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जाकी रही भावना जैसी — Jaki Rahi Bhavna Jaisi

भावना क्या है ? यह मनोभाव है, मन में उत्पन्न होने वाले विचार। यह सकारात्मक भी होता है और नकारात्मक भी होता है। किसी विषय पर अस्पष्ट भी हो सकता है और स्थिर भी हो सकता है। जो जैसा सोचता है, जैसी भावना करता है, जैसा होना चाहता है, वैसा ही हो जाता है। भावना चश्में की तरह होती है। आंखों में जिस रंग के चश्में लगे हों, सबकुछ उसी रंग का दिखने लगता है। आंखों को वही दिखता है जो मन देखना चाहता है। आंखो में भावना का चश्मा चढ़ा रहता है।

एक कहानी है जो मैंने पढ़ी है। किसी समय की बात है, एक महिला नित्य प्रतिदिन मंदिर जाया करती थी। परन्तु मंदिर परिसर में चल रही अन्य गतिविधियों को देखकर उसके मन में संशय की स्थिति आ गई। वह अक्सर यह देखती कि कुछ लोग मंदिर परिसर में अंदर दिखावा और पाखंड में लगे रहते थे। 

एक दिन उसने पुजारी से कहा; अब मैं मंदिर नहीं आऊंगी। पुजारी ने पूछा क्यों? उसने कहा कि हमें ऐसा लगने लगा है कि यहां पूजा कम पाखंड अधिक हो रहा है। पुजारी ने कहा; ठीक है! परन्तु अंतिम निर्णय से पूर्व क्या आप मेंरे कहने पर कुछ कर सकती हैं? महिला ने कहा; क्या करना है बोलिए! 

पुजारी ने उसे छोटा सा एक जलपात्र दिया और कहा; इस पात्र में पानी में जल भरकर और इसे हाथ में लेकर मंदिर का परिक्रमा किजिए। ध्यान रखना है कि परिक्रमा करते वक्त पात्र से जल छलककर गिरना नहीं चाहिए। 

महिला ऐसा करने को सज्ज हो गयी और कुछ देर उपरान्त उसने ऐसा कर दिखाया। यह देख पुजारी ने पूछा; क्या आपको किसी का पाखंड या दिखावा नजर आया? महिला ने कहा; नहीं कुछ नहीं देखा! मेंरा ध्यान तो जलपात्र में था और मैं पुरे लगन से परिक्रमा कर रही थी। तब पुजारी ने उस महिला को समझाते हुए कहा; अब आप मंदिर नहीं आने के विचार का त्याग कर दिजिए। आप जब भी मंदिर आयें तो मन में केवल भक्तिभाव धारण कर रखें। और अपना ध्यान केवल भगवान पर केन्द्रित करके रखें, फिर आपको कुछ और नहीं दिखेगा! सर्वत्र भगवान ही दिखाई पड़ेंगे!

वास्तव में दृष्टिकोण ही महत्त्वपूर्ण है। यह दृष्टि और सृष्टि का नियम है। जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि! जैसा नजरिया वैसा संसार! व्यक्ति की जैसी दृष्टि होगी, वैसी ही उसकी सोच बनेगी। और जैसी उसकी सोच होगी, उसे वैसा ही नजर भी आयेगा। पानी से आधा भरा गिलास, किसी को आधा खाली तो किसी को आधा भरा हुवा नजर आता है। उत्तमता के मार्ग में जो सबसे बड़ी बाधा है, वह है हीन भावना। सोच की दिशा अगर नकारात्मक हो तो हम उत्तम स्थिति को पाने में सफल नहीं हो सकते।

हम मंदिर में जाते हैं, वहां जो मुर्तियां लगी होती हैं, पत्थर की होती हैं। यह हमारी भावना ही है जो कहती है कि ये मुर्तियां प्रभु की हैं। हम में से कुछ की भावना इन्हें पत्थर ही समझती हैं। यह देखने की दृष्टि है। जिनको जैसा बताया गया है, वो वैसा ही सोचते हैं। और उन्हीं विचारों को लेकर चलते हैं। सबों ने अपनी भावनाओं के आधार पर जो जाना है, उसे ही मान लिया है। विचारों के कारण ही हमें कुछ ना कुछ दिखाई पड़ता है। यह विचारों का ही परिणाम है कि हम पत्थर में भगवान को देखते हैं। 

भावनाएं जो हमने उन पत्थर की मुर्तियों में आरोपित कर रखी हैं, वही प्रगट होती हैं। और उसी के अनुरूप परिणाम भी सामने आता है। वास्तव में यह विश्वास का खेल है, और विश्वास भी मन का ही एक भाव है, विचार है। 

जाकी रही भावना जैसी प्रभु मुरत देखी तिन तैसी।।

‘रामचरितमानस’ की इस पंक्ति का शब्दार्थ है कि जो जिस भावना अथवा मनःस्थिति से प्रभु का स्मरण करता है, देखता है, उसे वे उसी रुप में जान पड़ते हैं, दिखाई देते हैं।

यह जो बात है ; गोस्वामी तुलसीदास ने कही है। यह उनका अनुभव है, उनकी भावना है। उन्होंने अपने प्रभु को अपने भावजनित अनुभव से जाना। अपने प्रभु के जीवन चरित्र का उन्होंने जो वर्णन किया है, मानों सबकुछ उनके समक्ष घटित हुवा हो‌। उनके द्वारा रचित रामचरितमानस इस बात का प्रमाण है।

कहते हैं कि गोस्वामीजी की भक्ति भावना इतनी प्रबल थी कि उन्हें अपने इष्ट का दर्शन भी हुवा था। भावना अगर गहन हो तो उसके परिणाम भी सच्चे हो सकते हैं। ऐसा कहा जाता है कि तुलसीदास को अपने प्रभु का दर्शन चित्रकूट के रामघाट पर हुवा था। इस कथित घटना के विषय में एक चौपाई भी प्रचलित है। 

चित्रकूट के घाट में भई संतन की भीड़।

तुलसीदास चंदन घिसै तिलक देत रघुवीर।।

एक दिन जब वो दो बालकों को तिलक लगा रहे थे, जो स्वयं उन बालकों के रूप में राम और लक्ष्मण थे। एक तोते के इशारे पर उन्होंने राम और लक्ष्मण को पहचान लिया और कृतार्थ हुवे। ऐसी मान्यता है कि तोते के रूप में स्वयं हनुमानजी थे। जिस घाट पर तुलसीदास ने श्रीराम प्रभु के ललाट पर तिलक लगाया था। आज वहां पर उनकी एक विशाल प्रतिमा लगी है।

ज्ञानीजन कहते हैं ; हम जो देखते हैं, हमारे मन की कल्पना है। पर वास्तव में जो है वह दिखाई नहीं पड़ता। हम अपने मस्तिष्क में जैसी छवि अंकित कर लेते हैं, और लम्बे समय तक उस पर ध्यान लगाये रखते हैं तो हमें वैसा ही दिखने लगता है। 

ओशो के अनुसार “जब तक विचार हैं, कुछ न कुछ दिखाई पड़ता रहेगा। विचारों के कारण ही कुछ न कुछ दिखाई पड़ता है। जो है वह दिखाई नहीं पड़ता। सोच से रहित यानि विचारमुक्त हो जाओ। निर्विकार हो जाओ, निर्भाव हो जाओ! सभी भावनाओं को जाने दो, शुन्य हो जाओ! शुन्य ही ध्यान है। और तब जो है, वह दिखाई पड़ेगा। 

सहज का अर्थ होता है जो है ही, उसको जानना है। उसे भावित नहीं करना है, कल्पित नहीं करना है। उसके लिए यत्न नहीं करना है। है ही परमात्मा! तुम्हारे भीतर विराजमान है। तुमसे कहा गया है विश्वास करो! मैं कहता हूं विश्वास छोड़ो। क्योंकि विश्वास एक विचार है। और विचार अगर सतत करोगे तो वैसा ही दिखाई पड़ने लगेगा। मगर वैसा होता नहीं सिर्फ दिखाई पड़ता है। तुम्हारी भ्रान्ति है, तुम्हारी कल्पना है।”

किसी भी विषय-वस्तु के प्रति जैसी भावना अपने मन में धारण की जाती हैं, वैसा ही परिणाम आना शुरू हो जाता है। जब कोई पत्थर की मुर्तियों के सामने सर झुकाता है तो वह अपनी भावनाओं के आगे ही सर झुकाता है। पूजा-प्रार्थना के द्वारा वह अपनी मनोकामनाओं को खुद के समक्ष ही रखता है। और कमोवेश उसकी मनोकामनाएं पूरी भी होती हैं। क्योंकि वह अपने सोच के आधार पर ही क्रियाशील भी होता है। यह सब विश्वास का, आस्था का खेल है। परन्तु ज्ञानी कहते हैं, विश्वास को छोड़ दो! ऐसा क्यों?

दरअसल व्यक्ति का मन-मस्तिष्क जब तक सामान्य स्थिति में होता है। या यूं कहें अज्ञानता के अंधकार में होता है, तबतक ज्ञानियों की बातें वह समझ ही नहीं सकता। वास्तव में जो है उसे देखने के लिए जो नहीं है, और दिखता है, उसपर विश्वास करना भी जरूरी है। सामान्य व्यक्ति को सत्य तक पहुंचने के लिए विश्वास  एवम् आडंबर भी महत्वपूर्ण है। यह ज्ञात से अज्ञात को जानने की प्रक्रिया है।

वास्तव में जो है, उसे देखने के लिए निरंतर ध्यान का अभ्यास जरूरी है। ध्यान क्रिया के द्वारा हम ज्ञात से अज्ञात तक की यात्रा कर सकते हैं। वह जो हमारे भीतर है, आत्मा! जो परमात्मा का अंश है। जिन्होंने भी आत्म स्वरुप को देख लिया वे परम ऊर्जा के समकक्ष हो गये। हममें से प्रत्येक के भीतर वह ऊर्जा विद्यमान है जो हमें तुलसीदास, बुद्ध और महावीर जैसा बना सकता है। ध्यान क्रिया से जब मन भीतर गहराइयों में उतरता है तो विचारों के परत टुटने लगते हैं। जब भीतर खाली हो जाता है, विचार शुन्य हो जाता है तो वह दिखने लगता है, जो वास्तव में है। और इसे देखना, इसे जानना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है।

इस जगत में जो भी हो रहा है, हमारे जीवन में जो भी घटित हो रहा है, उसके विषय में हम कैसी भावना रखते हैं, यह महत्त्वपूर्ण है। या तो सबकुछ चमत्कार हैं या फिर कुछ भी नहीं । अगर आप इस भावना के साथ चलते हैं कि चमत्कार है तो यह भी मानना होगा कि चमत्कारिक शक्तियां जगत में विद्यमान हैं। फिर आपको साकार अथवा निराकार, जिस रूप में, जिस नाम से हो, उस शक्ति को मान्यता देनी ही पड़ेगी ‌। इसलिए साधारण मनुष्य के लिए उन शक्तियों विश्वास, आस्था , भक्ति से युक्त भावना महत्त्वपूर्ण हो जाता है। अगर आपके जीवन में ध्यान नहीं है, अगर यह आपको जटिल प्रक्रिया लगता है तो मन में भक्तिभाव को जागृत किजिए। फिर देखिए भक्ति की ऊर्जा का आप पर क्या प्रभाव पड़ता है। इसलिए तो कहा गया है भक्ति में ही शक्ति है।

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