संयम का अर्थ है शारीरिक एव मान्सिक क्रियाओं को नियंत्रित करना। जैसे व्यवहार पर नियंत्रण, वाणी पर नियंत्रण, इच्छाओं पर नियंत्रण। क्रोध, लालच, द्वेष, मोह, अभिमान आदि मन की अवांछित भावनाओं पर नियंत्रण। मुख्यत: मन का संतुलित अवस्था में रहना ही संयम है। व्यवहारिक जीवन में सफल होने के लिए जीवन में संयम का होना अनिवार्य है।
मनुष्य का मन एक झुले की तरह है। यह दो आयामों के बीच भुलता रहता है। कभी किसी पर आसक्त हो जाता है तो कभी विरक्त हो जाता है। मन पर नियंत्रण कैसे करें! how to control the mind. मनुष्य का मन भी तेज हवाओं के झोंके में रखे हुवे एक दीये के समान है। कामनाओं के झोंके दीये की बाती को स्थिर नहीं रहने देते। मन को स्थिर रखने के लिए कामनाओं पर नियंत्रण अनिवार्य है।
‘अति सर्वत्र वर्जयेत्।।’ आचार्य चाणक्य का यह सुत्र हमें अति से बचने का संदेश देता है। ना अधिक उपवास ना अधिक भोजन, ना अधिक चुप्पी ना अधिक बोलना, ना कम सोना ना अधिक सोना, जीवन के सामान्य क्रिया कलापों में भी अति से बचना चाहिए।
मनुष्य को अपने व्यवहार में अति से बचना चाहिए। कबीर कहते हैं ‘ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर।।’ ना किसी से अत्यधिक लगाव उचित है और ना ही किसी के प्रति अलगाव ही उचित है। मनुष्य को अपने शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, व्यावहारिक हर आचरण में अति से परहेज करना ही उचित है।
भगवान बुद्ध ने मध्यम मार्ग को उत्तम मार्ग कहा है। उन्होंने यह संदेश दिया है कि मनुष्य को दो अतियों से बचना चाहिए। पहला अति है काम, भोगों से लिप्त जीवन और दुसरा अति है आत्मपीड़ा प्रधान जीवन। जीवन में अत्यधिक दुख भी नहीं तो सुख भी नहीं होनी चाहिए। मध्यम मार्ग आनंद देने वाला है, शान्ति का आभास कराने वाला है। उन्होंने हर स्थिति में मध्यम मार्ग पर चलने का संदेश दिया है। जीवन में संयम ना हो तो दो अतियों के मध्य के मार्ग पर कैसे चला जा सकता है! स्वयं को संयमित करना अत्यंत कठिन है। परन्तु अगर स्वयं को संयमित कर लिया जाय तो जीवन सरल हो जाता है। मनुष्य को सुखी होने के लिए उसके मन में संतोष का होना आवश्यक है। और मन संतोषी तभी हो सकेगा जब वह संयमित होगा।
मन अगर भोग के अति में लगा रहता है, तो अनैतिक कर्म करने लगता है। किसी विषय पर आसक्त होता है तो कुकर्म करता है। महाभारत के पात्र दुर्योधन को देखिए। उसके मन में आसक्ति है, राज्य के प्रति, सिहांसन के प्रति। अपने इच्छाओं को पूरा करने के लिए वह अमानवीय कृत्य करता है।
मन अगर विरक्त हो तो उन चीजों से दुर होना चाहता है, जिसके कारण वह व्यथीत है। रामायण के पात्र भरत को देखिए। जब उन्हें यह यह पता चला कि श्रीराम को वनवास दे दिया गया है, तो उनका मन व्यथित हो जाता है। वनवास का कारण यह था कि कैकेई भरत को राजा बनाना चाहती थी। भरत को इसकी कल्पना भी नहीं थी। इस घटना से उनका मन विरक्त हो जाता है। और राज्य का त्याग कर देते हैं।
एक तरफ दुर्योधन है, उसके मन में भोग की अति है। दुसरी ओर प्रारंभिक अवस्था में भरत के मन में त्याग की अति है। संयम भोग की अति एवम् त्याग के अति के मध्य की अवस्था है। श्रीराम के समझाने के फलस्वरूप भरत का मन इस अवस्था को प्राप्त कर लेता है।
राज्य का त्याग कर भरत वन की ओर दौड़ते हैं। भाव विह्वल होकर श्रीराम के चरणों में गिर पड़ते हैं। श्रीराम उन्हें समझाते हैं। श्रीराम यह समझाते हैं कि पिता के वचन का पालन करना हमारा धर्म है। इसिलिए मैंने राज्य का त्याग किया। मेंरी अनुप्स्थिति में राज्य का संचालन तुम्हारा कर्तव्य है। विना राजा के राज्य का संचालन नहीं हो सकेगा। और तुम उसके लिए सर्वथा योग्य हो। कर्तव्यों त्याग करना सर्वथा अनुचित है। भरत श्रीराम का चरण पादुका लेकर वापस लौटते हैं। चरण पादुका को सिंहासन पर रखकर राज्य का संचालन करते हैं।
भरत के मन का संयम निराला है। राजा न होकर राज्य का संचालन करना कोई भरत से सीखे। उन्होंने यह सिखाया है कि योगी का जीवन जीते हुवे भी राजा के कर्त्तव्य का पालन किया जा सकता है। अपने मन को नियंत्रित रखने के लिए भोग विलास का उन्होंने त्याग कर दिया। परन्तु श्रीराम के वापस आने तक राजधर्म को निभाते रहे। उनके मन में ना आसक्ति रही और ना ही विरक्ति रह गई। जो रह गया वह केवल कर्तव्य था। एक भाई का कर्त्तव्य, एक राजा के प्रतिनिधि का कर्तव्य, जिसका त्याग उन्होने नहीं किया।
संयम आत्मा का गुण है !
सम और यम दो शब्दों का मेंल है संयम। यम अवांछित कार्यों, विचारों से मुक्त होने, बाह्य एवम् अंत: को शुद्ध करने का साधन है। योग विद्या में यम और नियम की व्याख्या की गई है। योग क्या है! जानिए : Know what is yoga ! यम के पांच अंग बताए गए हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रम्हचर्य और अपरिग्रह ये पांच अंग यम के अन्तर्गत आते हैं। इन आयामों के अभ्यास से मन को एवम् नियम के अभ्यास से शरीर को संयमित किया जाता है।
सदगुरु जग्गी वासुदेव के अनुसार; कर्म का अर्थ होता है गतिविधि। प्रत्येक के जीवन में भौतिक, मान्सिक, भावनात्मक और ऊर्जा के स्तर पर गतिविधियां चलती रहती हैं। परन्तु। आप क्या कर रहे हैं, आपका शरीर क्या कर रहा है। आपकी ऊर्जा, आपके विचार, आपकी भावनाऐं क्या कर रही हैं। (कर्मयोग का रहस्य : secret of Karma yoga) इन सब बातों के प्रति मुट्ठी भर लोग ही सचेत होते हैं।
जीवन में अधिकतर गतिविधियां अचेतन में हो रही हों, तो चिन्ता, भय का होना स्वाभाविक है। अगर चेतना के स्तर को विकसित कर लिया जाय तो सबकुछ सरल होने लगता है। यदि आप अपने शरीर की, अपने विचारों की गतिविधियों को संभालना सीख जाते हैं। अपने भावनाओं पर नियंत्रण करना जान जाते हैं। तो जीवन में चिंता, भय जैसी चीजों से दुर होने लगते हैं। इस प्रकार अगर भीतर के समस्त ऊर्जा को समेंट कर, जागरूकता के साथ संचालित करता सीख लें! तो सबकुछ आपके हाथों में होता है।
जगत गुरु शंकराचार्य ने खुद का परिचय इस प्रकार से दिया है। शंकराचार्य के शब्दों में; ‘मैं मन बुद्धि, चित्त और अहंकार इन सभी त्तत्वों में से कुछ भी नहीं हूं, अगर कुछ हूं, तो बस शिव हूं।’
शास्त्रों में प्रात: काल जगते ही अपने हाथों पर दृष्टि डालने की सीख दी गई है। तत्पश्चात अन्य गतिविधियों में पुर्ण जागरूकता के साथ लगे रहने की बात कही गई है। जब कभी व्यक्ति किसी अति के प्रभाव में आता है, उस समय वह अहंकार में होता है। जीवन में अगर संयम ना हो तो जीवन में अंधकार ही अंधकार है। आध्यात्मिक दृष्टि से संयम आत्मा का गुण है। अज्ञानता का अंधकार, असंतुष्टि की कालिमा से ढंका आत्मा को हमारा मन देख नहीं पाता। अचेतन मन में व्याप्त अंधकार से आत्मा के प्रकाश की ओर जाने के लिए जीवन में संयम का होना अनिवार्य है।
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