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प्राणायाम क्या है जानिए..!

प्राणायाम का शाब्दिक अर्थ है प्राण का नियमन। यह प्राण और आयाम दो शब्दों का मेल है। प्राण वह ऊर्जा है जिसके कारण हमारा जीवन है। वह शक्ति जो हमारे शरीर को, जो एक यंत्र की भांति है, इसे संचालित करता है। इसका संबंध श्वास-प्रश्वास से है, इसी प्रक्रिया के द्वारा प्राण ऊर्जा का प्रत्यक्ष अनुभव होता है। आयाम का अर्थ है नियमित करना। इस प्रकार प्राणायाम का आशय है, श्वास-प्रश्वास के गति एवम् मात्रा को नियमित करना। शांत एवम् स्थिर मन ही हमें उस अवस्था तक ले जा सकता है, जहां प्राण ऊर्जा की अनुभूति होती है। परन्तु इसके लिए मन पर नियंत्रण रखना आवश्यक है। प्राणायाम मन को स्थिर करने की एक कठिन प्रक्रिया है।

योगाभ्यास से शारीरिक एवम् मानसिक विकास होता है। विकसित तन एवम् मन साधक को आध्यात्मिक विकास की ओर प्रवृत्त करता है। प्राणायाम अष्टांग योग का चौथा अंग है। इसके साधना से पूर्व यम, नियम एवम् आसन का अभ्यास जरूरी है। यम अनैतिक कार्य-विचारों से स्वयं को मुक्त करने का का साधन है। यम का अर्थ है संयम, जो पांच प्रकार का होते हैं, सत्य, अहिंसा, ब्रम्हचर्य, अस्तेय और अपरिग्रह। और नियम आंतरिक अनुशासन का अभ्यास है। योग के संदर्भ में स्वस्थ जीवन एवम् ज्ञान की प्राप्ति के लिए आवश्यक क्रियाकलापों को नियम कहते हैं। शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर प्राणिधान नियम के अंतर्गत आते हैं। शरीर को नियंत्रित कर अधिक समय तक खास अवस्था में स्थिर रखने का अभ्यास आसन कहलाता है। प्राणायाम का अभ्यास करने से पूर्व इन तीन अंगो का अभ्यास जरूरी बताया गया है। 

प्राण ऊर्जा तन अथवा देह के अस्तित्व को बनाए रखता है। प्राण जब शरीर का साथ छोड़ देता है, तो यह नष्ट हो जाता है। यह जो शरीर है, स्थूल है। यह भौतिक त्तत्वों से बना होता है। प्राण सुक्ष्म ऊर्जा है, इस अभौतिक, अदृश्य का आभास हम सांस के द्वारा करते हैं। परन्तु इसकी अनुभूति नहीं कर पाते। जिस सुक्ष्म त्तत्व के कारण हमारा जीवन है, हम उससे पूर्णतः अनभिज्ञ रहते हैं। प्राणायाम की साधना हमारे तन-मन को उस अवस्था तक ले जाती है, जहां वास्तव में प्राण की अनुभूति होने लगती है।

प्राण-ऊर्जा हमारे समस्त शरीर में नाड़ियों से होकर गुजरती है, जो कि अत्यंत सुक्ष्म ग्रंथियां हैं। प्राण-ऊर्जा का प्रवाह इन सुक्ष्म ग्रंथियों के द्वारा समस्त शरीर में निरंतर और नियमित हो, इसके लिए प्राणायाम का अभ्यास जरूरी है। प्राणायाम प्राण शक्ति की मात्रा एवम् गुणवत्ता को विकसित करता है। श्वास-प्रश्वास की गति और मात्रा का प्रभाव हमारे तन और मन दोनों पर पड़ता है। श्वसन क्रिया के अनियमित होने से नाड़ियां अशुद्ध हो जाती हैं, और प्राण ऊर्जा के प्रवाह में अवरोध उत्पन्न करती हैं। फलस्वरूप तन अस्वस्थ एवम् मन अशांत हो जाता है। प्राण ऊर्जा का प्रवाह निरंतर और नियमित हो तो शरीर स्वस्थ एवम् मन शांत रहता है।

प्राण के नियमन की विधि ..!

प्राणायाम करने के लिए एक निश्चित समय एवम् स्थान का होना अधिक लाभकारी होता है। सुबह और शाम का समय इसके लिए उपयुक्त माना गया है। स्नान के द्वारा तन को शुद्ध कर और मन में अच्छे विचारों को धारण कर इस क्रिया का अभ्यास करना चाहिए। अगर एक स्वतंत्र कमरा उपलब्ध हो तो, धुप-दीप जलाकर अभ्यास में लगना चाहिए। प्राणायाम करने के लिए सीधा होकर बैठना आवश्यक है। कमर, सीना एवम् मस्तक एक सरल रेखा में सीधी रहनी चाहिए। कुछ दिनों के अभ्यास से सीधे होकर बैठना सरल हो जाता है।

प्राणायाम का एक सरल तरीका  है – भीतर गहराई तक सांस को खींचना और फिर सांस को बाहर छोड़़ना। जितनी देर तक सांस भीतर लें उससे लगभग दोगुनी समय तक बाहर निकालें। सांस लेने और छोडने के समय अपने इष्ट का नाम स्मरण मन ही मन करते रहें। यह अपेक्षाकृत सरल प्रक्रिया है, कुछ दिनों तक इसका अभ्यास करने से शरीर भीतर से शुद्ध होने लगता है। 

कुछ दिनों के अभ्यास के बाद प्राणायाम के अन्य तरीके का अभ्यास करना चाहिए। 

प्राणायाम का एक प्रक्रिया है, जिसका एक चक्र तीन चरणों में पूरा होता है। पहला पूरक, दुसरा कुम्भक और तीसरा है रेचक। पहली क्रिया पूरक, जिसमें अंगुठे से लातीं नासिका बंद करके बायीं नासिका से धीरे धीरे सांस भीतर लिया जाता है। लगभग चार से पांच सेकंड तक सांस को भीतर खींचें। फिर अंगुठे एवम् तर्जनी से दोनों नासिका को बंदकर सांस को रोके रखें। यह क्रिया कुंभक कहलाती है, इसे पूरक से चार गुणा समय तक करें। इसके बाद तर्जनी से बायीं नासिका बंदकर दायीं नासिका से सांस बाहर निकालें। यह क्रिया रेचक कहलाती है, इसे पूरक से दोगुना समय तक करें। फिर इसे उल्टा क्रम में दोहरायें, यानि दाएं से सांस लेकर फिर भीतर रोककर रखें और बाएं से बाहर निकालें।

प्राणायाम में सांस को भीतर रोके रखना थोड़ा कठिन है। पहले पहल सुबह-शाम तीन-चार बार से अधिक अभ्यास नहीं करना चाहिए। धीरे धीरे अभ्यास हो जाने पर संख्या बढ़ाया जा सकता है। योग्य साधक के सानिध्य में रहकर प्राण के नियमन का अभ्यास अधिक उपयोगी होता है। जैसे तैसे और अनियमित अभ्यास से बचें, क्योंकि यह हानिकारक हो सकता है।

प्राणायाम का एक और तरीका है,  सांस को बाएं ओर से लेकर बिना देर किए दाएं ओर से छोड़ना। और फिर बाहर ही कुछ देर उसे रोककर रखना। फिर उल्टा यानि कि सांस को दाएं से लेकर बाएं से छोड़ना और कुछ देर बाहर रोककर रखना। इसमें कुंभक क्रिया भीतर नहीं बाहर की जाती है। पूरक, रेचक और कुंभक के समय का अनुपात 4:8:16 का ही होना चाहिए। यह जो तरीका है, पहले से आसान है। 

शुरुआत में कुंभक क्रिया का अभ्यास न करें तो बेहत्तर है। अनुलोम विलोम से शुरू करें, इसे नाड़ी शोधन प्रक्रिया भी कहा जाता है। नासिका के एक ओर से सांस लेने की क्रिया अनुलोम और दूसरे से छोड़ना विलोम है। इस क्रिया को प्रतिदिन सुबह-शाम दस-पंद्रह बार अवश्य करें। जब यह लगने लगे कि  श्वास-प्रश्वास की क्रिया सरल हो गयी है, तभी पूरक, रेचक एवम् कुंभक तीनो क्रिया का अभ्यास करना उचित समझा गया है।

प्राणायाम करते समय मन को शुद्ध विचारों को धारण कर रखना चाहिए। इसके लिए सबसे अच्छा हे कि सांस लेने, रोके रहने और छोड़ते समय मन ही मन ॐ का उच्चारण करते रहें। ऐसा करने से वांछित परिणाम मिलने की संभावना बढ़ जाती है। 

प्राण के संयम का उद्देश्य..!

प्राणायाम का उद्देश्य संपूर्ण शरीर में प्राण ऊर्जा के प्रवाह को नियमित करना है। इसके अभ्यास से जब नाड़ियों का शोधन हो जाता है, तो ऊर्जा प्रवाह समस्त शरीर में होने लगता है। फलस्वरूप अभ्यासकर्ता का तन स्वस्थ और मन स्थिर हो जाता है, और वह आध्यात्मिक उन्नति की ओर अग्रसर हो जाता है।

विवेकानंद के अनुसार यह जो शरीर है, सतत परिवर्तनशील है। शरीर क्या है? इस बात को समझाने के लिए उन्होंने नदी का दृष्टांत दिया है। स्वामी कहते हैं कि “नदी के दृष्टांत से यह त्तत्व सहज बोधगम्य हो सकता है। तुम अपने सामने नदी की जलराशि देख रहे हो, वह देखो, पलभर में वह चली गई और उसकी जगह एक नई जलराशि आ गई। जो जलराशि आयी वह संपूर्ण नयी है, परन्तु देखने में पहली ही जलराशि की तरह है। शरीर भी ठीक उसी तरह परिवर्तनशील है। उसके इस प्रकार परिवर्तनशील होने पर भी उसे स्वस्थ और बलिष्ठ रखना आवश्यक है, क्योंकि शरीर की सहायता से ही हमें ज्ञान की प्राप्ति करनी होगी। यही हमारे पास सर्वोत्तम साधन है।”

हम अपने शरीर के संबंध में बहुत कम जानते हैं। इसका कारण बताते हुए विवेकानंद ने कहा है कि “हम मन को उतनी दुर तक एकाग्र नहीं कर पाते, जिससे हम शरीर के भीतर की अति सुक्ष्म गतियों तक को समझ सकें। मन जब बाह्य बिषयों का परित्याग करके देह के भीतर प्रविष्ट होता है और अत्यंत सुक्ष्मावस्था को प्राप्त करता है, तभी हम उन गतियों को जान सकते हैं। इस प्रकार सुक्ष्म अनुभुति संपन्न होने के लिए हमें पहले हमें स्थूल से आरंभ करना होगा। यह देखना होगा कि सारे शरीर यन्त्र को चलाता कौन है, और उसे अपने वश में लाना होगा, वह प्राण है।”

ज्ञान ही शक्ति है और यह शक्ति प्राप्त करना ही हमारा उद्देश्य है। इसलिए हमें प्राणायाम – प्राण के नियमन से प्रारंभ करना होगा।

स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में “चित्त वृतियों के निरोध से प्राणायाम का क्या संबंध है? श्वास-प्रश्वास मानो देहयन्त्र की गतिनियामक प्रचक्र है। इस शरीर के सब अंगों में जहां जिस प्रकार की शक्ति की आवश्यकता है, उसकी पुर्ति कर रहा है और उस प्रेरक शक्ति को नियमित कर रहा है। श्वास-प्रश्वास ही उस प्राण-शक्ति की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है। श्वास-प्रश्वास के साथ  धीरे धीरे शरीर के भीतर प्रवेश करना होगा। इसी से देह के भीतर की सुक्ष्म शक्तियों के संबंध में जानकारी प्राप्त कर सकेंगे और समझ सकेंगे कि स्नायविक शक्ति प्रवाह किस तरह शरीर में भ्रमण कर रहे हैं। और जब हम मन में उनका अनुभव कर सकेंगे, तब उन्हें, और उनके साथ देह को भी हमारे अधिकार में लाने के लिए हम प्रारंभ करेंगे। मन भी इन स्नायविक शक्तियों द्वारा संचालित हो रहा है। इसलिए उन पर विजय पाने से मन और तन दोनों हमारे आधीन हो जाते हैं। ज्ञान ही शक्ति है और यह शक्ति प्राप्त करना ही हमारा उद्देश्य है। इसलिए हमें प्राणायाम – प्राण के नियमन से प्रारंभ करना होगा।”

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