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विचार का अर्थ: meaning of thought.

विचार का अर्थ है, वह जो कुछ मन के द्वारा सोचा जाता है, वह जो मन में उत्पन्न होता है। यह एक भाव है, इसका आशय मन में उत्पन्न होनेवाली किसी भावना से है। विचार एक प्रक्रिया हैँ, यह किसी विषय-वस्तु के संबंध में केवल सोचना ही नहीं, सोचकर निर्णय लेने की भी क्रिया है। 

विचार का अर्थ क्या है जानिए !

विचार क्या है? यह बात तो स्पष्ट है कि इसका संबंध मन से है। पर यह मन में उत्पन्न होता है अथवा मन द्वारा इसे ग्रहण किया जाता है, यह विचारणीय है। विचार शब्द के अन्तर्गत कई अलग अलग मनोवैज्ञानिक गतिविधियां संलग्न हैं। मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण में विचार या सोच भीतर से उत्पन्न गतिविधियों और बाहरी उत्तेजनाओं के बीच मध्यस्थता माना गया है। 

डेमार्टॉ ने मन और तन को एक दुसरे से भिन्न माना है। उनके अनुसार  इन दोनों का पारस्परिक प्रभाव मस्तिष्क के एक खास विन्दु पर पड़ता है, जिसे पिनियल ग्रन्थि कहते हैं।

ब्रिटिश दार्शनिक लॉक के अनुसार मन बाह्य वस्तुओं से विचार ग्रहण करता है। जन्म के समय बच्चे का मस्तिष्क एक कोरा कागज के समान होता है सभी प्रकार के विचार साहचर्य द्वारा प्राप्त होते हैं।

विचारों पर व्याख्या करते हुए प्लेटो ने कहा है कि विचार अभौतिक होते हैं, भौतिक शरीर से अलग उनका अलग अस्तित्व है। अर्थात् उनके अनुसार शरीर और मन का समानान्तर अस्तित्व है, ये दोनों एक दूसरे से अलग हैं। 

वहीं अरस्तु ने कहा है कि विचारों का शरीर से अलग कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है। विचार क उत्पन्न होना प्राणी पर वातावरण के प्रभाव के कारण है। वातावरण में उपस्थित उत्तेजनाओं का इन्द्रियों पर प्रभाव पड़ता है। और यह प्रभाव मनुष्य के हृदय तक पहुंच कर विचारों को उत्पन्न करता है।

जबकि दार्शनिक ओशो के दृष्टिकोण में मन का कोई अस्तित्व नहीं होता – केवल विचार होते हैं। अपने एक व्याख्यान में उन्होंने इसे इस तरह समझाया है।

ओशो के शब्दों में – “तुम ऐसे हो जैसे कि आसमान – यह आता नहीं और कभी जाता नहीं, यह हमेशा यहां हैं, बादल आते हैं और जाते हैं। विचार तुम्हारे नहीं हैं, वे तुम्हारे नहीं होते हैं। वे आगन्तुक की तरह आते हैं, लेकिन मेजबान नहीं हैं। गहरे से देखो, तब तुम मेजबान बन जानोगे और विचार मेंहमान बन जावेंगे। तुमने विचारों को अपने भीतर इतना गहरा ले लिया है कि तुम भूल गये कि आगंतुक हैं, वे आते और जाते हैं। आगंतुक पर ध्यान मत दो, मेजवान के साथ बने रहो, आगंतुक आएंगे और जाएंगे।”

विचार आगन्तुक हैं! विचार आते हैं और जाते हैं, वे आते जाते रहते हैं। अब ये उत्पन्न होते हैं अथवा हम इन्हें ग्रहण करते हैं, यह विचार करने योग्य है। अरस्तु के अनुसार – वातावरण में उपस्थित उत्तेजनाओं का इन्द्रियों पर प्रभाव पड़ता है। और यह प्रभाव मनुष्य के भीतर विचारों को उत्पन्न करता है। और फिर उन विचारों का प्रभाव हमारे जीवन पर पड़ने लगता है। वहीं लॉक के अनुसार – सभी प्रकार के ज्ञान और विचार साहचर्य द्वारा प्राप्त होते हैं। हम परिवार से, समाज से देख सुनकर, पढ़कर जो सीखते हैं, उन सबसे भी हमारे भीतर विचारों का निर्माण होता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि विचारों को हम ग्रहण भी करते हैं। यहां एक बात जो स्पष्ट है, वह है कि विचारों के आने का कारण बाहरी होता है। इसलिए तो ओशो कहते हैं कि विचार तुम्हारे नहीं हैं।

विचार आगन्तुक हैं! मनुष्य का जो मूल स्वभाव है, वह विचारों से परे है। अगर कोई अपने मूल स्वभाव को जान ले तो वह विचारों से मुक्त हो जाता है। या यूं कहें कि जबतक कोई विचारों के प्रभाव से मुक्त नहीं हो जाता, अपने मूल स्वभाव को नहीं जान सकता है। और यह जो तथ्य है, इसे समझना इतना सरल भी नहीं है। इस सत्य को जानना अत्यंत कठिन है।

विचार आगन्तुक हैं! आते और जाते हैं, आते और जाते रहते हैं। एक बात जो महत्वपूर्ण है, वह है कि जबतक कोई विचार कार्य-व्यवहार में नहीं आता वह परिलक्षित नहीं होता है। 

स्वामी विवेकानंद के शब्दों में “पानी का एक बुलबुला झील के तल से निकलता है, वह ऊपर आता है, परन्तु जब तक कि वह सतह पर आकर फूट नहीं जाता, तबतक हम उसे देख नहीं सकते। इसी तरह विचार अधिक विकसित होने पर या कार्य में परिणत हो जाने पर ही देखे जा सकते हैं।”

चरित्र का निर्माण विचारों से ही होता है!

विचारों का आना जाना तो लगा ही रहता है। कुछ विचार ऐसे होते हैं जो प्रगट हो जाते हैं, अर्थात् कार्यों में परिणत हो जाते हैं। कुछ ऐसे होते हैं, जो आते हैं और चले जाते हैं। परन्तु इन सबका प्रभाव मन पर पड़ता है। और इन्हीं आगंतुक विचारों से हमारे चरित्र का निर्माण होता है। 

स्वामी विवेकानंद के शब्दों में – “हमारा प्रत्येक विचार हमारे चित्त पर एक प्रकार का संस्कार छोड़ जाता है; और यद्यपि ये संस्कार ऊपरी दृष्टि से स्पष्ट न हो, तथापि ये अवचेतन रुप से अन्दर ही अन्दर कार्य करने में पर्याप्त समर्थ होते हैं। हम प्रति मुहूर्त जो कुछ होते हैं, वह इन संस्कारों के समुदाय द्वारा ही निर्मित होता है। यथार्थत: इसे ही चरित्र कहते हैं और प्रत्येक मनुष्य का चरित्र इन संस्कारों के समष्टि द्वारा ही निर्मित होता है।”

हमारे मन में जिस प्रकार के विचार चल रहे होते हैं, हमारा चरित्र वैसा ही गठित हो जाता है। मन में अच्छे विचारों का प्रवाह प्रगति की ओर ले जाता है। और मलीन विचारों का वाहक पतन की ओर अग्रसर हो जाते हैं। विचार ही किसी को चरित्रवान अथवा चरित्रहीन बनाता है। 

विचार को नियंत्रित कैसे करें?

मन में जिन विचारों की प्रबलता होती है, मनुष्य के कर्म भी वैसा ही होने लगता है। जब अच्छे विचारों का प्रवाह होता है तो, कार्य भी अच्छे होते हैं। मलिन विचारों की प्रबलता से मनुष्य बुरा हो जाता है। कुविचार को नियंत्रित करने का जो उपाय है, वह है प्रतिकार। उन कुविचारों का, जिनके कारण स्वभाव बिगड़ गया हो। जिनके कारण मनुष्य अपने मूल स्वभाव से भटक गया हो। जिन कुविचारों के साथ चलने का व्यक्ति को अभ्यास हो गया हो, इस अभ्यास के विपरीत का अभ्यास ही उत्तम प्रतिकार हो सकता है।

स्वामी विवेकानंद के शब्दों में – “क्रियाशीलता का अर्थ है – प्रतिरोध। मान्सिक तथा शारीरिक समस्त दोषों का प्रतिरोध करो, तब तुम इस प्रतिरोध में सफल होगे।”

विचार पर नियंत्रण के लिए भी विचार की आवश्यकता होती है। यह विचार करना कि वह कौन सी आदतें हैं जिसके कारण जीवन में भटकाव की स्थिति बनी हुई है। कोई व्यक्ति जिन आदतों का अभ्यस्त हो चूका है, जो उसके भटकाव का कारण है। विना विचार किए, विना चिंतन किए वह प्रतिकार नहीं कर सकता। हमारे भीतर जो प्रवाह चलता है विचारों का, उनकी सार्थकता और निरर्थकता का ज्ञान हमें चिंतन से ही मिलेगा। तब जाकर हम निरर्थक, निरुद्देश्य विचारों एवम् कार्यों का प्रतिकार कर सकते हैं। 

योगशास्त्र में उल्लेखित विधियों का अभ्यास कर विचारों को नियंत्रित किया जा सकता है। इन नियमों का ठीक ठाक एवम् निरंतर अभ्यास से भावनाओं पर नियंत्रण पाया जा सकता है। भावनाएं जब नियंत्रित होने लगती  हैं तो मन शांत होने लगता है। मन जब पूर्ण रूप से शांत हो जाता है तो वह विचार शुन्य हो जाता है।

ओशो के शब्दों में – “सत्य की खोज में एक ही संघर्ष है, और वह संघर्ष है विचारों से मुक्ति। कैसे तुम विचारों से बाहर जावो – सारी विधियां, सारी साधनाएं, उस छोटे से कदम के लिए हैं – विचारों की प्रक्रिया कैसे बंद हो जाएं। क्योंकि जैसे ही विचार रुकता है, वैसे ही आंख खुलती है। जब तक विचार है, तब तक आंख धुंध से भरी है।”

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