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अहंकार का अर्थ — Meaning of Ego

अहंकार मन का एक भाव है!  ऐसा भाव है, जिसे व्यक्ति स्वयं धारण करता है। अहंकार के कारण मन को यह आभास होता है कि सब-कुछ करनेवाला वही है। यह अहम् और कार दो शब्दों का मेंल है। अहम् अर्थात् मैं और कार से तात्पर्य है करने वाला। जब कोई व्यक्ति किसी विषय-वस्तु, कार्य  एवम् सफलता के साथ मैं को जोड़ लेता है! मैं करने वाला हूं! मैंने किया! मैं कर रहा हूं! अर्थात् कर्त्ताभाव का होना ही अहंकार है। यह मन की वह स्वार्थ से पूर्ण वृति है, जो व्यक्ति को महत्त्वपूर्ण होने का आभास दिलाता है। दंभ, घमंड, अभिमान आदि इसके समानार्थी शब्द हैं। 

एक अहंकारी व्यक्ति की दुनिया उसी से शुरू होती है, और उसी पर खत्म होती है। वह यही समझता है कि दूनिया उसी के इर्द गिर्द घुमती है। जब कोई व्यक्ति स्वयं को श्रेष्ठ समझने लगता है तो यही भाव उसका घमंड होता है। जब कोई व्यक्ति किसी कार्य में सफल हो जाता है तो उसे इस बात का गर्व होता है। परन्तु यही गर्व जब उसके मन-मस्तिष्क में समा जाता है तो कालान्तर में वह अहंकार का रुप ले लेता है।

अहंकारं बलं दर्प कामं क्रोधं च सौश्रिता। मामात्मपरदेहेषू प्रद्विषन्तोऽभ्यसुयका।।१६.१८।।

श्रीमद्भागवत गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं: अहंकारं, बल, हठ,कामना और क्रोध का आश्रय लेनेवाले मनुष्य अपने और दुसरों के शरीर में रहने वाले परमात्मा के साथ ही द्वेष करने लगते हैं।

कलम के सिपाही मुंशी प्रेमचंद के शब्दों में : घमंड से आदमी फूल सकता है पर फल नहीं सकता।

शेक्सपियर के अनुसार अहंकारी व्यक्ति स्वयं को खा जाता है।

स्वामी रामतीर्थ के अनुसार अभिमान से युक्त जीवन को छोड़ देना ही त्याग है और वही सौन्दर्य है।

महर्षि दयानंद के अनुसार जो मनुष्य अहंकार करता है, उसका एक दिन पतन अवश्य ही होगा।

स्वामी विवेकानंद के शब्दों में: तुम्हारे लिए धार्मिक पुस्तक, देवालय और पूजा-अर्चना की कोई आवश्यकता नहीं, यदि तुमने अहंकार का त्याग कर दिया है।

भगवान बुद्ध के शब्दों में अभिमान की अपेक्षा नम्रता से अधिक लाभ होता है।

ओशो के शब्दों में अहंकार प्रेम की अनुपस्थिति का परिणाम है।

प्रेम और अहंकारं दोनों एक साथ नहीं रह सकते। प्रेम की रोशनी को पाने के लिए अभिमान रुपी अंधकार की परत को तोड़ना ही पड़ता है।

जगद्गुरु शंकराचार्य ने कहा है कि अहंकारं का कारण है अपने वास्तविक “मैं” स्वरुप को नहीं समझ पाना। जैसे ही व्यक्ति”मैं” को उसके वास्तविक रुप में देख लेता है, उसका अहंकारं वैसे ही विलुप्त हो जाता है जैसे दीपक के जलने से अंधकार मिट जाता है।

शास्त्रों में बारम्बार यह कहा गया है कि अहंकारं का त्याग करो! ज्ञानीजन भी यही बात दोहराते आ रहे हैं कि अहंकार व्यक्ति को पतन की ओर ले जाता है। तो फिर यह विचार करना आवश्यक है कि इससे मुक्त होने का उपाय क्या है? ज्ञानीजन इसे अपने बुद्धि-विवेक से त्यागने की सलाह देते हैं।

श्रीमद्भागवत गीता के अठारहवें अध्याय में श्रीकृष्ण कहते हैं : हे अर्जुन अपने अहंकार को पूर्ण रुप से ईश्वर को समर्पित कर दो! और यह जो समर्पण है जो केवल ध्यान से उत्पन्न होगा।

स्वामी रामकृष्ण के अनुसार: अहंकार क्या है! इसपर ध्यान देने की जरूरत है। जब आप एक प्याज को छीलते हैं तो पाते हैं कि पुरे के पुरे प्याज में केवल छीलके ही होते हैं, जो परत दर परत खुलते चले जाते हैं। ठीक उसी प्रकार जब आप अपने अहंकार को छीलना शुरू कर देते हैं तो उसकी सारी परतें खुल जाती हैं और कुछ नहीं बचता। जब अहंकार चला जाता है तो केवल ईश्वर ही रह जाता है। यह जो रोग है बाहर की आंखों से नहीं भीतर के आंखों से दिखाई देता है। अहंकार को त्याग करने से पहले उसके निरर्थकता को समझना जरूरी है।

सदगुरु जग्गी वासुदेव के अनुसार; अहंकार का आशय उस पहचान से है, जो व्यक्ति स्वयं धारण करता है। और जिस पहचान के साथ वह कार्य कर रहा होता है, उसकी समझ अक्सर उसी पहचान के अनुसार कार्य करने लगती है। 

आपकी पहचान जिन भी चीजों के साथ है, उनमें से कुछ बौद्धिक रूप से महत्त्वपूर्ण हैं और कुछ भावनात्मक रूप से!

सदगुरु

सदगुरु के शब्दों में: जब हम किसी खास उद्देश्य से कुछ कर रहे होते हैं, तो हमें पहचान की जरुरत होती है। हम उसके साथ ऐसे चलते हैं जैसे हमारा जीवन उसी पर निर्भर है।

अगर आपने बौद्धिक रुप से किसी चीज के साथ पहचान स्थापित की हुवी है, तो आप अपने चारों ओर मुश्किलों का एक भयंकर जाल महसुस करेंगे और उसमें फंसे रहेंगे। अगर आपने भावनात्मक आधार पर पहचान स्थापित की है तो आपकी पहचान एक मकसद का, एक जुड़ाव का आभास करायेगी। लेकिन जैसे ही आपके भावनात्मक पहचान के साथ समस्या आ जाती है, आपका मन टुट जाता है। आपको लगने लगता है कि सब-कुछ बेकार है!

अगर आप किसी चीज के साथ अपनी पहचान बना लेते हैं, तो या तो यह आपको बना देती है अथवा तोड़ देती है।

सदगुरु

सदगुरु समझाते हैं कि आपको अपनी पहचान ढीले कपड़े की तरह रखनी चाहिए! ताकि आप जब इसे उतारना चाहें, आप इसे आसानी से उतार सकें। अगर आप यह नहीं जानते कि अपनी पहचान कैसे उतारें, तो धीरे-धीरे आपकी बुद्धि आपकी सुरक्षा के लिए काम करना शुरू कर देगी और आत्मरक्षा की दिवारें बनाने लगेगी। यदि आप अपनी रक्षा के लिए अपने आसपास एक दिवार बना लेते हैं तो कुछ समय बाद यही दिवार आपको कैद कर लेती है।

पहचान को जागरुकता के साथ धारण करना, उसका होकर न रह जाना, बल्कि उस पहचान के साथ खेलना! अगर कोई ऐसा करता है तो बुद्धि उसके खिलाफ काम नहीं करेगी। लेकिन आप तो अपनी पहचान को लेकर चल रहे हैं और फंस गये हैं। आप उसे लेकर नहीं चल रहे हैं, बल्कि वह आपको चला रही है। आप इसमें फंस गये हैं! एक बार अगर आप इसमें फंस गए तो आपकी बुद्धि आपके खिलाफ काम करना शुरू कर देगी।

बुद्धि का सबसे अच्छा उपयोग तभी हो सकता है, जब आप अपनी पहचान को अपने से थोड़ा सा दुर रखकर धारण करें! जब तक आप चाहें इसके साथ खेलें और जब नहीं खेलना है तो इसे दुर रख सकें।

सदगुरु

मैं मैं बड़ी बलाई है सके निकल तो भाग।
कहे कबीर कब लग रहे रूई लपेटी आग।।

कबीर कहते हैं कि यह “मैं” बहुत बड़ी बला है। इसलिए हे मनुष्य इसके चंगुल से निकल सकते हो तो अतिशीघ्र निकल कर भाग जाओ। आखिर कब तक रुई को अग्नि में लपेटकर रखा जा सकता है! रुई और अग्नि का मेंल विनाशकारी है। ठीक उसी प्रकार अहंकार रुपी अग्नि रुई रुपी तन को जलाकर नष्ट कर देती है। अतः इस अहंकार रुपी अग्नि का त्याग कर देना ही श्रेयस्कर है।

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