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अति भला न बोलना..!

अति का आशय है जरूरत से ज्यादा, आवश्यकता से अधिक। जितना जरुरी है, उससे अधिक अधिक घटित होना अति है। जरुरत से ज्यादा कभी भी, कुछ भी अच्छा नहीं होता। यह बात हरेक कार्य-व्यवहार, घटनाक्रम पर लागु होता है। अति का परिणाम हमेशा दुखदाई होता है। 

यह शब्द हमें संयमित जीवन जीने को सचेत करता है। संयमित अर्थात् नियमों के अनुसार चलना। जीवन के प्रत्येक गतिविधियों के लिए कुछ नियम होते हैं। अति नियमों का उलंघन है, जो अनुचित होता है। इस अति के प्रति हमेशा जागरूक रहने की जरूरत है। जीवन के प्रत्येक कार्य-व्यवहार में अति से बचना जरूरी है। 

अति भला न बोलना, अति भली न चूप।
अति भला न बरसना, अति भली न धूप।।

कबीर ने कहा है कि जरुरत से ज्यादा बोलना अच्छा नहीं होता है। और जरुरत से ज्यादा चूप रहना भी अच्छा नहीं है। जैसे कि न तो अधिक वर्षा अच्छा होता है और न ही अधिक धूप अच्छी होती है। अधिक वर्षा होने और अधिक धूप की कड़वाहट दोनों ही कष्टकारी होते हैं। 

कबीर के उक्त दोहे में संयमित जीवन जीने की सीख दी गई है। जहां जरुरी हो, वहां बोलना भी जरूरी है। और जहां बोलना जरूरी है, वहां मौन रहना भी अनुचित है। लेकिन बोलने से पहले सोच-विचार करना भी जरूरी है। यह बात जीवन के अन्य सभी गतिविधियों में लागु होता है। जैसे कि शरीर के सही पोषण के लिए

भोजन भी जरूरी है। लेकिन क्या खाना है और कितना खाना है, इसका ख्याल रखना जरूरी भी है। अधिक मात्रा में भोजन करने अथवा भोजन नहीं करने का शरीर पर गलत प्रभाव पड़ता है। नींद भी जरूरी है, लेकिन अधिक सोना या अधिक देर तक जागना नुकसानदेह होता है। तात्पर्य यही है कि जरुरत से ज्यादा कुछ भी अच्छा नहीं होता है।

बोली एक अनमोल है जो कोई बोले जानि।
हिये तराजू तोल के तब मुख बाहर आनि।।

कबीर कहते हैं कि बोली एक अनमोल तत्व है। लेकिन उसके लिए अनमोल है, जो सही तरीके से बोलना जानता है। बोली के महत्व को जाननेवाला अपने हृदय के तराजू में तौलकर ही उसे बाहर आने देता है। 

तराजू का काम है, चीजों को तोलना। चीजों की गुणवता और मात्रा के हिसाब से ही उनकी कीमत लगायी जाती है। यहां जिक्र हृदय की तराजू का किया गया है। अर्थात् यह इशारा किया गया है कि कुछ भी करने से पहले विचार करो। और विचार मन से नहीं, हृदय से होना चाहिए। क्या करना चाहिए और कितना करना चाहिए, इस पर हृदय से विचार करना महत्वपूर्ण है। यहां कार्यों की गुणवता और मात्रा का मापदंड भीतर मन की गहराइयों में उतरकर करने की बात कही गयी है।

रात गंवाई सोयकर दिवस गंवायो खाय।
हीरा जनम अमोल था कौड़ी बदले जाय।।

कबीर कहते हैं कि रात सोकर व्यतीत कर दिया और दिन खाने के चक्कर में व्यतीत हो गया। हीरे के समान अमोल जीवन को कौड़ी के भाव में बदल दिया। 

अति हो गई! खाने और सोने में ही जीवन व्यतीत हो गया। जो करना चाहिए था, वह किया नहीं। सारा जीवन भोग में लिप्त होकर रहता है मनुष्य! और जीवन को व्यर्थ कर देता है। अति का परिणाम तो अनिष्टकारक ही होता है। यह जो जीवन है हीरे के समान कीमती है, परन्तु कौड़ी के समान हो जाता है। कौड़ी जिसका कोई मोल नहीं होता! कोई कीमत नहीं होता। अनर्गल गतिविधियों में लिप्त होकर मनुष्य जीवन को नष्ट कर देता है। कामनाओं, वासनाओं के अति में पड़कर जीवन को व्यर्थ कर देता है। 

कबीर सो धन सचै, जो आगे का होय।
शीश चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्यो कोय।।

कबीर कहते हैं कि उस धन को इकट्ठा करो जो आगे काम में आवे। सर पर धन की टोकरी बांधकर ले जाते तो किसी को न देखा।

मनुष्य सारा जीवन अति चक्कर में पड़ा रहता है। जीवन यापन के लिए अर्थोपार्जन जरुरी है। लेकिन जरुरत से ज्यादा इसी में उलझकर रह जाना अति ही तो है। मनुष्य सारा जीवन धन-सम्पदा को प्राप्त करने और इकट्ठा करने में ही व्यतीत कर देता है। जबकि जीवन का उद्देश्य कुछ और है! कबीर उसी उद्देश्य की ओर इशारा करते हैं। 

कबीर के इस कथन में गहन भाव छुपा हुवा है। कबीर आगे के जीवन की बात करते हैं। कबीर कहते हैं कि उस धन को इकट्ठा करो जो तुम्हारे जीवन के उद्देश्य को प्राप्त कर सके। उस धन को इकट्ठा करो जो आगे भी तुम्हारे साथ रहे। कुछ ऐसा करो जिससे की जगत में तुम्हारा यश हो। कुछ ऐसा करो कि दुसरों का उपकार हो और खुद का उद्धार हो। कुछ ऐसा करो जिससे कि यह जीवन व्यर्थ न हो।

अति का जो वास्तविक है, वह है जीवन में असंयम का अधिकता। और जीवन को संयमित करने के लिए जीवनशैली में  पूजा-आराधना, योग, ध्यान आदि का होना जरूरी है। लेकिन इन क्रियाओं को करने के लिए भी कुछ नियम होते हैं। जिस किसी गतिविधि में नियमों का उलंघन होता है, वहां परिणाम अपेक्षित नहीं मिल पाता है।

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न एकान्तमनश्नत:।
न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन।।६.१६।

श्रीमद्भागवत गीता में भी यह बात कही है- वैसा व्यक्ति जो अधिक खानेवाला है, उसके लिए संभव नहीं है। और  अत्यधिक उपवास रखनेवालों लिए भी संभव नहीं है। तथा अधिक सोनेवाला और अधिक जागनेवाला भी इसे सिद्ध नहीं कर सकता है। 

संस्कृत भाषा में एक सुत्र है, अति सर्वत्र वर्जयेत्! अर्थात् अति हरेक स्थान में, हर कार्य में, सभी तरह के गतिविधियों में वर्जित है। अति कभी भी लाभकारी नहीं होता, इसके कारण अक्सर हानि ही होती है। इस अति के प्रति सतर्क रहने की आवश्यकता है।

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