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माया का संसार — World of Illusion

माया क्या है ? इस शब्द को परिभाषित करना कठिन है। यह एक ऐसा शब्द है, जिसका प्रयोग अनेक अर्थों में होता है। भ्रम, सम्मोहन, मन की कल्पना आदि इसके अनेक रूप हैं। कोई व्यक्ति अपनी चतुराई से किसी वस्तु को मिश्र-भिन्न स्वरुप में दिखाता है, इसे हम जादु अथवा तिलिस्म की संज्ञा देते हैं। और जब कभी हम चकित कर देने वाली किसी घटना को देखते हैं तो उसे ईश्वर की माया कहते हैं। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि यथार्थ के अभाव में हमें जो दिखाई पड़ता है, वह माया है। 

हम वही देखते हैं, जो हमारा मन हमें दिखाता है। द्रष्टा और दृश्य के बीच का पर्दा माया है। यह बीच का जो पर्दा है, अज्ञान के कारण उपस्थित होता है। माया ऐसी अविद्या है जिसमें प्राय: सभी मनुष्य उलझे हुवे रहते हैं। यह वास्तव में भ्रम मात्र है। विचारक इसे दो रुपों में देखते हैं, भ्रम और मतिभ्रम। भ्रम में ज्ञान का त्तत्व विद्यमान है, परन्तु दिखाई नहीं पड़ता। और मतिभ्रम जो नहीं है उसे ही हम सच समझ लेते हैं। 

“ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या” यह मायावाद का प्रचलित सिद्धांत है। अर्थात् ईश्वर ही सत्य है और यह जगत मिथ्या है। मायावादी इस संसार को माया का संसार कहते हैं। उनके अनुसार सब जो हो रहा है, मन और माया का खेल है। जैसे चलचित्र के पर्दे पर जो दिखता है, वही नहीं होता, जिस प्रकार वह दिख रहा होता है। वैसे ही जो हम देख रहे हैं, हमारी प्रतीति है। यह संसार ऐसा है, जैसे कोई रस्सी को सांप समझ लेता है। जो सच है वो दिखता नहीं, और जो नहीं है वो दिखता है। सारा जगत का प्रपंच इसी तरह से चलता है, जो दिख रहा है, वो मिथ्या है।

माया के विषय में विचारकों में  मतभिन्नता है। एक मतानुसार यह समझा जाता है कि स्वयं ईश्वर ही माया से व्याप्त है। और यह जगत उसके हाथ की कठपुतली है, जिसे वह अपनी अंगुलियों पर नचाता है। जबकि एक मतानुसार ईश्वर और जीव के बीच जो है वह माया है, जो परमात्मा के शुद्ध स्वरुप को ढंक देती है।

उपनिषद में वर्णित है कि तीन त्तत्व हैं, ब्रह्म , जीव और माया! ब्रह्म और जीव के बीच में जो है, वह माया है। वेदान्त दर्शन के अनुसार  यह संसार ब्रह्म से उत्पन्न है, फिर भी यह वास्तविक नहीं है। समस्त जगत को ब्रम्हांड कहा जाता है।

“शास्त्र हमें बताते हैं कि यह संसार माया से निर्मित है। और शास्त्र हमें यह भी बताते हैं कि यह संसार ब्रह्म के द्वारा निर्मित है। इससे यही ज्ञात होता है कि माया एक ईश्वरीय शक्ति है। श्रीकृष्ण ने माया के विषय में गीता में कहा भी है कि “जिसकी प्रतीति मेंरे विना न हो! जिसकी प्रतीति मेंरे विना हो।”

इस बात को समझना जटिल है। इसे एक उदाहरण से समझते हैं। जैसे सुरज की किरणें जल में पड़ती हैं, पर सुरज जल में नहीं होता। सुरज ऊपर है और किरणे नीचे जल में! वह जल से पृथक है, केवल सुरज की किरणें जल में पड़ती हैं। जिस प्रकार केवल किरणों की प्रतीति जल में होती है, जल में नहीं है। उसी प्रकार माया की प्रतीति ईश्वर के विना होती है। और फिर किरणों का अपना कोई अस्तित्व नहीं होता। किरणों का अस्तित्व ही सुरज से है। ठीक उसी प्रकार ईश्वर के विना माया का कोई अस्तित्व ही नहीं है।

कबीर के दोहे लोगों के बीच बहुत प्रचलित हैं। ऐसा इसलिए कि आम लोगों को समझाने के लिए उन्होंने उन्हीं की बोल-चाल के भाषा का प्रयोग किया है। उनके कहे शब्द शास्त्रज्ञान से अर्जित नहीं हैं, बल्कि चिंतन रूपी आग में तपने से प्राप्त ज्ञान हैं। लेकिन उनकी वाणी सुनने में जितना सहज मालुम पड़ता है, समझने में उतना ही असहज हैं। उनकी कही बातों को समझने के लिए चिंतन की जरूरत है। यह बुद्धि का खेल नहीं, विवेक का विषय है।

मन और माया! के विषय में कबीर कहते हैं कि माया ही सबकुछ उत्पन्न करनेवाली है। सारी सृष्टि माया से उत्पन्न हुवी है। माया ने पहले मन को उत्पन्न किया, और इसी मन से सबकुछ उत्पन्न हुवा। मनुष्य मन की इच्छा से ही सक्रिय होता है। उन्होंने माया और मन को एक बताया है। 

मन माया तो एक है माया मनहिं समाय।

तीन लोक संसय परी मैं काहि कहां समुझाय।।

कबीर कहते हैं कि मन और माया तो एक है। मन की रचना करके माया उसी में समाहित हो जाती है। जिस कारण तीनों लोकों के प्राणी संशय में पड़े रहते हैं। यह जो संशय है, माया रचित संसार का रहस्य है, मैं किस किस को इस संशय के विषय में समझाता फिरूं। 

मन सागर मनसा लहरि बूड़े बहुत अचेत।

कहैं कबीर ते बांधि है जाकै हिरदय विवेक।।

कबीर कहते हैं कि यह मन तो अथाह सागर  और इच्छाएं लहरों के समान हैं। अधिकांश तो इसमें डुब ही जाते हैं, वही तैर पाता है जिसके हृदय में विवेक जगा रहता है।

बखत कहो या करम कहो नसीब कहो निरधार।

सहस नाम हैं करम के मन ही सिरजनहार।।

कबीरदास ने कहा है; मन ही सभी कृत्यों का सृजनकर्ता है। चाहे वक्त कहो या कर्म या फिर उसे भाग्य की संज्ञा दे दो! इस कर्म के सहस्रनाम हैं और इन सबका सृजनहार हमारा मन ही है।

आखिर यह जो भाग्य है, मनुष्य के पूर्व जन्मों के कर्मों का ही फल का अंश है। कर्म के फल का अंश, जो इस जन्म के भोग के लिए निश्चित होता है या इस जन्म में जिन संचित कर्मो का भोग आरम्भ हो चुका है, वही भाग्य है। संचित कर्म से आशय है; मात्र इस जीवन के ही नहीं बल्कि पूर्वजन्मों के सभी कर्म जो प्राणी के द्वारा उन जन्मों में किये गये हैं। प्रत्येक जन्म में किए गए संस्कार एवम् उसके फल भाव का संचित कोष तैयार हो जाता है। यह उस जीव की व्यक्तिगत पूंजी है जो अच्छी या बुरी दोनों प्रकार की हो सकती है। यही संचित कोष संचित कर्म कहलाता है। इसलिए तो कहा जाता है कि मनुष्य अपना भाग्य जन्म के साथ लेकर आता है। 

माया मोह धन जोबना इनि बंधे सब लोई।

झुठै झुठै बेयापिया अलख न लखई कोई।।

कबीर कहते हैं कि माया, मोह, धन, यौवन आदि को ही सच मानकर लोग भ्रम में जी रहे हैं। सर्वत्र झुठ ही झुठ फैला हुवा है। जिस अलख को जगाने की जरूरत है! जिस सत्य को जानने से झुठ मिट जायेगा, उसे जानने का प्रयत्न कोई नहीं करता।

संसय सब जग खण्डिया संसय खण्डे कोय।

संसय खण्डे सो जना जो शबद विवेकी होय।।

कबीर कहते हैं कि मन और माया रचित इस संशय का खंडन वही कर सकता है, जो शब्द विवेकी हो।  विवेक के उद्भव हो जाने पर सच का बोध होता है। तब यह ज्ञात होता है कि सारा जगत मन और माया रचित प्रपंच है। सभी लोग लोग इसी प्रपंच के जाल में उलझे हुए हैं, और उन्हें लगता है कि वे ही सही हैं।

प्रखर दार्शनिक ओशो के शब्दों में : “मैं नहीं कहता कि संसार झुठ है! मैं कहता हूं संसार सच है। संसार तो परमात्मा की काया है! माया नहीं, उसकी अभिव्यक्ति है। यह संसार सत्य है! अगर कुछ असत्य है तो वह है तुम्हारा मन। मन माया है, संसार नहीं। मन कल्पनाओं का जाल बुनता है। संसार का पर्दा तो सच है, मन उस पर बड़े चित्र उभारता है – काल्पनिक झुठे ; जैसे रस्सी में कोई सांप देख ले। सांप झुठा होगा लेकिन रस्सी झुठी नहीं है।

रस्सी तो है न! और सांप तो है ही नहीं, तुम्हें दिखाई पड़ता है। तुम्हारी दृष्टि का भूल है। दृष्टि के भूल को रस्सी पर थोंप रहे हो। अपनी भ्रांति को संसार पर फैला रहे हो। संसार सत्य है! संसार परमात्मा की अनेकानेक रूपों में अभिव्यक्ति है। वृक्षों में वही हरा है, फूलों में वही लाल है। सुरज की किरणों में वही स्वर्ण की तरह बरस रहा है। तुम्हारे भीतर वही चैतन्य की तरह विराजमान है। तुम्हारी देह में वही ठोस हुवा है। तुम्हारा बहिरंग भी वही है, अंतरंग भी वही है। तुम्हारा केन्द्र भी वही है, परिधि भी वही है।

लेकिन केन्द्र और परिधि के बीच तुम्हें क्षमता है, कल्पनाओं को खड़ा कर लेने की। तुम रस्सी में सांप देख लेने में समर्थ हो। तुम इसे उल्टा भी कर सकते हो, सांप में रस्सी देख सकते हो। तुम्हारे मन की क्षमता है! इस मन को ही मिटा देना है। मनुष्य शब्द ही मन से बनता है। मनुष्य की इतनी ही खुबी है कि उसके पास मन है। और जिस दिन मन मिट जाता है, उस दिन तुम परमात्मा हो।”

माया मनुष्य के मन की ऐसी क्षमता है कि वह जो मान ले, वैसा ही उसके मन के समक्ष होना शुरू हो जाता है। उसकी मान्यता ही यथार्थ बन जाती है। वह जैसा अंगीकार कर ले, वैसा ही घटित होना शुरू हो जाता है। माया से नहीं छुटना है, मन से छुटना है। और छुटने के लिए कहीं नहीं जाना! ध्यान में जगना है।

ओशो

रामचरितमानस में वर्णित है कि “जासु सत्यता तें जड़ माया” , माया जड़ ( जड़ और चेतन ) है, और ब्रह्म सत्य है। जैसे एक कुल्हाड़ी तब तक बेकार है, जब तक लकड़हारा उसे पकड़कर उसका उपयोग नहीं करता। जिस प्रकार लकड़हारे की शक्ति पाकर कुल्हाड़ी लकड़ी को काटती है। उसी प्रकार माया ब्रह्म की शक्ति से ही कार्यशील है।

समस्त संसार माया रचित है। माया की गतिशीलता के कारण ही इस संसार का अस्तित्व है। और यह जो माया है एक ईश्वरीय शक्ति है। स्थुल और सूक्ष्म! इस शक्ति के दो स्वरुप हैं। स्थूल बाहर का संसार है, जो हमें दिखाई पड़ता है। भीतर जो सूक्ष्म है, जो हमें दिखाई नहीं देता, उसके भी दो स्वरुप हैं। एक मन जो सारे उपद्रव का जड़ है। और दुसरा जो शुद्ध स्वरुप में है भीतर गहराइयों में छुपा है, जिसे हम आत्मा के नाम से जानते हैं। 

मन के कारण ही हम भ्रम की स्थिति में होते हैं। हमारा हर कर्म इंद्रियों द्वारा संचालित होता है। और इंद्रियों का स्वामी हमारा मन ही है। हमारा दृष्टिकोण हमारे मन के द्वारा ही निर्मित होता है। यह मन की शक्ति ही है, जिसके कारण हम सांसारिक आकर्षण से बंधे हुए हैं। आरंभ में हमारा मन कोरा कागज़ के समान होता है। जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं, बाहर से प्रभावित हो जाते हैं। हम किसी पदार्थ को इन्द्रियरूपी चश्में से देखते हैं। यह जो माया है, जो हमारे मन के द्वारा निर्मित होता है, असत्य है। यही द्रष्टा और दृश्य के बीच का पर्दा है।

मन पर नियंत्रण कैसे करें! how to control the mind.

मन को नियंत्रित किये विना हम इस ईश्वरीय शक्ति के शुद्ध स्वरुप का अनुभव नहीं कर सकते। अगर हम मन को नियंत्रित कर सकें तो माया के उस स्वरुप का अनुभव कर सकते हैं, जो सत्य है। जिसके कारण हमारा और समस्त संसार का अस्तित्व है। और इस अवस्था को ध्यान और भक्ति के मार्ग पर चलकर प्राप्त किया जा सकता है।

मन के मते न चलिये – Man Ke Mate mat Chaliye

“घट-घट व्यापक राम” , तुलसीदास ने कहा है कि राम एक एक कण में व्याप्त हैं। उनके कहे का तात्पर्य है कि ईश्वर माया में व्याप्त हैं। जहां काम हो वहां राम नहीं, और जहां राम हों वहां काम नहीं हो सकता। परन्तु इस बात को कितने समझ पाते हैं। अधिकांश तो आशा, तृष्णा, लोभ, मोह आदि मनोवृत्तियों के चक्कर में पड़े रहते हैं। हमारी जो दृष्टि है देखने की, जिस चश्में से हम देखते हैं, उसे हम उतर नहीं पाते। फलस्वरूप जो असत्य है, उसे ही सत्य समझ लेते हैं। यही हमारा भ्रम है, जो हमारे मन की शक्ति है। यह जो माया है, जिसमें हम उलझकर रह जाते हैं। इसलिए तो कबीरदास ने कहा है :-

माया मरी न मन मरा मर-मर गया शरीर।

आशा तृष्णा ना मरी कह गये दास कबीर।।

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