पिता अर्थात् जन्मदाता, पालनकर्ता एवम् मार्गदर्शक! एक स्त्री संतानोत्पत्ति के लिए जिस पुरुष का सहयोग लेती है, वह जन्म लेने वाले शिशु का पिता कहलाता है। मनुष्य हो अथवा पशु-पक्षी; संतानोत्पत्ति के लिए विपरीत लिंगों का आपस में यौन संपर्क आवश्यक होता है। जानवर भी संतानोत्पत्ति करते हैं, परन्तु मनुष्य और अन्य जन्तुओं में आलोचनात्मक यह अंतर है कि अन्य जीवों में पितृत्व भाव का अभाव होता है।
केवल जन्म देने के कारण मात्र होने से इस मर्यादित संबंध में कोई संपूर्ण नहीं हो जाता। शास्त्रों में कहा गया है; “पिता – गोपिता” अर्थात् पालक, पोषक और रक्षक को पिता कहते हैं।
परन्तु क्या मोहवश पालन-पोषण एवम् संतानों के भविष्य के प्रति चिंतित रहना ही एक जन्मदाता का दायित्व है? अथवा उनमें उत्तम संस्कारों का निर्माण हो, इसके लिए प्रयासरत रहना उनका दायित्व है?
एक पुरानी कहावत है;
बाढ़ै पुत पिता के धर्में, खेती ऊपजै आपन कर्में।।
अर्थात् पुत्र की प्रगति जन्मदाता के पुरुषार्थ से होता है और किसान जब मेंहनत करता है तभी फसल की ऊपज होती है। केवल बीज डाल देने भर से, फसल बोने मात्र से उत्तम पैदावार नहीं होता, अच्छे फसल के लिए किसान को जी तोड़ मेंहनत करना पड़ता है। खेतों में दिन-रात पसीना बहाना होता है, फसल की दैखभाल करनी होती है। ठीक वैसे ही पुत्र में अच्छे संस्कारों के निर्माण के लिए जन्मदाता को पुरुषार्थ करने पड़ते हैं। क्योंकि जैसा लालन-पालन होता है, जिस माहौल में शिशु पलता है, उसके अंदर वैसे ही संस्कार विकसित हो जाते हैं। और फिर वह वैसा ही कर्म करता है।
जैसे-तैसे पलने वाले बच्चे भी अपना भरण-पोषण करना सीख तो जाते हैं, पर जीवन के अर्थ क्या हैं, जीवन क्या है , इसका ज्ञान उन्हें मिलता ही नहीं। उन्नति का मतलब केवल आर्थिक लाभार्जन ही नहीं है, इस तथ्य का व्यावहारिक ज्ञान एक पुरुषार्थी पालक ही पुत्र-पुत्रियों को दे सकता है।
आत्मनिर्भरता का अर्थ : Meaning of self Reliance
कभी कभी एक पुरुषार्थी पिता भी संतान के मोह में आकर ऐसे कर्म करते हैं, जिससे जन्म से प्रतिभाशाली होने के बाद भी पुत्र का आत्मिक विकास नहीं हो पाता। गुरु द्रोण एवम् अश्वश्थामा इस बात का एक सटीक उदाहरण है। अश्वश्थामा के महात्वाकांक्षाओं को तुष्ट करने के लिए गुरु द्रोण ने अपने सारे कौशल का उपयोग किया। पुत्र मोह के कारण ही उन्हें कौरवों के अधर्म का सहभागी होना पड़ा, इस बात का उल्लेख महाभारत में किया गया है।
पिता बनना पिता होने से कहीं अधिक आसान है।
इतिहास में अपने संतान के प्रति प्रेम, स्नेह, त्याग एवम् मोह के भाव के उदाहरण मिलते हैं। राजा दशरथ ने अपने पुत्रों के पालन-पोषण एवम् उनके चारित्रिक विकास के लिए जो कुछ किया, इसका उल्लेख रामायण में वर्णित है। बचपन में ही उन्होंने अपने पुत्र मोह का त्याग करते हुए अपने चारों पुत्रों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए गुरु वशिष्ठ के पास भेज दिया। किशोरावस्था में ही उन्होंने राम-लक्ष्मण को गुरु विश्वामित्र को सौंप दिया। उनमें पुत्र के प्रति प्रेम और त्याग का भाव इतना था कि राम के वन गमन के समय पुत्र वियोग होने पर उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए।
वहीं एक उदाहरण महाभारत में राजा धृतराष्ट्र का भी मिलता है। धृतराष्ट्र को केवल अपने पुत्रों के भविष्य की चिंता रहती थी। अपने पुत्रों के जीवन में सुख की लालसा के अलावा उन्होंने कभी उनके चारित्रिक विकास पर नहीं सोचा। पुत्र मोह में फंसे रहकर उन्होंने जो किया और उसका परिणाम क्या हुवा, यह सर्वविदित है।
योग्यता का अर्थ क्या है : meaning of ability in hindi
वास्तव में एक आदर्श पिता वो है, जो जन्म देने के साथ-साथ पालनहार भी होता है। और अपने संतान को चरित्रवान एवम् योग्य बनाने का प्रयास करता है। योग्य और संस्कारी संतान का पिता गौरवशाली होता है, परन्तु इसके लिए पिता होने के मर्यादा का पालन करना अनिवार्य होता है।
चरित्र का निर्माण जरूरी है – Character Building Is Important
पिता वो है जो संतान को गिरने से पहले थाम लेता है, लेकिन उसे उठाने के बजाय उसके वस्त्र में लगे धुल-मिट्टी को साफ कर पुनः कोशिश करने को कहता है। पिता पुत्र को सहारा देता है, पर उसे अपना परछाई नहीं बनने देता।
सामान्यतः अपने संतानों का पालन-पोषण अपने सामर्थ्य के अनुरूप हर पिता करता है। अपने सोच-समझ के आधार पर संतानों के सुख और सुरक्षा की कामना भी हरेक पिता के मन में होता है। पिता चाहे जैसा भी हो, आखिर वह पिता है। चाहे वह कर्तव्यहीन ही क्यों ना हो, इस बात को नजरंदाज नहीं किया जा सकता कि वही संतान का जन्मदाता है। एक उत्तम संतान होने के लिए पिता का आदर करना अनिवार्य है।
पिता-पुत्र का संबंध निभाने के लिए नहीं जीने कै लिए होता है। जन्म के साथ ही निर्मित इस संबंध की गरीमा को बनाये रखने का दायित्व दोनों का होता है। पर आज के समय में जीना दो दुर ठीक प्रकार से निभाने का उदाहरण भी विरले ही दिखाई पड़ते हैं। एक दुसरे के प्रति कर्तव्यों पर कम दिखावा पर अधिक जोर देने का प्रचलन चल पड़ा है। इसका सटीक उदाहरण सोशल मीडिया में देखने को मिल जाता है। प्रत्येक वर्ष 20 जुन के दिन “father’s day” मनाया जाने लगा है। इस खास दिन के एक दो दिन पूर्व और एक दो दिन बाद तक तो मानो अचानक पितृभक्त संतानों की बाढ़ सी आ जाती है। परन्तु वास्तव में दो चार पितृभक्त भी दिख जाये तो इस दिन विशेष का गरिमा में चार चांद लग सकता है।
आज के परिवेश में संतानों को जन्म देने वाले अधिकांश वीर पुरुष धृतराष्ट्र नजर आते हैं, तो संतान भी दुर्योधन के चरित्र को चरितार्थ करने में ही लगे रहते हैं। आज के परिवेश में कितने पुत्र ऐसे नजर आते हैं, जो राम की भांति अपने जन्मदाता के वचन का मान रखने हेतू पल भर में राज्य सुख का त्यागकर वन गमन को सज्ज हो जाते हैं। श्रवण कुमार के तरह अपने नेत्रहीन जनक-जननी का बोझ अपने कंधे पर लेकर उनके इच्छाओं को पूर्ण करना ही अपना धर्म समझते हैं। देवव्रत भीष्म की तरह अपने पिता के मनोभाव को जानकर आजीवन ब्रम्हचर्य का प्रतिज्ञा ले सकते हैं। सीता की भांति कितनी ऐसी पुत्रियां दिखाई पड़ती हैं, जो सबकुछ सहन करते हुवे पिता के गौरव का लाज रख लेती हैं।
पिता होने का अर्थ है तो संतान होने का भी अर्थ है! वह संतान सौभाग्यशाली है जिसका जन्मदाता एक पुरुषार्थी होता है, पर अगर ना भी हो तब भी जन्म देने वाले का सम्मान हर परिस्थिति में अनिवार्य है।
महाभारत में एक घटना का उल्लेख है; यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा _
” का स्विद् गुरुत्तरा भूमे स्विदुच्चत्तरं च स्वात्। किन स्विच्छीघतरं वायो: किं स्विद् बहुतरं तृणात।।”
अर्थात् पृथ्वी से भारी क्या है? आकाश से ऊंचा क्या है? वायु से तीव्र क्या है और तृणों से भी असंख्य क्या है? उत्तर में युधिष्ठिर कहते हैं;
“माता गुरूतरा भृगे पिता चोच्चतरं च स्वात्। मन: शीघ्रतरं वाताच्विन्ता बहुतरी तृणात्।।”
अर्थात् माता पृथ्वी से भारी है, पिता आकाश से भी ऊंचा है, मन वायु से भी अधिक तीव्रगामी है और चिंता तिनकों से भी असंख्य और विस्तृत है।
पंडित तुलसीदास जी के रामचरितमानस में एक चौपाई है; “प्रातकाल उठी कै रघुनाथा मातु पिता गुरु नावहिं माथा। ” श्री रामचन्द्र प्रात: उठते के साथ माता-पिता एवम् गुरु को प्रणाम करते थे। उनका आशिर्वाद प्राप्त करने के पश्चात ही अन्य कार्यो को करते थे।
महाभारत में उल्लेख किया गया है;
“पिता धर्म पिता स्वर्ग पिता ही परमं तप:। पितरि प्रीतिमापन्ने सर्वा प्रीयन्ति देवता।।”
अर्थात् पिता ही धर्म है, पिता ही स्वर्ग है और पिता ही सर्वश्रेष्ठ तपस्या है। पिता के प्रसन्न हो जाने पर सारे देवता प्रसन्न हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि माता सर्व तीर्थमयी और पिता संपूर्ण देवताओं का स्वरूप है; अत: माता-पिता का सेवा-सत्कार अवश्य करना चाहिए।
एक आदर्श पिता की एक आदर्श व्याख्या आपने की है। रामायण से लेकर महाभारत तक का प्रसंगों का आपने उल्लेख किया गया है।।👌👌👌👌🙏🙏🙏🌷