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अभ्यास का महत्व — Importance of Practice

अभ्यास का अर्थ !

‘अभ्यास’ अर्थात् बार बार किसी काम को करना। अभ्यास का अर्थ है; एक ही क्रिया को निरंतर दोहराते जाना। और ऐसा तब तक करते जाना जब तक कि आप उस क्रिया मेँ सफल न हो जायेँ। यह कोई शब्द मात्र नहीं है, यह एक निरंतर की जानेवाली क्रिया है।

अभ्यासो  न हि व्यक्तव्यः अभ्यासो ही परम् बलम्।
अनभ्यासे विषम विद्या अजीर्णे भोजनम् विषम ।।

विना अभ्यास के विद्या भी निरर्थक हो जाता है। चाकु के धार को बनाये रखने के लिए उसे हमेशा उपयोग में लाया जाता है। उसे मांजते रहना पड़ता है, अन्यथा उस पर  जंग लग जाता है और अनुपयोगी हो जाता है। सरल अनुशासन और हर दिन अभ्यास, सफलता का मूलमंत्र है। अलग-अलग विधाओं में आजतक जिन्होंने भी सफलता हासिल की है, उनके द्वारा अभ्यास को महत्त्व दिया गया है।

अभ्यास चीजों को आसान बना देता है!

कवि वृन्द ने कहा है कि जिसप्रकार रस्सी के बार बार रगड़ाने से पत्थर पर भी निशान हो जाता है, वैसे ही लगातार अभ्यास के द्वारा एक मुर्ख भी विद्वान हो जाता है।

करत करत अभ्यास ते जड़मति होत सुजान।
रसरि आवत जात ते सिल पर परत निशान।।

एक कथा के अनुसार एक गुरुकुल में एक बालक था जो बहुत ही मंदबुद्धि था। वह अपनी कक्षा में सबसे मुर्ख था। दस वर्ष बीत जाने के बाद भी वह मूर्ख ही बना रहा। सभी साथी उसका मजाक उड़ाया करते और उसे वरदराज (बैलों का राजा) कहा करते थे।

दुसरे शिष्यों द्वारा उस बच्चे को चिढाया जाना गुरु को पसंद नहीं था परन्तु उन्हें भी ऐसा लगने लगा कि इस बालक को शिक्षा दे पाना उनके वश में नहीं है। अतः एक दिन उन्होंने उसे अपने पास बुलाया और कहा की बेटा शायद पढ़ाई लिखाई तुम्हारे लिए नहीं है। क्या पता तुम किसी और काम में माहिर हो जाओ। अतः यहाँ पढने में अपना समय खराब मत करो और जाकर कोई और कार्य करने की कोशिश करो। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।

यह सुनकर वह बहुत दुःखी हो गया और भारी मन से उदास होकर गुरूकुल से निकल पड़ा। दोपहर का समय था, सुनसान रास्ता, तेज धूप, चलते चलते बालक  को प्यास लग गयी। उसने अपने आसपास देखा तो कुछ दूरी पर उसे एक कुँआ नजर आया। वह उस कुएँ के पास पहुँचा। जब कुएँ के पास पहुँचा तो उसने देखा की रेशम की रस्सी के बार-बार घिसने से कुएँ के पत्थर में निशान पड़ गए हैं।

यह देख उसे बहुत आश्चर्य हुआ, उसने बहुत ध्यान से देखा और उसी समय उसके मस्तिष्क में बहुत ही अनोखा विचार उत्पन्न हुवा। उसने अपने आप से पूछा, जब इस पतली रेशम की रस्सी के बार-बार घर्षण से कुएँ के जगत पर निशान आ गए हैं तो क्या में बार-बार कोशिस करने पर भी पढ़ लिख नहीं  सकता.? वह वापस गुरुकुल की ओर चल पड़ा। उसने गुरुदेव को कुछ दिन और रखकर शिक्षा देने की प्रार्थना की। सरल हृदय गुरूदेव राजी हो गये। उसने मन लगाकर पढ़ना आरम्भ कर दिया। यही बालक वरदराज कालांतर में संस्कृत के महान विद्वान बने और उन्होंने ‘लघुसिद्धान्तकौमुदी’ नामक ग्रन्थ की रचना की।

पहले अभ्यास है; ज्ञान बाद में है।

केवल वो जो पूरे जी-जान से किसी कारण के लिए खुद को समर्पित कर देता है, वही एक सच्चा माहिर बन सकता है। इसी वजह से महारत व्यक्ति से उसका सब कुछ मांगती है। “टाइम पर्सन ऑफ़ द सेंचुरी” और जीनियस का पर्याय माने जाने वाले महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन भौतिक विज्ञान में अपने अमूल्य योगदान के लिए जाए जाते हैं। जब वो बचपन मेँ पढ़नेँ के लिये जाते थे तब उनके शिक्षक द्वारा उन्हें मुर्ख कहा जाता था। 

आइन्स्टाइन को यह बात लग गयी और उन्होँने उसी दिन निश्चय किया कि वो अब वो गणित की अभ्यास मेँ दिन रात एक कर देँगे। और पुरी दुनिया जानती है कि आज उनका यह अभ्यास, उनकी ये साधना उन्हें कहां से कहां लाकर खड़ा कर दिया। 

अभ्यास पर स्वामी विवेकानंद के विचार।

स्वामी विवेकानंद जी कहते हैं; हमें उत्तम बनने के लिए अभ्यास करना चाहिए। अभ्यास चीजों को आसान बना देता है, अभ्यास हमें वो बनाएगा जो हम बनना चाहते हैं। अभ्यास बिल्कुल जरूरी है।

आप मेरे समक्ष बैठे रहें और हर दिन एक घंटे तक मेरी बात सुनते रहें, लेकिन अगर आप अभ्यास नहीं करेंगे, आप एक कुशल  श्रोता नहीं हो सकते।

एक बच्चा पियानो बजाना शुरू करता है. पहले तो उसे सभी बटनों पे ध्यान देना होता है जिन्हें वो उँगलियों से छू रहा होता है, और जैसे जैसे उसकी उंगलियां इस पर महीनो और सालों चलती है, बजाना लगभग सहज हो जाता है।

साधना  के महत्त्व को समझाते हुवे स्वामीजी ने कहा है कि सही नियत से किया गया अभ्यास साधना में रुपान्तरित हो जाता है। फिर मन की एक के बाद एक परतें हमारे सामने खुलती है। और प्रत्येक एक नए तथ्य को उजागर करतीं हैं। सभी अभ्यास, साधना अथवा पूजा केवल इस परदे को हटाने के लिए है। जब ये हट जायेगा, तुम पाओगे की परम ज्ञान का सूर्य अपने खुद की आभा में चमक रहा है।

विना साधना के साध्य तक नहीं जा सकते !

समुद्र में तैरने का आनंद जी भर कर लेना हो तो किनारा छोड़कर गहरे पानी में काफी दूर भीतर जाना पड़ता है। कभी बारी-बारी से लहरों का आलिंगन मिलता है तो कभी उनके थपेड़े भी खाने पड़ते हैं! पल-पल प्रतिक्षण नमकीन चुंबनाें की मिठास चखनी पड़ती है, नीले पानी पर तैरते रहकर दूर दिखाई देने वाले नीले क्षितिज को अपनी बाँहों में भरने की चेष्टा करनी पड़ती है। स्वयम् को शुद्धता, उत्कृष्टता, संम्पुर्णता अर्थात् आनंद की ओर ले जाने  के लिए निरंतर अभ्यास करना पड़ता है।

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जो मनुष्य का दिमाग बना सकता है, उसे मनुष्य का चरित्र नियंत्रित कर सकता है। अतः जीवन में सफल होने के लिए स्वयं के विचारों को साधना अनिवार्य है। निरंतर अभ्यास स्वम् को योग्य बनाने का उत्कृष्ट साधन  है। लम्बे समय तक अभ्यास करने के बाद, हमारा काम प्राकृतिक, कौशलपूर्ण, तेज और स्थिर हो जाता है..! विना अभ्यास के, विना साधना के साध्य तक पहुंच पाना असंभव है।

अभ्यास से मन पर नियंत्रण !

महाभारत युद्ध के प्रारंभ होने से पूर्व श्री कृष्ण और अर्जुन के बीच जो संवाद हुवा था। श्रीकृष्ण के जो वचन अर्जुन से कहे गये हैं, पवित्र गीता इन्हीं अमृतवचनों का संकलन है। पवित्र गीता से लिए गए निम्नांकित श्लोक अभ्यास के महत्ता को दर्शाता है।

चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् |
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ||

अर्थात् :  अर्जुन ने श्री कृष्ण से पूछा; हे कृष्ण ! यह मन चंचल और प्रमथन स्वभाव का तथा बलवान् और दृढ़ है ; उसे वश में करना मैं वायु के समान अति दुष्कर मानता हूँ।

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् |
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्येते ||

अर्थात् :  श्री कृष्ण ने कहा ; हे महाबाहो ! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है लेकिन हे कुंतीपुत्र ! उसे अभ्यास और वैराग्य से वश में किया जा सकता है |

आपको मेरी बातें कैसी लगीं, नीचे कमेंट बॉक्स में जरूर बताएं।