ताड़ना एक ऐसा शब्द है, जिसका प्रयोग एक से अधिक संदर्भों में किया जाता है। ताड़ना एक क्रिया है, जिसका संबंध दो विपरीत मनोभावों से है। एक भाव है, जो चीजों को परखने, समझने की क्रिया को दर्शाता है। वहीं जो दुसरा भाव है, वह किसी पर आघात करने, किसी को अपमानित करने की क्रिया को दर्शाता है।
ताड़ना एक ऐसा शब्द है, जो एक से अधिक मनोभावों से प्रभावित होता है। ऐसे बहुअर्थी शब्द विवाद के कारण बन जाते हैं। परखना, समझना अथवा प्रताड़ित करना, इस शब्द का आशय वक्ता एवम् श्रोता दोनों के मानसिकता पर निर्भर करता है।
यह जो शब्द है, बहुअर्थी होने के कारण विवाद का विषय बन जाता है। परन्तु यह साधारण मनुष्य पर ही लागू होता है। क्योंकि साधारण व्यक्ति की बुद्धि सीमित होती है। बुद्धि मन के अनुसार कार्य करती है, मन का अनुसरण करती है। अपने मनोनुकूल शब्दों के अर्थ को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत करना एवम् अपनी बुद्धि को ही सही ठहराने का प्रयास करना सीमित बुद्धि का ही परिचायक है।
जो ज्ञानी पुरुष होते हैं, उनका मनोभाव उत्कृष्ट होता है। ज्ञानियों के वचन समाज को दिशा देने के लिए होते हैं। ऐसे लोगों की मानसिकता विवाद उत्पन्न करने की नहीं होती है। लेकिन सीमित बुद्धि के लोगों द्वारा ज्ञानियों के वचनों को भी विवादित करने का प्रयास किया जाता है। इसका एक उदाहरण स्वामी तुलसीदास रचित रामचरितमानस की एक चौपाई पर दृष्टिगत होता है।
ढोल गंवार सुद्र पसु नारी। सकल ताड़न के अधिकारी।।
उक्त पंक्तियां महाकाव्य रामचरितमानस में उल्लेखित है। यहां ताड़न शब्द प्रयुक्त हुवा है, जो परखने, समझने, जानने की क्रिया को इंगित करता है। परन्तु कतिपय लोगों के द्वारा ताड़न का अर्थ आघात करना, शासित करना, अपमानित करना आदि समझ लिया जाता है। और ऐसे लोग तुलसीदास जैसे ज्ञानी पुरुष पर भी दोषारोपण करने लगते हैं।
इस उक्ति में एक शब्द है ढोल! जिसके संदर्भ में ताड़ना शब्द प्रयुक्त हुवा है। ढोल एक बाध्य यंत्र है। ढोल को ठीक तरह से बजाया जाए, तभी उसमें से मधुर ध्वनि निकलती है। जिसे स्वर, संगीत के विषय में ज्ञान न हो, वह ढोल को ठीक तरह से बजा नहीं सकता। ढोल की सार्थकता उसकी ध्वनि की मधुरता में है। ढोल को अगर बेतरतीब ढंग से आघात किया जाए, तो उससे कर्कश ध्वनि ही निकलेगी। और ऐसा करने से उसके टुटने, फटने की संभावना भी बनी रहती है। इस प्रकार से देखा जाए, तो यहां ताड़ना का आशय समझ की दृष्टि से है।
यही बात यानि की समझ की दृष्टि! ताड़न के संदर्भ में प्रयुक्त किए गये अन्य उपमाओं पर भी लागू होता है। गंवार शब्द अनपढ़ व्यक्ति के लिए प्रयुक्त होता है। वैसा व्यक्ति जो बुद्धिहीन है। बुद्धिहीन लोगों की मन की आकांक्षाएं भी सीमित होती हैं। उनका मन बुद्धिमान लोगों के अपेक्षा सरल होता है। वैसे लोगों पर अधिक ध्यान रखना पड़ता है, उनके स्वभाव को समझना पड़ता है। जहां तक बात पशु की है, पशु को प्रताड़ित करने से वह हिंसक हो सकता है।
सामान्यतः शुद्र का संबंध सेवा से है। वैसे देखा जाए तो सेवक सभी होते हैं। जीवन यापन करने के लिए, विभिन्न उत्तरदायित्वों के निर्वाह के लिए, हर किसी को कुछ न कुछ करना पड़ता है। इसके लिए श्रम एवम् कौशल का आदान प्रदान करना पड़ता है। किसी भी तरह का शारीरिक- मानसिक कार्य विना सेवाभाव के कुशलतापूर्वक नहीं किया जा सकता है। लेकिन केवल शारीरिक श्रम के द्वारा दुसरों की सेवा करनेवाले निम्न श्रेणी के समझे जाते हैं। यह सामाजिक विचारधारा का एक दोषपूर्ण पहलू है।
वास्तव में शुद्र किसी जाति का सुचक नहीं है, इसका आधार कार्य की प्रकृति है। इस दृष्टि से देखा जाए तो जो भी व्यक्ति संकीर्ण विचार रखता हो, निम्न स्तर के कार्यों में लगा रहता हो, वह शुद्र है। चाहे वह किसी भी जाति, वर्ग अथवा समुदाय से हो। सोच एवम कार्य की प्रकृति किसी के शुद्र अथवा भद्र होने मापदंड है।
प्राचीन आर्य संस्कृति में जिस सामाजिक व्यवस्था का निर्माण किया गया था, कार्य की प्रकृति के आधार पर किया गया था। इस व्यवस्था के अन्तर्गत जिसे वर्ण व्यवस्था कहा जाता है, किसी न किसी रूप में सभी वर्णों के लोग सेवा क्षेत्र से ही जुड़े थे। विभिन्न कार्यों में लगे लोग आपस में एक दुसरे पर आश्रित थे। सामाजिक व्यवस्था को व्यवस्थित ठंग से चलाने में सभी की भुमिका महत्वपूर्ण हुवा करती थी। कदाचित इस व्यवस्था को कार्य रूप देनेवालों को इस बात का अंदेशा नहीं रहा होगा कि कालांतर में इसका रूप को बिगाड़ा जा सकता है।
कालांतर में इस व्यवस्था के विचारधारा में परिवर्तन होता चला गया। बाद के दिनों में वंश परम्परा का उद्भव हुआ। एक दुसरे वर्ग के बीच आपसी संघर्ष और भेदभाव का भी उद्भव हुवा। इसके कई कारण हो सकते हैं, लेकिन इसका जो प्रमुख कारण है, मनुष्य के मन की प्रकृति ही है।
रीत और कुरीत दोनों एक सिक्के के ही दो पहलू हैं। एक सकारात्मक तो दुसरा नकारात्मक भाव से प्रेरित होता है। अगर दृष्टि सकारात्मक हो तो किसी भी व्यवस्था के उत्कृष्ट पक्ष को उजागर किया जा सकता है, और उसमें निहित खामियों को दुर किया जा सकता है। सकारात्मकता को बनाए रखने का प्रयास हो, तो नकारात्मकता स्वत: ही नष्ट हो जाता है।
स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि ‘On the basis of doing right and baing right the whole world can be unite’। अर्थात् सकारात्मक विचारों के साथ सही करने और सही बनने के आधार पर पूरी दुनिया को एक किया जा सकता है। यह बात समझने की है।
बहरहाल जिन्हें शुद्र कहा गया है। यानि वैसे लोग जो जीवन निर्वाह के लिए केवल शारीरिक श्रम पर निर्भर हों। वैसे बौद्धिक कुशलता से विपन्न लोग भी मनुष्य ही होते हैं। उन्हें किसी भी तरह से अपमानित अथवा प्रताड़ित करना सर्वथा अनुचित एवम् अमानवीय कृत्य है। जिसे शुद्र समझा जाता हो, उसके प्रति भी समझ और सद्भावना की जरूरत होती है।
मानवता सबसे बड़ा धर्म है, और प्राणी मात्र के प्रति समानता एवम् सम्मान का भाव रखना ही मानवता है, इस बात का ध्यान रखना जरूरी है। तुलसीदास ने लिखा भी है कि ‘परहित सरिस धरम नहिं भाई’। अर्थात् परोपकार, दुसरों की भलाई करने से बड़ा कोई धर्म नहीं है।
‘जननी सम जानहिं पर नारी’। अर्थात् पराई स्त्री को माता समान मानना चाहिए। यह जो कथन है, महाकवि तुलसीदास ने ही कही है।
राम चरित मानस में अहिल्या, उर्मिला, सुलोचना, मंदोदरी, सीता जैसी अनेक नारियों के आदर्श चरित्र का वर्णन किया गया है। जिन्होंने अपनी चरित्र से प्रेम, सेवा, त्याग एवम् समर्पण के मापदंत को स्थापित किया है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का सबरी, निषादराज के साथ विनम्र एवम् सम्मानजनक व्यवहार, वानर राज सुग्रीव के साथ मित्रभाव का भी वर्णन है। जामवन्त जिन्हें भालु स्वरूप दिखाया गया है, उनके प्रति सम्मानजनक व्यवहार का भी उल्लेख किया गया है। और इन सभी तथ्यों को उजागर करते हुए महाकवि की भावनाएं भी प्रगट हुवी हैं।
रामचरित मानस में उद्धृत विभिन्न पात्रों के चरित्र चित्रण पर गौर करें, तो इस ताड़ना शब्द के सकारात्मक पहलू की ओर ध्यान आकृष्ट होता है। परन्तु इस एक शब्द के आड़ में एक महाकवि के मनोभाव को नकारात्मक दिखाने की कोशिश की जाती है। दुसरों की हित की बात करनेवाले, दुसरों को पीड़ा पहुंचाने को अधर्म माननेवाले, नारी के प्रति सम्मान भाव रखनेवाले महाकवि द्वारा प्रयुक्त एक शब्द ताड़ना का अर्थ नकारात्मक कैसे हो सकता है? एक महाकाव्य के रचयिता के द्वारा कुछ भी अनुचित लिखा गया हो, ऐसी धारणा रुग्ण मानसिकता का परिचायक है।
परन्तु कुछ लोगों की मानसिकता में ताड़ना का अर्थ केवल आघात पहुंचाना, प्रताड़ित करना है, ऐसी धारणा बन गई है। इसका कारण इस विषय पर समुचित ज्ञान का अभाव है। किसी भी बहुअर्थी शब्द का अर्थ लगाना अपने मनोभाव पर निर्भर करता है। अंत में इस विषय पर यही कहा जा सकता है कि जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि। जीवन को सार्थक दिशा देने के लिए मन में सकारात्मक विचारों को धारण करना ही श्रेयस्कर है।