अनुलोम विलोम श्वास लेने और छोड़ने की एक प्रक्रिया है। सामान्यतः हम नाक के दोनों छिद्रों से सांस लेते और छोड़ते हैं। पर अनुलोम विलोम में नासिका के एक छिद्र से सांस लिया जाता है और दुसरे से छोड़ा जाता है। अनुलोम विलोम एक दुसरे के विपरीत हैं। नासिका के एक छिद्र से सांस लेना अनुलोम और दुसरे से छोड़ना विलोम कहलाता है।
स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में “हम साधारणतः जिस प्रकार सांस और छोड़ते हैं, वह श्वास-प्रश्वास नाम के योग्य ही नहीं। वह बहुत अनियमित है।”
सामान्यतः नासिका के एक ओर से सांस लेना और दूसरे से छोड़ना ही अनुलोम विलोम समझा जाता है। परन्तु ऐसा नहीं है, यह एक विशेष प्रक्रिया है, जिसके द्वारा श्वास प्रश्वास को नियंत्रित किया जाता है। इसे नाड़ी शोधन प्रक्रिया भी कहा जाता है। अतः इस क्रिया को करते समय सावधानी बरतना जरूरी है। यहां इस क्रिया को सही तरीके से करने को लेकर सुझाव दिए जा रहे हैं।
अनुलोम विलोम के नियम एवम् सावधानियां !
> अपने बाएं हाथ को बाएं घुटने पर रखें, हथेली ऊपर खुली हो एवम् अंगुठा और तर्जनी एक दुसरे से जुड़े हों। अब दाएं हाथ की तर्जनी और मध्यमा को दोनों भौहों के बीच में हल्के से रखें। अनामिका और कनिष्ठा को बाएं नासिका पर और अंगुठे को दाएं नासिका पर रखें।
> अब दायीं नासिका को हल्के से दबाकर बायीं नासिका से श्वास लें।
> फिर विना देर किए बायीं नासिका को अनामिका और कनिष्ठा से हल्के से दबाकर दायीं नासिका से सांस बाहर निकालें।
> अब दायीं नासिका से सांस लें और फिर दायीं नासिका को अंगुठे से दबाकर बायीं ओर से सांस बाहर निकालें।
> बायीं ओर से सांस लेकर दायीं ओर से छोड़ना और फिर दायीं ओर से सांस लेकर बायीं ओर से छोड़ने से एक चक्र पूरा होता है। एक के बाद एक नासिका से सांस लेने और छोड़ने की क्रिया जारी रखें।
> इस क्रिया का अभ्यास करते समय उंगलियों को मस्तक एवम् नाक पर हल्के से रखें। सांस लेने और छोड़ने की गति को सहज रखें। सांसों पर नियंत्रण करने के लिए जोर लगाना हानिकारक हो सकता है। किसी भी स्थिति में मुंह से सांस लेने अथवा छोड़ने की गलती न करें। ध्यान रहे कि सांस छोड़ने की अवधि सांस लेने की अवधि से अधिक हो। पहले पहल अनुलोम विलोम क्रिया को दो तीन बार दोहराएं। फिर जब अभ्यास हो जाए तो नियत समय पर दस से पंद्रह बार इसे करें। दिन में दो बार यानि सुबह और शाम करने से अधिक लाभ मिलता है। अगर संभव हो तो सुबह, दोपहर, शाम एवम् रात्रि सोने से पूर्व चौपहर किया जाए तो अत्यंत लाभकारी होता है।
आसन का अभ्यास करना!
आसन से तात्पर्य बैठने का तरीका से है। इस क्रिया को करते समय बैठने का ठंग सही होना चाहिए। सर्वप्रथम सहजता के साथ लम्बे समय तक एक खास तरीके से बैठने का अभ्यास करना जरूरी है। इस क्रिया को करते समय हम किस प्रकार बैठते हैं यह महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि सहजता के साथ लम्बी अवधि तक बैठ सकें यह महत्वपूर्ण है। बैठने का ढंग चाहे जैसा भी हो, अपने रीढ़ की हड्डी सीधा रखें और कंधों को ढीला छोड़कर आराम से बैठने का अभ्यास करना चाहिए। जब उचित ढंग से बैठने का अभ्यास हो जाए तो आगे की क्रिया को करना उचित है।
स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि “दीर्घकाल तक एक ढंग से बैठा जा सके, एक ऐसे आसन का अभ्यास जरूरी है। जिनको जिस आसन से सुविधा मालुम पड़ता हो, उनको उसी आसन पर बैठना चाहिए। आसन के संबंध में इतना समझ लेना होगा कि मेंरुदंड को सहज स्थिति में रखना आवश्यक है – ठीक सीधा बैठना होगा – वक्ष, ग्रीवा और मस्तक सीधे और समुन्नत रहें, जिससे देह का सारा भार पसलियों पर पड़े।”
नाड़ी शोधन प्रक्रिया का महत्व।
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार “आसन सिद्ध होने पर नाड़ीशुद्धि करनी पड़ती है। प्राणायाम के द्वारा जिस मन का मैंल धुल गया है, वही मन ब्रम्ह में स्थिर होता है। इसलिए शास्त्रों में प्राणायाम के विषय में उल्लेख है। पहले नाड़ीशुद्धि करनी पड़ती है तभी प्राणायाम की शक्ति आती है। अंगुठे से दाहिना नथुना दबाकर बाएं नथुने से यथाशक्ति वायु अंदर खींचो, फिर बीच में तनिक देर भी विश्राम किए बिना बांया नथूना बंद करके दाहिने नथुने से वायु बाहर निकालो। फिर दाहिने नथुने से वायु ग्रहण करके बाएं से निकालो। दिन भर में चार बार अर्थात् उषा, मध्यान्ह, सायाह्न और निशीथ, इन चार समय पूर्वोक्त क्रिया का तीन चार या पांच बार अभ्यास करने पर, एक पक्ष या महीने भर में नाड़ीशुद्धि हो जाती है। उसके बाद प्राणायाम पर अधिकार होता है।”
इस क्रिया के नियमित अभ्यास से तन और मन को अनेक तरह के लाभ मिलते हैं। मान्सिक तनाव एवम् शारीरिक थकान से निबटने में यह क्रिया सहायता करती है। यह श्वसनतंत्र एवम् रक्तप्रवाह से संबंधित समस्याओं को दुर करने में सहायता करती है। नाड़ियों को शुद्ध करती है, जिससे हमारे शरीर में जीवनी शक्ति का सुचारू रूप से प्रवाह हो सके। मन को स्थिर एवम् शांत करने के लिए यह एक उत्तम प्रक्रिया है।
योगियों ने श्वास-प्श्वास की गति को नियंत्रित करने पर जोर दिया है। सामान्यतः मनुष्य का मन बहुर्मुखी होता है, उसे भीतर की सूक्ष्म गतियों का अनुभव नहीं हो पाता। अनुलोम विलोम एक ऐसी प्रक्रिया है जो हमारे शरीर में प्रवाहित ऊर्जा प्रणाली को सुचारू रूप से संचालित करती है। यह क्रिया मन को अंतर्मुखी करने में सहायता करती है। अनुलोम विलोम का अभ्यास प्रत्येक के लिए यथेष्ठ एवम् हितकारी है, परन्तु इसे करते समय सतर्क रहना जरूरी है। । अतः अगर संभव हो तो किसी योग्य व्यक्ति के संरक्षण में श्वास-प्रश्वास पर नियंत्रण का प्रयास करना चाहिए। इस क्रिया में अभ्यस्त एवम् योग्य व्यक्ति के निर्देशानुसार करने से शीघ्र ही अच्छे परिणाम मिलने लगते हैं।
प्रत्येक दिन नियमित रूप से बस कुछ ही समय के लिए यह अभ्यास करने से मन शांत होने लगता है। ये ऊर्जा प्रवाह जो शरीर के पेशियों में जाकर उनको शक्ति प्रदान करते हैं। अस्थिर और अशांत मन इन सुक्ष्म गतियों का अनुभव नहीं हो पाता। शांत और स्थिर मन स्नायविक शक्ति का प्रवाह जो समूचे शरीर में चल रहे होते हैं, उनका अनुभव कर पाता है।
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