गया है विना गुरु के ज्ञान नहीं मिलता!
मनुष्य में आत्मचिंतन के द्वारा बुद्धि-विवेक को विकसित करने की क्षमता होती है। मनुष्य में सृजनशीलता होती है, यह जो त्तत्व है उसे अन्य जन्तुओं से भिन्न करता है। इसिलिए तो मनुष्य को जगत का सर्वश्रेष्ठ प्राणी माना गया है। क्योंकि मनुष्य का जीवन उन्नतिशील एवम् उद्देश्यपूर्ण होता है।
परन्तु यह एक विडंबना ही है कि ज्यादातर मनुष्यों का जीवन अंधकार में ही गुजर जाता है। परम प्रकाश को देखने जानने का प्रयास विरले ही करते हैं। इस प्रकार यह कहा जा सकता है जिन मनुष्यों के जीवन में अज्ञान का अंधेरा व्याप्त होता है, उनका जीवन जानवरों के जीवन के सदृश ही होता है। अगर मनुष्य अपनी संवेदना के उच्चतम स्तर ‘आत्मज्ञान’ को प्राप्त कर ले, तो समस्त ब्रम्हांड का अनुभव अपने भीतर कर सकता है।
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