स्वच्छता का अर्थ होता है; तन, मन और अपने आसपास अवस्थित वस्तुओं की साफ-सफाई। स्वच्छता मनुष्य के भीतर उत्तम गुणों को विकसित करता है। शारीरिक, मानसिक एवम् बौद्धिक हरेक रुप से स्वस्थ रहने के लिए जीवन में स्वच्छता का होना महत्त्वपूर्ण है।
केवल मनुष्य ही नहीं बल्कि स्वच्छता या शुद्धि किसी भी चीज की पहचान होती है। इसके विपरीत अस्वच्छता, मलिनता अथवा गंदगी हमारे आस-पास के जीवन और वातावरण को विषाक्त कर देती है। अतः स्वच्छ रहना और स्वच्छ रखना एक उत्तम आचरण है।
ज्ञानियों ने कहा है कि तन की शुद्धि स्नान से और मन की शुद्धि ध्यान से ! आइए इस आलेख में बात तन की स्वच्छता की करते हैं। ‘तन की शुद्धि’ से तात्पर्य है, शरीर को स्वच्छ रखना। नित्य प्रतिदिन शरीर के बाह्य अंगों की सफाई करना जरूरी होता है। वहीं तन के भीतरी अंगो की सफाई भी समय समय पर आवश्यक हो जाता है।
बाह्य रुप से तन की शुद्धि के लिए जल से स्नान की वैदिक परंपरा है। शास्त्रों में अनेक प्रकार के स्नान का वर्णन मिलता है। प्रतिदिन के स्नान को नित्य स्नान, तीर्थों में स्नान को काम्य स्नान एवम् ग्रहण, अशौच आदि में किये जाने वाले स्नान को नैमित्तिक स्नान कहा गया है। सरिता के बहते जल में एवम् जलाशयों में काम्य एवम् नैमित्तिक स्नान करना महत्त्वपूर्ण माना गया है।
सुर्दोदय से पूर्व तारों की छाया में स्नान करने से नकारात्मक ऊर्जा के प्रभाव से मुक्ति मिलती है। ब्रम्ह मुहूर्त में सुर्योदय से पूर्व के स्नान को ब्रम्ह स्नान एवम् सुर्दोदय के उपरांत प्रात: काल में स्नान को देव स्नान कहा गया है। वहीं भोजन के उपरांत किया गया स्नान दानव स्नान कहलाता है।
इसके अलावा गौण स्नानों का भी वर्णन शास्त्रों में मिलता है। गौण स्नान की निम्न विधियां होती हैं। जैसे मन्त्र स्नान, भौम स्नान , आग्नेय स्नान एवम् धुप स्नान आदि। शरीर में मिट्टी का लेप लगाकर स्नान करना भौम स्नान कहलाता है। गौधुली का शरीर में लगने से आग्नेय स्नान होता है और खुले बदन धुप का सेवन धुप स्नान कहलाता है। वेद मन्त्रों के उच्चारण कर शरीर में जल छिड़कना मंन्त्र स्नान होता है। पूजा-आराधना में बैठने से पूर्व मन्त्र स्नान का विधान है।
वहीं तन के भीतरी अंगो को स्वच्छ रखने के लिए शास्त्रों में अनेक विधियों का वर्णन है, जैसै नेति क्रिया, लघु एवम् वृहत प्रच्छालन क्रिया आदि। नेति क्रिया के द्वारा नासिका नली एवम् गले की सफाई की जाती हैं। और प्रच्छालन क्रिया द्वारा पेट की सफाई की जाती है। इसके अलावा आयुर्वेद में औषधियों के सेवन द्वारा भीतरी अंगों की सफाई का वर्णन किया गया है। तन की शुद्धि या स्वच्छता के नियमों का पालन करने से शरीर स्वस्थ बना रहता है।
व्यक्तित्व के संपूर्ण विकास के लिए तन और मन दोनों का शुद्धिकरण जरुरी होता है। वास्तव में तन, मन, बुद्धि और कर्म ये सभी शुद्धता और मलिनता के हिसाब से ही चलते हैं। स्वच्छ मन के लिए एक स्वच्छ शरीर का होना जरूरी होता है। तन की शुद्धि से स्वस्थ शरीर का गठन होता है और मन की शुद्धि से स्वच्छ बुद्धि का। इस प्रकार स्वच्छ बुद्धि के द्वारा होने वाले कर्म भी स्वच्छ होते हैं। फिर वैसे ही कर्मों से स्वच्छ संस्कारों का निर्माण होता है।
अस्वस्थ शरीर से मन की शुद्धि के विधियों का अभ्यास ठीक तरह से नहीं हो पाता है। और मन में जब मलिनता का भाव होता है, तो इसमें उत्पन्न होने वाले विचार के कारण गलत कार्य होने लगते हैं। जो मलिन संस्कारों का निर्माण करते हैं और आत्मा को धुमिल कर देते हैं।
गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है; “हे अर्जुन मन की मलिनता मनुष्य को पुण्य संस्कारों से दुर कर देती है।”
“मनुष्य बलवान हो खुन शुद्ध हो और शरीर तेजस्वी जिससे वह सब बाहरी विषों को दबा और हटा देने लायक हो सके। वेदों में कहा गया है, स्वस्थ, तीव्र मेंधा वाले और उत्साही मनुष्य ही ईश्वर के पास पहुंच सकते हैं।”
स्वामी विवेकानंद
योगाभ्यास ( योग क्या है! जानिए ) द्वारा शरीर और मन को स्वच्छ रखने का प्रयत्न करना चाहिए। ध्यान ( ध्यान क्या है जानिए ! Know what is meditation. ) का अभ्यास करने से मन स्वच्छ हो जाता है। ध्यान किसी भी समय किया जा सकता है। पर ब्रम्ह मुहूर्त में स्नान के पश्चात ध्यान करना विशेष फलदायी होता है। योग शरीर और मन ( मन पर नियंत्रण कैसे करें ) दोनों के लिए लाभदायक होता है। तन जब स्वच्छ और स्वस्थ रहेगा, तभी हम मन को भी स्वस्थ रख पाने समर्थ हो सकते हैं। अतः तन और मन की स्वच्छता के लिए हर किसी को निरंतर प्रयास करना चाहिए।