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दान का अर्थ और महत्व — Meaning and Importance of Charity

दान का शाब्दिक अर्थ देने की क्रिया से है! सामान्यतः किसी को सहायता के रुप में कुछ देना दान समझा जाता है। गहन अर्थों में किसी वस्तु अथवा अर्थ पर से स्वयं का अधिकार समाप्त करके दुसरे का अधिकार स्थापित कर देना दान है। इस क्रिया में दी गई वस्तु को किसी भी स्थिति में वापस नहीं की जानी चाहिए। और ना ही उसके बदले में किसी प्रकार का विनिमय होना चाहिए। अगर ऐसा होता है तो देने की ऐसी क्रिया को उचित नहीं माना जा सकता है। 

यह एक महत्वपूर्ण कर्म है। देनेवाला समाज, सृष्टि और परमेंश्वर के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करता है। सभी धर्मों में इस क्रिया को परम कर्त्तव्य माना गया है। 

ऋग्वेद में उल्लेखित है कि ‘दान कभी दुख नहीं पाता, उसे कभी पाप नहीं घेरता।”

यज्ञदानतप: कर्म न त्याज्य कार्यमेव तत्। यज्ञोदानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम।।

यज्ञ, दान और तप ये तीन प्रकार के कर्म हैं, जो त्यागने योग्य नहीं हैं। इन्हें तो करना ही चाहिए, क्योंकि ये तीनों ही बुद्धि को पवित्र करने वाले हैं।

गीता में कहा गया है कि देना उचित है ऐसा मानकर बदले में कुछ मिलने की आशा के विना देश, काल और पात्र को देखकर जो देता है, उसे सात्विक दान कहा जाता है। देना कर्तव्य है ऐसी मंशा से जो दिया जाता है, इससे यश, कीर्ति एवम् सुख प्राप्त होता है। जो प्रतिफल की अपेक्षा से दिया जाता है, राजस दान कहलाता है। 

तुलसी पंक्षी के पीये घटे न सरिता नीर।दान दिए धन ना घटे जो सहाय रघुवीर।।

देने की क्रिया और विधि के विषय में गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है; “कि जिस प्रकार नदियों का जल पंक्षी के पीने से नहीं घटता है, उसी प्रकार उपकार के लिए किसी को कुछ देने से धन नहीं घटता है, यह ईश्वर को प्रिय होता है।”

तुलसी दान जो देत है, जल में हाथ उठाई। प्रतिग्राही जीवे नहीं दाता नरके जाई।।

गोस्वामी कहते हैं कि “जो लोग जल में हाथ उठाकर मछलियों को फंसाने की मानसिकता से चारा डालते हैं, उसे ग्रहण करने वाली मछली का जीवन तो समाप्त हो ही जाता है, साथ ही साथ वह दाता भी नरक में जाता है।”

महाकवि कालिदास के अनुसार; “जैसे बादल पृथ्वी से जल लेकर पुनः पृथ्वी पर बरसा देते हैं, वैसे ही सज्जन पुरुष भी जिस वस्तु को ग्रहण करते हैं, उसका परित्याग भी करते हैं।”

वेदव्यास के अनुसार “सबसे बड़ा जो देने की क्रिया है, अभय दान है! जो सत्य, अहिंसा का पालन करने से दिया जा सकता है।”

बाइबिल में उल्लेखित है कि “तीन सद्गुण हैं,! आशा, विश्वास और charity इनमें से charity सबसे ऊपर है।”

कुरान में उल्लेखित है कि “इबादत खुदा की तरफ आधे रास्ते की ओर ले जाती है, रोजा (उपवास) उनके महल के दरवाजे तक और खैरात भीतर तक पहुंचा देता है।”

रविन्द्र नाथ टैगोर ने दान को ब्रम्ह स्वरुप की संज्ञा दी है। उनके शब्दों में ” जिस देने की क्रिया में कोई लेने का संबंध नहीं, वही है अंतिम गति, वही है ब्रम्ह स्वरुप।”

जो जल बाहै नाव में घर में बाहै दाम। दोऊ हाथ उलिचियै यही सयानों काम।।

संत कबीरदास कहते हैं कि नाव के भीतर जब जल बढ़ जाय, तो उसे दोनों हाथों से बाहर कर देना चाहिए। ठीक उसी प्रकार घर में यदि अत्यधिक धन-संपत्ति एकत्र होने लगे, तो उसे दोनों हाथों से दान करना चाहिए। इसी में बुद्धिमानी है! अगर ऐसा नहीं किया जाय, तो नाव और घर दोनों का विनाश हो जाता है।”

महात्मा बुद्ध के अनुसार “अल्प में से भी जो दान दिया जाता है, वह सहस्त्रों, लाखों की बराबरी करता है।”

ज्ञानियों का कहना है कि भुखा रहकर भी जो दुसरों को खिलाते हैं। और प्यासा रहकर भी जो दुसरों की प्यास बुताते हैं, उससे बड़ा दानी कोई नहीं है। परन्तु सामान्यतः यही देखा जाता है कि याचक और प्रश्नकर्ता तो घर घर में सुलभ हैं। परन्तु दाता और समाधान करनेवाला अति दुर्लभ हैं। दो प्रकार के लोग मिलना मुश्किल है, एक जो दुसरों की याचना पूर्ण करता है और दुसरा जो किसी से कुछ मांगता नहीं! 

यह तो स्पष्ट है कि दान देने की क्रिया है। अब प्रश्न है कि वह कौन सी चीज है जिसे देना दान कहलाता है ? इसका उत्तर है, हर वस्तु का मूल्य है, हर सेवा का मूल्य है, जिसका भी मूल्य है! वह अर्थ है। अतः वस्तु, श्रम, सेवा, समय, ज्ञान कुछ भी अगर परहित में दिया जा रहा है, तो वह दान है। श्रृगवेद के अनुसार: जो लोग दान-दक्षिणा देते हैं, वे स्वर्ग लोक में उच्च स्थान प्राप्त करते हैं।

अब प्रश्न है कि कब और किन परिस्थितियों किसी को कुछ देना चाहिए। अगर वगैर विचार किए अपात्र को दान करते हैं, तो उसका दुरुपयोग भी हो सकता है। किसी को कुछ देते समय उचित-अनुचित का विचार अवश्य करना चाहिए। देने के लिए वर्तमान समय ही उचित होता है। देने का पश्चाताप होना, अपात्र को देना और श्रद्धा से रहित दान नष्ट हो जाता है। 

देने की क्रिया के संबंध में ओशो का दृष्टिकोण विचार करने योग्य है। ओशो के शब्दों में ” दान मैत्री और प्रेम से निकलता है तो आपको पता ही नहीं चलता कि आपने दान दिया। यह आपको स्मरण नहीं आती कि आपने दान दिया, बल्कि जिस व्यक्ति ने लिया, आप उसके प्रति अनुग्रहित होते हैं, कि उसने स्वीकार कर लिया।

  • लेकिन अब मैं दान का विरोध करता हूं। जब वह दान दिया जाता है तो वह अनुग्रहित होता है जिसने लिया, और देनेवाला ऊपर होता है। और देने का पुरा बोध होता है कि मैंने दिया, और देने का पुरा रस है, पुरा आनंद है। 
  • लेकिन प्रेम से जो दान प्रगट होता है, वह इतना सहज है कि पता नहीं चलता कि दान मैंने किया, और और जिसने लिया है वो नीचा नहीं होता, वह ऊंचा हो जाता है। बल्कि अनुग्रहित देनेवाला होता है, लेनेवाला नहीं। 

इन दोनों में बुनियादी फर्क है! हम दोनोें के लिए दान शब्द का प्रयोग कर सकते हैं, लेकिन इसका उपयोग होता रहा है,श उसी प्रकार के दान के लिए, जिसका मैंने विरोध किया।

प्रेम से जो दान प्रगट होगा, वह तो दान है ही! प्रेम के पीछे कभी भी यह भाव नहीं छूट जायेगा, कि मैंने कुछ किया। और जिस दान में वह भाव रहता है कि मैंने कुछ किया, उसको मैं पाप कहता हूं। वह अहंकार का ही पोषण है।”

दान के विषय में एक प्रचलित कहावत है कि “दायें हाथ से जो कुछ भी दिया जाय, वह बायें हाथ को ज्ञात नहीं होना चाहिए।” वास्तविक स्वरुप में इस प्रकार जो देने की क्रिया है, वही दान है। और यह प्रेम में संभव है, अहंकार में नहीं।

हट्टन के अनुसार ”  दानकर्ता अगर अपनी प्रशंसा के लिए उतावला हो जाय, तो वह दानकर्ता नहीं रह जाता! अहंकार और आडंबर मात्र रह जाता है।”

डॉ. सम्पूर्णानंद के अनुसार “दान का भाव उत्तम भाव है, परन्तु इसका भाव यह नहीं है कि समाज में दान-पात्रों का एक बड़ा वर्ग खड़ा कर दिया जाय।”

बहरहाल उचित कार्यों के लिए, उचित समय एवम् उचित पात्र को सहायता अवश्य करना चाहिए। सभी को अपने सामर्थ्य के अनुसार सहयोग अवश्य करना चाहिए। इससे स्वयं के मन में संतोष का भाव आता है और दुसरों का भला भी हो जाता है। यह हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि देने से धन घटता नहीं, बढ़ता है! और यह भी ध्यान रखना चाहिए कि परिश्रम से प्राप्त धन ही दान योग्य होता है, और ऐसी ही क्रिया परोपकार कहलाता है। 

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