Adhyatmpedia

नियंत्रण का अर्थ…

नियंत्रण क्या है? नियंत्रण का अर्थ है! वश में करना, रोकना – टोकना, यह सुधार की प्रक्रिया है। अगर हमारे साथ अथवा हमारे समक्ष कुछ ऐसा हो रहा हो, जो अनुचित हो। कोई कार्य या व्यवहार, जो नियम के विरुद्ध हो, अनैतिक हो। तो वैसे कार्य-वयवहार पर अंकुश लगाना और उसे सही दिशा देने का प्रयास को नियंत्रण समझा जाता है। नियंत्रण एक प्रक्रिया है, नियम के अनुसार चलने की प्रकिया। आइए विस्तार से जानने का प्रयत्न करते हैं कि नियंत्रण का अर्थ क्या है?

नियंत्रण का अर्थ क्या है जानिए!

नियंत्रण का अर्थ है! इस बात का ध्यान रखना कि जब हम किसी कार्य में लगे हों, तो वह कार्य सही तरीके से हो रहा है अथवा नहीं। अगर नहीं तो फिर उसमें सुधार करने का प्रयत्न करना, ताकि वह कार्य सही तरीके से संपन्न हो सके। नियंत्रण किसी कार्य के निष्पादन में एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। यह नियम के अनुसार चलने की क्रिया है। 

नियंत्रण एक विशेष प्रक्रिया है! नियंत्रण यह देखने की प्रकिया है कि हमसे जो कार्य हो रहे हैं, उनका निष्पादन नियमानुसार हो रहा अथवा नहीं। नियंत्रण यह जानने की भी क्रिया है कि अगर कार्य सुचारू ढंग से नहीं हो रहे हों, तो इसका कारण क्या है? विना कारण का पता किए हम सुधार की ओर नहीं जा सकते। कारण को जानकर, उसका निदान करना भी इस प्रक्रिया का अंग है। 

स्वामी विवेकानंद के अनुसार: “हम एक क्षण तो स्वयं अपने मन पर शासन नहीं कर सकते! अन्य विषयों से हटाकर किसी एक विंदु पर उसे केन्द्रित नहीं कर सकते! फिर भी हम अपने आपको स्वतंत्र कहते हैं, जरा इस बात पर गौर करो!” 

जीवन में नियंत्रण का महत्व!

जीवन के हर क्षेत्र में नियंत्रित होकर कार्य करना महत्वपूर्ण है। व्यक्तिगत हो, सामाजिक हो या व्यावसायिक! प्रत्येक कार्य को करने के कुछ नियम होते हैं। जीवन की प्रत्येक गतिविधियों के लिए नियम निर्धारित किए गए हैं। दैनंदिन का सामान्य व्यवहार कैसा हो! इसके लिए भी नियम निर्धारित किए गए हैं। जीवन में सबकुछ नियमानुसार होना चाहिए। हमारे समस्त कार्य-व्यवहार में अगर हमारा नियंत्रण हो तो इसका परिणाम हमेशा अच्छा मिलता है। 

नियंत्रण का उद्देश्य!

कर्म ही धर्म है! हमारा प्रत्येक कार्य धर्म के साथ हो, इसका ध्यान रखना अनिवार्य है। नैतिकता, धैर्य, संतोष ज्ञान, प्रेम सभी धर्म के त्तत्व हैं। धर्म वह गुण है जिसे धारण किया जाता है। जो अनुचित है वह अधर्म है। उचित क्या है? यह जानना, इस पर विचार करना और जो उचित है, वही करना धर्म है। जीवन में धर्म के पथ पर चलना ही नियंत्रण का उद्देश्य है। स्वयं पर नियंत्रण हमें धर्म के मार्ग पर अग्रसर करता है।

मन के अनियंत्रित होने का कारण और इसका निदान! 

मन को अपने अधीन करने के लिए यह जानना भी जरूरी है कि मन के अस्थिर होने का कारण क्या है? इस कारण को जानने के पश्चात ही हम इस ओर आगे बढ़ सकते हैं। तो वह कारण क्या है? जो मन को अनियंत्रित किए रहता है? यह एक ऐसा प्रश्न है, जिसका उत्तर हमें स्वयं के विषय में जानने और धर्म के मार्ग पर चलने में सहायक हो सकता है।

सामान्यतः हम दैनंदिन की गतिविधियों को स्वयं में आरोपित करके देखते हैं। हमारी समस्त शारीरिक और मानसिक क्रियाएं, जो हमारे द्वारा किए जाते हैं। हम यही समझकर चलते हैं कि यह सब हम कर रहे हैं। मैं खाता हूं, मैं देखता हूं, मैं सोचता हूं! यानी कि सबकुछ जो होता है, मैं करता हूं। यह जो भाव है ‘मैं’ का! यह अहम् भाव है, यही अहंकार है। 

ऊपरी तौर पर मन की जो प्रकृति है, वह अस्थिर है। और इसके अस्थिर होने का जो कारण है, वह है अहंकार। और जब तक हमारा तन-मन इस भाव से ग्रसित रहेगा, तब तक हम सांसारिक घटनाओं एवम् परिस्थितियों से प्रभावित होते रहेंगे। 

तो फिर इसका निदान क्या है? वह कौन सा भाव है, जिसके अनुभव होने पर मन स्थिर हो जाता है। प्राचीन समय में मन की प्रकृति पर भारत के ऋषि-मुनियों का ध्यान जब आकृष्ट हुवा तो उन्होंने इस पर प्रयोग किया। उन्होंने अपने ऊपर ही इस विषय में प्रयोग कर इस अवस्था का आभास करने में सफल हुवे।

मन पर नियंत्रण करने के लिए अपने आप से ही लड़ना पड़ता है। हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने अपने पुरुषार्थ के द्वारा यह जाना कि मनुष्यों में एक ऐसा त्तत्व विद्यमान है, जो मन का भी मन है। यही वह त्तत्व है, जो हमारा वास्तविक ‘मैं’ है। यह जो ‘मै’ है, हमारा ‘स्व’ है और इसे जानना ही स्वयं को जानना है। जब इस ‘मैं’ का अनुभव हो जाता है तो वह ‘मैं’ मिट जाता है, जिसके कारण मन अस्थिर होता है। शास्त्रों एवम् ऋषि-मुनियों के मतानुसार इसी दिव्य त्तत्व का आभास करना मानव जीवन का लक्ष्य है। 

विचारों पर नियंत्रण करना जरूरी है!

धर्म के पथ पर चलने के लिए जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, वह है मन पर नियंत्रण रखना। क्योंकि यह जो मन है, इसके स्वभाव में अस्थिरता है। मन पर नियंत्रण का आशय मन की निर्मलता से है। मन जितना नियंत्रित होता जाता है, वह उतना ही निर्मल होता जाता है। मन के निर्मल होने का आशय है, मन का अनावश्यक भाव-विचारों से रिक्त हो जाना। इस अवस्था की ओर अग्रसर मन को शांति एवम् स्थिरता का अनुभव होने लगता है। यह मन के अहंकार से मुक्त होने की अवस्था है। मन की रिक्तता का यही निहितार्थ है। नियंत्रण का अर्थ, महत्व और उद्देश्य की सार्थकता इसी में है। 

स्वामी रामतीरथ जी के अनुसार “मनुष्य में जैसे विचार होते हैं, वैसा ही उनका जीवन बनता है और वैसा ही खुद बनता चला जाता है।” इस कथन का आशय यह है कि जिसके मन में अगर उत्तम विचारों का प्रवाह होता है, वह उन्नतिशील होता है। और मलीन विचार के वाहक पतनशील होते हैं। विचार ही किसी के उन्नति एवम् अवनति के कारण होते हैं।

स्वामी विवेकानन्द के कथनानुसार “स्वर्ग और नरक कहीं नहीं होते हैं, इनका निवास हमारे विचारों में ही है।”

श्रीमद्भागवत गीता में उल्लेखित है कि “अनियंत्रित मन एक शत्रु के समान और नियंत्रित मन एक मित्र के समान आचरण करता है।” अतः हमें हमारे मन की प्रकृति के विषय में जानना और मन में एक स्पष्ट विचार को धारण करना जरूरी है।

विना विचारे जो करे सो पाछे पछिताय।

काम विगारै आपनो जग में होत हंसाय।।

उपरोक्त पंक्तियां गिरधर कवि द्वारा रचित है। दोहे का तात्पर्य यह है कि जो व्यक्ति विना सोचे समझे किसी कार्य को करता है, उसे बाद में पछताना पड़ता है। वह खुद का नुक़सान तो करता ही है, अपनी नासमझी के कारण वह दुसरों की नजर में उपहास का पात्र बन जाता है। विना विचारे अर्थात् मन में जो विचार उभरते हैं, उचित हैं अथवा अनुचित! इस पर विचार अवश्य ही करना चाहिए। 

विचारों में इतनी शक्ति होती है कि एक उत्तम विचार हमारे जीवन को उन्नति की ओर अग्रसर कर सकता है। और एक भ्रष्ट विचार हमारे जीवन को नष्ट कर सकता है। सारा खेल विचारों का है! इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि हम क्या सोचते हैं। उचित अथवा अनुचित! चिंतन जरूरी है। चिंतन करने से ही विचारों पर नियंत्रण किया जा सकता है। विचारों पर नियंत्रण जरूरी है! मन पर नियंत्रण जरूरी है!!

नियंत्रण का निहितार्थ क्या है?

मनोवैज्ञानिकों का मत है कि मन में पहले विचार आता है, फिर उस पर चिंतन होता है। तत्पश्चात ही उसके क्रियान्वयन की प्रक्रिया की शुरुआत होती है। किसी विचार पर चिंतन करना अर्थात उसके औचित्य पर विचार करना है। चिंतन के पश्चात उत्तम विचारों का क्रियान्वयन हमेशा उचित होता है। 

हमारी प्रत्येक क्रिया तथा विचार का हमारे मन गहरा प्रभाव पड़ता है। हमारे संस्कारों के आधार पर ही हमारा व्यवहार परिलक्षित होता है। और हम जैसा व्यवहार कंरते हैं, हमें उसी के अनुरूप पहचाना जाता है। हमारा जो चरित्र है! हमारे सभी संस्कारों का योग है। और हमारा चरित्र ही हमारे व्यक्तित्व का विकास करने में सहायक होता है। 

हमारे विचार, हमारी भावनाएं जितनी नियंत्रित होंगी, हमारा चरित्र उतना ही उत्तम और दृढ़ होगा। जब तक हम अनियंत्रित मन के मतानुसार व्यवहार करते रहेंगे, तब तक हमारे व्यक्तित्व का विकास होना असंभव है। इस प्रकार हम देखते हैं कि नियंत्रण एक ऐसी प्रक्रिया है, जो हमारे चरित्र के निर्माण एवम् व्यक्तित्व के विकास में सहायक है। हमारा मन जितना नियंत्रित होता जाता है, हमारा चरित्र उतना ही दृढ़ होता चला जाता है। और हमारा व्यक्तित्व विकसित होता चला जाता है।

नियंत्रण का अर्थ क्या है? अगर गहनता से विचार करें तो नियंत्रण कोई सामान्य प्रक्रिया नहीं है। नियंत्रण एक विशेष प्रक्रिया है। यह एक कठिन प्रक्रिया है, यह साधना के सदृश है!! 

संत कबीर ने कहा है कि ‘मन के मते न चलिए’ , अर्थात् मन के अनुसार मत चलो। वास्तव में मन को नियंत्रित किए विना कोई किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं हो सकता।

नियंत्रण का जो निहितार्थ है, स्वयंं के मन को वश में करने की प्रक्रिया से है। मन पर शासन करने की क्रिया से है। मन को अपने अधीन कर स्वयं को स्वतंत्र करने की प्रक्रिया से है। क्योंकि सामान्यतः यह जो मन है, यह हमें अपने अधीन बनाए रखता है। हम वही कर रहे होते हैं, जो हमारा मन कहता है। परन्तु ज्ञानी मनोगामी न होने की बात करते हैं। ज्ञानीजनों का कहना है कि मन पर नियंत्रण जरूरी है! नियंत्रण का अर्थ है! उस त्तत्व का अनुभव करना, जो मन का भी मन है! 

विवेकानंद के शब्दों में ; “प्रत्येक विद्या की अपनी एक निर्दिष्ट प्रणाली है। मैं तुम्हें सैंकड़ों उपदेश दे सकता हूं, परन्तु तुम यदि साधना न करो, तो तुम कभी धार्मिक न हो सकोगे। अतः निर्दिष्ट साधन प्रणाली लेकर श्रद्धापूर्वक साधना करना हमारे लिए आवश्यक है।” 

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *