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मित्रता क्या है जानिए …

मित्रों ! इस आलेख में यह जानने का प्रयास करते हैं कि मित्रता क्या है ? मित्रता यानि दोस्ती को परिभाषित करना सरल नहीं है। मित्रता मित्र शब्द का विशेषण है। यह एक भावना है, जो दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच उत्पन्न होता है। सामान्यतः जब व्यक्तियों के बीच आपस में लगाव का संबंध होता है, तो इसे मित्रता समझा जाता है। और जिन लोगों के बीच आपसी लगाव का संबंध होता है, वे एक दुसरे के मित्र , दोस्त , साथी कहलाते हैं।

सामान्यतया मित्रता का कारण आपसी लगाव होता है। और इस लगाव के उपस्थित होने के भी कारण होते हैं। एक दुसरे के जरुरतों को पुरा करने की लालसा भी इसका कारण हो सकता है। लगाव होने का कारण अगर सतही हो, तो इसका प्रभाव आपसी संबंधों पर पड़ता हैं।

गहन अर्थों में अगर मित्रता को परिभाषित किया जाय तो इसका आशय अलग हो जाता है। इस दृष्टि से मित्रता वह भाव है, जो यह दो दिलों को आपस में जोड़ती है। ऐसी मित्रता मन की अस्थिर भावनाओं से परे की अवस्था है। 

मित्रता क्या है ? मित्र कैसा होना चाहिए ? कवि मैथिलीशरण गुप्त की ये पंक्तियां मित्रता को इस प्रकार से परिभाषित करती है :

तप्त हृदय को, सरस स्नेह से जो सहला दे मित्र वही है
रुखे मन को सराबोर कर जो नहला दे मित्र वही है ।
प्रिय वियोग , संतप्त चित को जो बहला दे मित्र वही है
अश्रु बुंद के एक झलक से जो दहला दे मित्र वही है ।

परन्तु अगर हृदय में अगर प्रेम ही न हो, तो फिर ऐसी मित्रता की कल्पना भी व्यर्थ है। सामान्य व्यक्ति जिसे मित्रता समझ लेता है, वह सतही होता है। यह जो भाव है मन के ऊपरी तल में व्याप्त होता है। सामान्य अर्थों में मित्रता एक मनोभाव है, और इसके ठीक विपरीत शत्रुता भी एक मनोभाव है। परस्पर लगाव अगर निहित स्वार्थ के कारण हो तो मित्रता को शत्रुता में बदलने की संभावना बनी रहती है। ऐसी भावनाऐं जो मन के ऊपरी तल से उत्पन्न होती हैं, बदलती रहती हैं।

मित्रता के सतही स्वरुप और मित्रता के शुद्ध स्वरुप में जमीन आसमान का फर्क है। सामान्यतः जिसका कोई मित्र होता है, उसका कोई शत्रु भी होता है। जो दोस्ती करता है, वही दुश्मनी भी करता है। ऐसी दोस्ती जो किसी स्वार्थ के पूर्ति के लिए बनाए जाते हों, टिकाऊ नहीं होती। और ऐसी दोस्ती दुसरों के व्यवहार पर भी निर्भर करता है।

प्रेम एक फूल है और दोस्ती आश्रय देने वाला एक वृक्ष। _ सैमुअल टेलर

अपने शुद्ध स्वरुप में मित्रता प्रेम की ऊपज है। इसमें शत्रुता के लिए कोई स्थान नहीं होता। क्योंकि प्रेम में किसी से कोई अपेक्षा नहीं होती। ऐसी मित्रता स्वयं पर निर्भर करता है, दुसरों से इसका कोई लेना-देना नहीं होता है। 

दोस्ती हमेशा एक मीठा कर्तव्य होता है, ना कोई मौका या अवसर। _ खलील जिब्रान

इस प्रकार सामान्यतः मन के ऊपरी तल में मित्रता और शत्रुता का भाव होता है। और जब हृदय प्रेम से भर जाता है तो मित्रता अपने शुद्ध स्वरुप में आ जाता है। व्यक्ति जब मित्रता के शुद्ध स्वरुप को उपलब्ध कर लेता है, तो सारा जगत उसका मित्र हो जाता है। उसका कोई शत्रु नहीं रह जाता है। 

मित्रता क्या है ? ओशो इसे इस प्रकार परिभाषित करते हैं : “मित्रता शुद्ध प्रेम है, यह प्रेम का सर्वोच्च रुप है, जहां कुछ भी नहीं मांगा जाता, कोई शर्त नहीं होती, जहां बस देने में आनंद आता है।”

न काहु से दोस्ती न‌‌‌ काहु से बैर !

मित्रता और शत्रुता के बीच एक और भाव है, वह है समभाव। और यह जो भाव है, यह ज्ञान से आता है। कबीर इसी समभाव की बात कह गये हैं, ‘न काहु से दोस्ती न‌‌‌ काहु से बैर’। चिंता नहीं चिंतन करो ..! जीवन में अगर चिंतन हो, ध्यान का अभ्यास हो, तो ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है। और ज्ञान के प्रभाव से मन में समभाव उत्पन्न होता है। 

कबीरा खड़ा बाजार में सबकी मांगे खैर।
न काहु से दोस्ती न काहू से बैर ।।

इस दोहे में कबीर के हृदय में समस्त संसार के प्रति जो प्रेम भाव है, उसकी अभिव्यक्ति हुवी है। इस संसार में आकर उन्होंने सबकी भलाई की कामना की है। उन्होंने कहा है कि उनकी ना तो किसी से मित्रता है और नाही किसी से कोई शत्रुता है। सबके प्रति उनके मन में समभाव है।

कबीर लोगों से प्रेमपूर्वक जीने का इशारा कर रहे हैं। उन्हें इस बात का अनुभव है, और  उन्होंने स्वयं ऐसा करके दिखाया भी है। कबीर घुम्मकड़ थे, उन्होंने लोगों के गतिविधियों को नजदीक से देखा था। कबीर ज्ञानी थे, ज्ञानीजन  दुसरों को इंगित कर कोई बात नहीं करते। अत: उन्होंने स्वयं को इंगित कर यह बात कही है। “कबीरा खड़ा बाजार में” … ऐसा कहकर उन्होंने लोगों के हित की बात कही है। ज्ञानी जो कहते हैं, अपने अनुभव से कहते हैं। और अपनी बात मनवाने पर जोर नहीं देते, केवल इशारा करते हैं।

अब प्रश्न यह उठता है कि उन्होंने इस संसार को बाजार क्यों कहा है ? बाजार का आशय होता है जहां चीजों का मोल-भाव किया जाता है। जहां चीज़ों को खरीदा और बेचा जाता है। एक प्रकार से देखा जाए, तो इस संसार मे भी संबंधो में तोल-मोल होता रहता है।  संबंधों में प्रेम कम स्वार्थ अधिक होता है। सभी अपने मतलब को साधने में लगे रहते हैं, जिसके कारण संबंध बनते-बिगड़ते रहते हैं। इस प्रकार से देखा जाए तो यह संसार भी एक बाजार प्रतीत होता  है। 

अपने एक प्रवचन में ओशो ने कहा है : “माली किसी फूल को खोलता नहीं, पानी देता है ; खाद देता है ; लेकिन किसी फूल को पकड़कर खुद खोलता नहीं है। अगर वह ऐसा करेगा तो फूल मुरझा जायगा। वह मौका देता है पौधे को ! जब फूल के भीतर ही क्षमता आ जायेगी खिलने की, तो फूल अपने से खुलेगा। अपने से खुल जाना ही सहज-योग है। कबीर के सारे वचन उसी सहज योग की ओर इशारे हैं। सरल को समझा तो कबीर को समझा !”

कबीर की हर वाणी पर मंथन करने की जरूरत है। अगर उनके कहे एक भी दोहे को ठीक से समझ लिया, तो समझो जीवन सुधर गया।

वास्तव में कबीर सबके मित्र हैं, सबके हितैषी हैं। इसी भाव से उन्होंने यह बात कही है, ‘न काहु से दोस्ती न‌‌‌ काहु से बैर” । और इसी भाव को सभी को धारण करने की सीख देते हैं। परन्तु ऐसा तभी अनुभव होगा जब आप उन्हें सुनेंगे और समझेंगे। मन अगर अज्ञान से भरा है, तो अज्ञानी मन कबीर को कैसे समझ सकता है। किसी ने कहा भी है जो सबका मित्र होता हैै वह किसी का मित्र नहीं होता। अतः ज्ञानियों के विचारों को समझने का प्रयास अवश्य करना चाहिए। ऐसा करने से जीवन में समभाव उत्पन्न हो सकता है, और जीवन को सहज बनाया जा सकता है। आशा करता हूं कि ज्ञानियों के उल्लेखित विचारों से ‘मित्रता क्या है’ इसे समझने में सहायता मिलेगी।

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