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भ्रम क्या है जानिए – know what is illusion…

भ्रम क्या है? मिथ्या ज्ञान, झुठा विश्वास या फिर छलावा। यह वास्तविक है या वास्तविकता से परे है। जो भी हो, इस शब्द की व्याख्या तार्किक रूप से करना ही बेमतलब की बात है। क्योंकि यह जो भ्रम है, बुद्धि के स्तर से इसका कोई तालमेल नहीं है। जिस व्यक्ति की यह मान्यता हो कि उसका भ्रम वास्तविक है, उसके इस विश्वास को तर्क के आधार पर हिलाया नहीं जा सकता है। 

ऐसी आस्था, ऐसा विश्वास, ऐसा ज्ञान अथवा विचार को भ्रम कहा जा सकता है, जिसके मिथ्या होने के बावजूद उसे सच समझा जाता है। किसी विषय-वस्तु को कुछ का कुछ समझना ही भ्रम है। भ्रम के उपस्थित होने का कारण है कि कोई विषय-वस्तु ऐसा प्रतीत हो, जैसा वह है ही नहीं। 

गहनता से विचार करें तो भ्रम वह है जो इंन्द्रिय जनित है। अपने आसपास, चारों ओर सबकुछ वैसा ही प्रतीत होता है, जैसी इंन्द्रियां हमें दिखाती हैं। स्पर्श, दृश्य, ध्वनि, स्वाद एवम् गंध सबका ज्ञान हमें इन्द्रियों के द्वारा ही प्राप्त होती है। यही कारण है कि भ्रम को माया की संज्ञा दी गई है। और ये जो इंन्द्रियां हैं, मन के द्वारा संचालित होती हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भ्रम का संबंध मन से है। गहन अर्थों में यह मन की माया है, जो बाहर के संसार के प्रति हमारे दृष्टिकोण को परिभाषित करती है।

सामान्यतः भ्रम, भ्रांति जैसी उत्पन्न स्थिति को माया समझा जाता है। यह जो भ्रम अथवा भ्रांति है, इसके वास्तविक रूप को जान पाना अत्यंत कठिन है। मनुष्य इंन्द्रिय जनित सुख से ही संतुष्ट होना चाहता है और इसी चक्र में घुमता रहता है। इसलिए वह माया के वास्तविक अर्थ को जान ही नहीं पाता।

भ्रम एक मान्सिक स्थिति है, जो विभिन्न रूपों में प्रगट होता है। भ्रमित होने का जो कारण है, वह है ज्ञान का अभाव। गहन अर्थों में इन्द्रियों के माध्यम से जो ज्ञान हमें मिलता है, वास्तविकता से परे होता है। इंन्द्रियों के द्वारा हमें भ्रम का जो कारण है। जो माया का वास्तविक स्वरूप है, उसका अनुभव नहीं हो पाता। 

सामान्य मनुष्य की बुद्धि उसके मन के अनुसार ही कार्य करती है। वह जो करता है, जो देखता है, वही उसके लिए सत्य है। और वह अपने कार्य-विचारों को सही साबित करने में भी लगा रहता है। यह जो तार्किक बुद्धि है, बुद्धि के उन्नत स्वरूप से परे है। सामान्य मनुष्य सारा जीवन ही भ्रम में जीता है।

सुख की तलाश सबको है, यह जो चाहत है मन की, कभी किसी मिटती नहीं। वह इसलिए की किसी की चाहत कभी पूरी नहीं होती। फिर भी यह तलाश, यह खोज जारी है। इंन्द्रिय सुख हो या कुछ और, सब सुख की खोज में लगे रहते हैं। सुखी रहने के लिए ही समस्त खोज होते हैं, पर प्राप्त हो जाने के बाद भी कोई सुखी नहीं होता, कोई संतुष्ट नहीं होता।

हम भ्रमित हुवे रहते हैं, इसका कारण क्या है? बाह्य जगत से हमें कुछ की ही जानकारी मिल सकती है, सबकुछ की नहीं। वह जो सुख है, जिसके जानने से सबकुछ जाना जा सकता है, वह भीतर की चीज है। और हम जो तलाश में लगे हैं, इन्द्रियों के द्वारा अथवा बाह्य जगत में, सबकुछ भ्रम है, मन की माया है। आइए भ्रम, भ्रांति, छलावा या फिर माया, यह जो भी है, इसे ज्ञानियों के दृष्टिकोण से समझने का प्रयास करते हैं।

भ्रम का कारण है अहंकार!

अहंकार का बोझ हमारे ऊपर सबसे अधिक है। यह जब तक मन को घेरे रहता है, तब तक हम यह नहीं जान सकते कि सत्य क्या है! मन को नियंत्रित किए विना हम सत्य के मार्ग में नहीं जा सकते।

जीवन में दो भ्रम हैं। दोनों ही सच दिखाई देते हैं। एक भ्रम तो पदार्थ का है और दुसरा भ्रम अहंकार का है। एक भ्रम बाहर है और एक भ्रम भीतर है। दोनो भ्रम एक साथ ही जीते हैं और एक साथ ही मरते हैं – वे एक ही भ्रम के दो छोर हैं।

ओशो

अपने इस कथन प्रकाश डालते हुए ओशो ने कहा कि “बहुत पहले कुछ लोगों ने कहा था, पदार्थ माया है, तब हॅंसी योग्य बात लगी होगी। पदार्थ और माया! पदार्थ ही तो सत्य है। जो दिखाई पड़ता है, वही सत्य है। जो दिखाई नहीं पड़ता वह सत्य कैसे हो सकता है? अब विज्ञान कहता है कि जो दिखाई पड़ता है वो बिल्कुल सत्य नहीं है। पदार्थ, उसका ठोसपन, उसका होना, सब असत्य है! जैसे ही गहरी खोज की गई और पदार्थ तोड़ा गया पता चला, वहां कुछ ऊर्जा है, पदार्थ नहीं है। पदार्थ अणुओं का जोड़ है और अणु पदार्थ नहीं है। पदार्थ परमाणुओं का समुच्चय है और परमाणु केवल ऊर्जा के कण हैं। तो फिर पदार्थ दिखाई कैसे पड़ता है? पदार्थ दिखाई पड़ता है, अणुओं की गति से! पदार्थ के जो अणु हैं, ऊर्जा के जो अणु हैं, वे तीव्र गति से घुम रहे हैं। उनके तीव्र गति से घुमने के कारण ठोस मालुम पड़ रहा है।

एक भ्रम बाहर है और दुसरा इसी भ्रम का छोर भीतर है। यही ‘मैं’ का अहंकार भीतर दिखाई पड़ता है कि ‘मैं’ हूं। यह ‘मैं’ हूं, बिल्कुल झुठा है! यह ‘मैं’ भी एकदम माया है, यह ‘मैं’ भी एकदम भ्रम है। लेकिन आप कहेंगे, पदार्थ ऊर्जा का परिभ्रमण है, लेकिन यह ‘मैं’ कैसे झुठा है?

इस ‘मैं’ के भीतर भी अगर प्रवेश करें, जैसे वैज्ञानिकों ने परमाणु के भीतर प्रवेश किया – पदार्थ के भीतर और उसने कहा पदार्थ नहीं है। ऐसे ही अगर कोई व्यक्ति ‘मैं’ के भीतर प्रवेश करे और ‘मैं’ के परमाणुओं को जाने तो उसे पता चलेगा कि ‘मैं’ भी एक भ्रम है। ‘मैं’ के परमाणु हैं सब अनुभव! जैसे पदार्थ के परमाणु हैं, वैसे ‘मैं’ के परमाणु हैं, बुद्धि के कण, अनुभव के कण। अनुभव के कण इकट्ठे हो रहे हैं और तेजी से घुम रहे हैं। उसके गति के कारण यह संदेह पैदा हो रहा है, यह लगता है कि ‘मैं’ हूं।

मैं कहीं नहीं हूं! लेकिन यह निर्माण बचपन से लेकर जीवन भर चलता रहता है। और एक असत्य का भ्रम धीरे-धीरे जमा हो जाता है, खड़ा हो जाता है, ठोस हो जाता है। इसी ठोस ‘मैं’ का बोझ हमारे ऊपर सर्वाधिक है। यह अहंकार का बोझ जब तक मन पर है, तब तक हम सत्य में प्रवेश नहीं कर सकते।”

यही माया है – स्वामी विवेकानंद!

विवेकानंद के अनुसार सामान्य मनुष्य की यही धारणा होती है कि ‘संसार एक भ्रम है ‘। किन्तु वेदांत में माया का जो विकसित रूप है, वह न तो विज्ञानवाद है, न यथार्थवाद और न ही किसी प्रकार का सिद्धांत ही। यह तो तथ्यों का सहज वर्णन मात्र है – हम क्या हैं और हम अपने चारों ओर क्या देखते हैं। 

विवेकानंद के शब्दों में – “इन्द्रियां मनुष्य की आत्मा को बाहर खींच लाती है। मनुष्य ऐसे स्थानों में सुख और आनंद की खोज कर रहा है, जहां उन्हें वह कभी नहीं पा सकता। युगों से हम यह शिक्षा पाते आ रहे हैं कि यह निरर्थक एवम् व्यर्थ है ; यहां हमें सुख नहीं मिल सकता। परन्तु हम सीख नहीं सकते! हम प्रयत्न करते हैं और हमें एक धक्का लगता है; फिर भी क्या हम सीखते हैं? नहीं, फिर भी नहीं सीखते। पतिंगे जिस प्रकार दीपक की लौ पर टुट पड़ते हैं, उसी प्रकार हम इन्द्रियों में सुख पाने की आशा से अपने को बारम्बार झोंकते रहते हैं। पुनः पुनः लौटकर हम नये उत्साह के साथ लग जाते हैं। बस इसी प्रकार चलता रहता है और अंत में लूले-लंगड़े होकर, धोखा खाकर हम मर जाते हैं। और यही माया है!

प्रत्येक सॉंस के साथ, हृदय की प्रत्येक धड़कन के साथ, अपनी प्रत्येक हलचल के साथ हम समझते हैं कि हम स्वतंत्र हैं, और उसी क्षण हम देखते हैं कि हम स्वतंत्र नहीं हैं। बद्ध गुलाम – हम प्रकृति के गुलाम हैं! शरीर, मन, सर्वविध विचारों एवं समस्त भावों में हम प्रकृति के गुलाम हैं! और यही माया है!

विवेकानंद ने कहा है कि लोगों के सामने दो ही मार्ग हैं। इनमें से एक को तो सभी जानते हैं। वह यह है – “संसार में दुख है, कष्ट है – सब सत्य है, पर इस सम्बन्ध में बिल्कुल मत सोचो। दुख है अवश्य, पर उधर नजर मत डालो। जो थोड़ा सुख मिले, उसका भोग कर लो, इस संसार के अंधकारमय भाग को मत देखो – केवल  प्रकाशमय पक्ष की ओर दृष्टि रखो। इस मत में कुछ सत्य तो अवश्य है, लेकिन साथ ही एक खतरा भी है। इसमें सत्य इतना ही है कि यह हमें कार्य की प्रेरणा देता है। आशा एवम् इसी प्रकार का प्रत्यक्ष आदर्श हमें कार्य में प्रवृत्त और उत्साहित करता है, पर इसमें विपति यह है कि अंत में हमें हताश होकर सब चेष्टाऍं छोड़ देनी पड़ती हैं। यही हाल होता है उन लोगों का, जो कहते हैं – संसार को जैसा देखते हो, वैसा ही ग्रहण करो ; जितना स्वछंद रह सकते हो रहो; दुख, कष्ट आने पर भी कहो कि यह आघात नहीं, पुष्पवृष्टि है; दुसरों तथा अपनी आत्मा के सम्मुख दिन-रात झूठ बोलो, क्योंकि संसार में रहने का, जीवित रहने का यही एकमात्र उपाय है। इसी को सांसारिक ज्ञान कहते हैं, आजकल इसी उपदेश का जोर है।”

हमारे सांसारिक लोग कहते हैं, “धर्म, दर्शन, ये सब व्यर्थ की वस्तुएं लेकर दिमाग खराब मत करो। दुनिया में रहो, माना ये दुनिया बड़ी खराब है, पर जितना हो सके, इसका मजा ले लो।” सीधे-साधे शब्दों में इसका अर्थ यही है कि दिन-रात पाखंडपूर्ण जीवन व्यतीत करो – इसी को कहते हैं सांसारिक जीवन।

स्वामी विवेकानंद

तब फिर भ्रम से उत्पन्न इस सांसारिक ज्ञान से निजात पाने का उपाय क्या है? मन की इस माया से बाहर निकलने का मार्ग क्या है? इसका उपाय विवेकानंद के शब्दों में “जब जीवन की वर्तमान अवस्था में भयानक अशांति उत्पन्न हो जाती है, जब अपने जीवन के प्रति भी ममता नहीं रह जाती, जब मिथ्या और पाखंड के प्रति वितृष्णा उत्पन्न हो जाती है, तभी धर्म का प्रारंभ होता है। अज्ञानपूर्वक केवल खा-पीकर जीने की अपेक्षा मरना ही अच्छा है। पराजित होकर जीने की अपेक्षा युद्धक्षेत्र में मरना श्रेयस्कर है। यही धर्म की नींव है। जब मनुष्य धर्म के इस नींव पर खड़ा होता है, तब समझना चाहिए कि वह सत्य की प्राप्ति के पथ पर, ईश्वर की प्राप्ति के पथ पर चल रहा है। “

जीवन का सार ही है पूर्णता की ओर जाना। इन्द्रियजनित सुखों का रसपान करना ही जीवन का उद्देश्य है, इस भ्रम से बाहर निकलकर ही पूर्ण हुआ जा सकता है। इस भ्रम के जाल से, इस मिथ्या ज्ञान के बंधन से स्वयं को मुक्त करना ही जीवन का लक्ष्य है।

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